शीर्षक पढ़कर चौंकिए नहीं जनाब !देश में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की ऐसी दुर्दशा हो रही है,जिसके बारे में किसी को परवाह नहीं है .विद्यालयों से पढ़ाई का माहौल बिलकुल नदारद है,'मास्टरजी' दूसरे कामों में लगे हुए हैं,छात्र बिंदास होकर कक्षाओं से बाहर घूम रहे हैं और सरकार शिक्षा-अधिनियम लागू कर बेफ़िक्र हो गयी है.
ऊपर की घटनाएँ थोड़ी बानगी भर हैं. दर-असल वर्तमान सत्र में सितम्बर बाद से शायद ही छात्रों को उनके 'मास्टरजी' पूरा समय दे पाए हों ! बड़े शोर-शराबे के बीच ,छात्रों के ऊपर से दबाव हटाने के नाम पर सीबीएसई ने सतत मूल्याङ्कन प्रणाली (cce ) की शुरुआत करी जिसका नतीज़ा यह निकला कि अधिकतर सत्र में शिक्षक प्रश्न-पत्र बनाने, उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्याङ्कन करने ,'प्रोजेक्ट-कार्य' करवाने तथा इस सबका विवरण तीन -चार जगह सहेजने में लग गए.इस सबसे इतर 'मिड-डे मील' बँटवाना,नाना प्रकार की छात्रवृत्तियाँ देना भी मास्टरजी की दिनचर्या में शामिल कर दिया गया.
शिक्षा के साथ खिलवाड़ करने वालों का जैसे इस सबके बावज़ूद मन न भरा हो और उन्होंने शिक्षकों को विद्यालय से बाहर भेजने का भी पक्का इंतज़ाम कर लिया .कभी चुनाव कार्य के नाम पर अध्यापकों को बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) की ड्यूटी थमाई गयी तो अब दशकीय जनगणना के नाम पर पूरे शिक्षक वर्ग को काम पर लगा दिया गया है.उनसे यह अपेक्षा की गयी है कि वे विद्यालय समय के बाद इस कार्य को अंजाम दें,जो कि कई मायनों में असंभव-सा है !यहाँ कई बातें ऐसी हैं जो जनहित की हैं और उनकी उपयोगिता को किसी प्रकार से कमतर करने कोशिश नहीं की जा रही है,पर क्या किसी ने इस ओर ध्यान दिया है कि यह सब किस कीमत पर हो रहा है ?
सबसे बड़ी खेदजनक बात यह है कि सरकार ने शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर इसे दोयम दर्ज़े में शामिल कर दिया है और इस पर न तो कोई राजनैतिक दल,न ही मीडिया और न ही शिक्षाविद सोच रहे हैं.इन सब वाकयों से असल में धनाढ्य ,राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी का कोई लेना-देना नहीं है.उनके बच्चों की चिंता उन्हें नहीं सरकार को,समाज को,मीडिया को,सभी को है.जिन लोगों के बच्चों की शिक्षा दाँव पर लगी है,वे किसी नीति -निर्माता के सगे नहीं हैं.क्या उन बच्चों का कोई 'मानवाधिकार' है भी कि नहीं? 'सबके लिए ज़रूरी शिक्षा ' के नाम पर क्या केवल मखौल नहीं उड़ाया जा रहा है ?
आखिर,ऐसा क्या है कि सरकार इस तरह का बर्ताव शिक्षा के प्रति कर रही है ? सबसे बड़ा कारण इसमें 'बाबूगीरी' का है.अधिकतर बाबुओं के दिमाग़ में 'मास्टर' शब्द आते ही घिन उठती है."ये ससुर न पढ़ाते हैं न लिखाते हैं और हमसे मोटी पगार हथिया लेते हैं",ऐसी विकृति सोच उनके दिमाग़ में भरी है,तभी ऐसी ऊट-पटांग और अव्यावहारिक नीतियां लागू कराते हैं कि इन 'मास्टरों' की अकल ठिकाने आ जाए !
सरकार हर बार की तरह परीक्षा-परिणाम का फ़ीसद देखती है,वह बढ़ा हुआ होता है,वह भी खुश,अधिकारी अपनी पीठ थपथपाते हैं और अखबार भी दो-चार कसीदे लिख देते हैं.जबकि शिक्षा के असली हक़दार अपने को ठगा हुआ पाते हैं ! इस तरह शिक्षा-पद्धति को बड़े पैमाने पर एक नया मुकाम मिल गया है,जहाँ पढ़ानेवाले को पढ़ाने नहीं दिया जाता,पढनेवाले को पढने नहीं दिया जाता और अध्यापकों से शिक्षण-समय के बाद भी काम करवाकर उनको प्राकृतिक - न्याय से वंचित किया जा रहा है. यहाँ सबसे चिंताजनक हालत सरकारी-शिक्षा की है,पर शायद इस तरफ सोचने की 'फिकर' किसी को नहीं है ! इसीलिये बरबस ये पंक्तियाँ थोड़े हेर-फेर के साथ याद आती हैं,"शिक्षे ,तुम्हारा नाश हो,तू केवल कागज़ी बनी !"
