प्रभाष जोशी
दूसरों को ख़बरदार करने वाले और उनको ख़बर देने वाले प्रभाष जोशी अब ख़ुद एक ख़बर बन गए !उनका दुनिया से जाना इसलिए भी खटकता है कि अपने पेशे को महज़ औपचारिकतावश नहीं निभाया वरन अपनी पूरी जान लगाकर उसका मान भी बढ़ाया है। वे मरते दम तक पत्रकारीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों के लिए लिखते और लड़ते रहे। इस तरह हम उन्हें पत्रकारिता का 'हंटर मैन' भी कह सकते हैं,जिन्होंने न केवल दूसरों पर अपितु अपनी बिरादरी पर भी करारे प्रहार किए !
पाँच नवम्बर 2009 एक ऐसी टीस दे गया है जो कभी भुलाए नहीं भूलेगी। उस दिन अपन भी मैच देख रहे थे और सचिन की आतिशी पारी का काफ़ी दिनों बाद लुत्फ़ भी उठा रहे थे । जब लगा कि भारत अब मैच नहीं हारेगा,तभी सचिन का आत्मघाती स्कूप जीत को हमारे जबड़ों से निकाल ले गया और शायद यही स्ट्रोक जोशी जी की जान ले बैठा ! सच मानिए ,मैच गंवाने के बाद मेरे मन में आशंका भी आई थी कि सुबह हो सकता है हमें दो-चार ऐसे लोगों की ख़बर मिले कि वे इस आघात को सहन नहीं सके पर उस समय दिल अचानक बैठ गया जब ६ बजे सुबह टी.वी. पर जोशी जी के निधन का 'कैप्शन' देखा। मुझे रात में आए हुए दुःस्वप्नों का भी ख़याल आया। बहरहाल ,अब हम सब सब कुछ गँवा बैठे थे,उस एक मैच से बहुत ज्यादा !
जोशी जी से मिलने की मेरी बहुतेरी इच्छा थी पर मैं विगत पन्द्रह सालों से दिल्ली में रहते हुए भी इस लाभ से वंचित रहा। एकाध बार फ़ोन से बात करने की कोशिश भी की पर सफलता नहीं मिली। मैं ज़रूर पिछले पन्द्रह सालों से 'जनसत्ता' पढ़ता रहा हूँ और इसी बात से संतुष्ट था कि वो हमारे आस-पास ही हैं। 'कागद कारे' का तो मुरीद मैं बन ही चुका था उनकी हर विषय पर टिप्पणी का दीवाना था।
'जनसत्ता' की पैदाइश जिस सोच के साथ उन्होंने की थी वह सोच अभी भी जीवित है,यह उनके जादुई लेखन और प्रेरणा का ही असर है। इस अखबार ने प्रबुद्ध समाज की न केवल भूख बढ़ाई बल्कि उसे शांत भी किया। यह एकमात्र ऐसा अख़बार रहा जिसने अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के बजाय एक जागरूक परिवार बनाया और इसके लिए इसके प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं।निः संदेह इस सबके पीछे प्रभाष जोशी ही थे!
वे न केवल ख़बरों के पत्रकार थे बल्कि आम आदमी से जुड़ी हर बात को अधिकार-पूर्ण और बेलौस अंदाज़ में कहने वाले निर्भीक इंसान थे। राजनीति के अलावा क्रिकेट और टेनिस को रोचक और साहित्यिक अंदाज़ में बताने वाले वे अकेले थे। सांप्रदायिक ताकतों के ख़िलाफ़ उनकी कलम को तो जैसे महारत हासिल थी। वे कबीर,गाँधी और विनोबा के मिले-जुले रूप में हमारे सामने थे।सत्ता और साधन का उन्होंने कभी मोह नहीं किया,जबकि उनके समकालीन पत्रकार सुविधाएँ पाने के लिए कितनी जुगत लगाते हैं ,यह छिपा नहीं है.हालिया दिनों में पैसे लेकर खबरें छपने वालों के पीछे वे हाथ धोकर पड़े थे।
उम्मीद है कि 'जनसत्ता' के रूप में उन्होंने जो लौ जलाई थी वह बुझने नहीं दी जायेगी और हम सबकी उनके प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी !
बहुत सुन्दर लेख लिखा जोशी जी के बारे में। उनकी याद को नमन!
जवाब देंहटाएं@अनूप शुक्ल जोशी जी की याद आज और प्रासंगिक है.वास्तव में वे पत्रकारिता के गाँधी थे!
जवाब देंहटाएंMadu Limiye Ji ke baad joshi ji hi unake uttaradhikari the.
जवाब देंहटाएंab unaki jagah kaun lega?