10 फ़रवरी 2021

तुम्हारे लिए

 किसी के आँसुओं पर मत हँसो,

आह उसकी ख़ाक कर देगी तुम्हें।


तख़्त पर बैठा नहीं रहता कोई 

इक दिन जमीं ही आसरा देगी तुम्हें।


दक्षिणा देना ग़लत कब से हुआ 

पर रसीद उसकी गिरा देगी तुम्हें।


सियासी चाल चलिए ख़ूब लेकिन

धूल में भी ये मिला देगी तुम्हें ।

31 अक्टूबर 2020

शायर फिर बोला है !

 शायर फिर से बोला है,

ज़हर फ़िज़ा में घोला है।


रोज़ सियासत रिसती है,

जब भी मुँह खोला है।


कट्टरता,पाखंड में चुप्पी,

रंगा मज़हबी चोला है।


पक्के गाँधीवादी ठहरे,

हाथ ‘अहिंसा-गोला’ है।


मज़हब सबसे ऊपर है,

असली यही फफोला है।


‘हम सब मानव हैं पहले’

शायर क्यूँ ना बोला है !


—संतोष त्रिवेदी 


#MunawwarRana

8 जून 2020

बुरे दिनों में ईश्वर

बचपन में 

बहुत मानता था ईश्वर को

पढ़ते हुए भी कभी नहीं छोड़ा उसे

शालिग्राम की बटिया को कराता था स्नान 

और कंठस्थ कर लिया था सुंदरकांड 

सुनता था साधुओं के मुख से निकले ब्रह्म-स्वर

और आनंदित थास्व-धर्ममें चलते हुए।


तब कभी जब डर लगता

रात में गाँव वाले पीपल के पास से गुजरते हुए

तो जपने लगता हनुमान चालीसा 

भूत भी भागते थे सरपट 

बिना किसी लाठी या डंडे से मारे 

ईश्वर ही मेरे लिए सरकार थी।


और अंततः एक दिन बड़ा हुआ 

पढ़-लिखकर समझदार और आत्म-निर्भर बना

ईश्वर को धर दिया था कहीं दूर 

अब डरता था किसी से

झुकता था किसी ईश्वर के सामने 

स्कूल में जब बच्चों को पढ़ाता कबीर को 

तब हँसता था उसकी हाज़िरी पर 

बिना यह जाने कि ईश्वर भी हँसता होगा 

हमारी मूढ़ता और अलपज्ञता पर

हम रोज़ बढ़ रहे थे नास्तिकता की ओर

अक्सर रहते थे नाराज़ सरकार से 

 कि जाने क्यों

शिक्षालय और हस्पतालों के बदले 

वह बनवाती है देवालय 

और स्थापित करती है मूर्तियाँ


उसकी दूरंदेशी तब समझ आई

जब मौत से भी अधिक डराने लगी महामारी


सरकार दूरदर्शन पर रोज़ आने लगी

बंद पड़ा रेडियो चल पड़ा

घरबंदीमें जब सब कुछ बंद था

चुपके से घर में गया था ईश्वर

मानो सारी सत्ता के साथ हमें भी सौंप दिया हो उसे 

चूँकि ईश्वर ख़ुद नहीं बोलता

तो स्वयं बोली सरकार 

तुम्हें कुछ नहीं होगा 

हम हैं तुम्हारे साथ आख़िरी वक़्त तक 

बस तुम हौसला बनाए रखो इस पैकेज के साथ।

हमने बजाईं तालियाँ इस पर

लट्टू हो गया था सरकार की उदारता पर


पर उस हौसले को सबसे पहले उसने ही छोड़ा

फिर छोड़ दिया मज़दूरों को उनके हाल पर

आत्माओं को रौंदती रहीं सड़कें

हम फिर भी बचे रहे

रुक-रुक कर थाली पीटते रहे

फिर यकायक एक दिन

उसने विज्ञापन में बताया कि सब कुछ ठीक होगा

ईश्वर पर भरोसा रखो

और उसने खोल दिए सभी देवालयों के कपाट

 बंद करके ज़िंदगी का आख़िरी रोशनदान

और हमें धकेल दिया फिर से उसी ईश्वर के पास

जिसे हम समझदार होने से ऐन पहले

छोड़ आए थे पाखंड और प्रपंच की तरह 

फिर से उसका आह्वान आरंभ किया है 

कर रहा हूँ पुनर्पाठ चौपाई और मंत्रों का

फ़िलवक्त कबीर को रख दिया हैहोल्डपर 

भूल चुका हूँ पुराने पाठ और तर्क

जान चुका हूँ असली सरकार कौन है

भले ही बोलता नहीं है ईश्वर

पर ध्यान से सुनता तो है हमारी


हमें फिर से ईश्वर के हँसने की आवाज़ सुनाई दे रही है !


संतोष त्रिवेदी 

०८/०६/२०२०













28 अक्टूबर 2019

सियासत

सब गिर गए हैं,किसे अब गिराएँ,
मुहब्बत में थोड़ा,ज़हर भी मिलाएँ

तनिक पास आओ,हमसे मिलो
झटकने से पहले,गले तो लगाएँ।

मिल कर रहेंगे तो अच्छा रहेगा,
तुम जेल जाओ,तुम्हें हम छुड़ाएँ। 

तुम्हारे हैं पासे,तुम्हारी हैं चालें,
गिरो तो गिराएँ,उठो तो उठाएँ

सियासत की बहती गंगा यहाँ
तुम भी नहाओ,हम भी नहाएँ

चलो आज ऐसा वादा करें,
पहले के वादे सभी भूल जाएँ


संतोष त्रिवेदी