ऊपर की घटनाएँ थोड़ी बानगी भर हैं. दर-असल वर्तमान सत्र में सितम्बर बाद से शायद ही छात्रों को उनके 'मास्टरजी' पूरा समय दे पाए हों ! बड़े शोर-शराबे के बीच ,छात्रों के ऊपर से दबाव हटाने के नाम पर सीबीएसई ने सतत मूल्याङ्कन प्रणाली (cce ) की शुरुआत करी जिसका नतीज़ा यह निकला कि अधिकतर सत्र में शिक्षक प्रश्न-पत्र बनाने, उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्याङ्कन करने ,'प्रोजेक्ट-कार्य' करवाने तथा इस सबका विवरण तीन -चार जगह सहेजने में लग गए.इस सबसे इतर 'मिड-डे मील' बँटवाना,नाना प्रकार की छात्रवृत्तियाँ देना भी मास्टरजी की दिनचर्या में शामिल कर दिया गया.
शिक्षा के साथ खिलवाड़ करने वालों का जैसे इस सबके बावज़ूद मन न भरा हो और उन्होंने शिक्षकों को विद्यालय से बाहर भेजने का भी पक्का इंतज़ाम कर लिया .कभी चुनाव कार्य के नाम पर अध्यापकों को बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) की ड्यूटी थमाई गयी तो अब दशकीय जनगणना के नाम पर पूरे शिक्षक वर्ग को काम पर लगा दिया गया है.उनसे यह अपेक्षा की गयी है कि वे विद्यालय समय के बाद इस कार्य को अंजाम दें,जो कि कई मायनों में असंभव-सा है !यहाँ कई बातें ऐसी हैं जो जनहित की हैं और उनकी उपयोगिता को किसी प्रकार से कमतर करने कोशिश नहीं की जा रही है,पर क्या किसी ने इस ओर ध्यान दिया है कि यह सब किस कीमत पर हो रहा है ?
सबसे बड़ी खेदजनक बात यह है कि सरकार ने शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर इसे दोयम दर्ज़े में शामिल कर दिया है और इस पर न तो कोई राजनैतिक दल,न ही मीडिया और न ही शिक्षाविद सोच रहे हैं.इन सब वाकयों से असल में धनाढ्य ,राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी का कोई लेना-देना नहीं है.उनके बच्चों की चिंता उन्हें नहीं सरकार को,समाज को,मीडिया को,सभी को है.जिन लोगों के बच्चों की शिक्षा दाँव पर लगी है,वे किसी नीति -निर्माता के सगे नहीं हैं.क्या उन बच्चों का कोई 'मानवाधिकार' है भी कि नहीं? 'सबके लिए ज़रूरी शिक्षा ' के नाम पर क्या केवल मखौल नहीं उड़ाया जा रहा है ?
आखिर,ऐसा क्या है कि सरकार इस तरह का बर्ताव शिक्षा के प्रति कर रही है ? सबसे बड़ा कारण इसमें 'बाबूगीरी' का है.अधिकतर बाबुओं के दिमाग़ में 'मास्टर' शब्द आते ही घिन उठती है."ये ससुर न पढ़ाते हैं न लिखाते हैं और हमसे मोटी पगार हथिया लेते हैं",ऐसी विकृति सोच उनके दिमाग़ में भरी है,तभी ऐसी ऊट-पटांग और अव्यावहारिक नीतियां लागू कराते हैं कि इन 'मास्टरों' की अकल ठिकाने आ जाए !
सरकार हर बार की तरह परीक्षा-परिणाम का फ़ीसद देखती है,वह बढ़ा हुआ होता है,वह भी खुश,अधिकारी अपनी पीठ थपथपाते हैं और अखबार भी दो-चार कसीदे लिख देते हैं.जबकि शिक्षा के असली हक़दार अपने को ठगा हुआ पाते हैं ! इस तरह शिक्षा-पद्धति को बड़े पैमाने पर एक नया मुकाम मिल गया है,जहाँ पढ़ानेवाले को पढ़ाने नहीं दिया जाता,पढनेवाले को पढने नहीं दिया जाता और अध्यापकों से शिक्षण-समय के बाद भी काम करवाकर उनको प्राकृतिक - न्याय से वंचित किया जा रहा है. यहाँ सबसे चिंताजनक हालत सरकारी-शिक्षा की है,पर शायद इस तरफ सोचने की 'फिकर' किसी को नहीं है ! इसीलिये बरबस ये पंक्तियाँ थोड़े हेर-फेर के साथ याद आती हैं,"शिक्षे ,तुम्हारा नाश हो,तू केवल कागज़ी बनी !"
शीर्षक ने चौंकाया फिर आपने न चौंकने को कहकर शुरू किया. आप अध्ययन-अध्यापन से जुड़े हैं, थोड़ी देर को ही सही गौर फरमाएं कि नीति बनते-बिगड़ते-सुधरते तक क्या हमारे करने को कुछ है या नहीं.
जवाब देंहटाएंजब मास्टरजी दूसरे कामों में लगते हैं, बच्चे तीसरे कामों में लग जाते हैं, पहले काम की चर्चा हम लोग कर लेते हैं।
जवाब देंहटाएंअधिकतर शिक्षकों मे भी गुरु की भावना घटती गयी और सरकार ने भी शिक्षकों को केवल एक कर्मचारी मानना शुरू कर दिया. शिक्षकों मे घटते नैतिक स्तर के कारण समाज ने भी उन्हें एक पेड सर्वेंट समझना शुरू कर दिया. विद्यार्थी भी उसे चक्र का भाग बन गए . फिर यह जो विलोम चक्र शुरू हुआ वह अपना असर बढाता ही गया. आज गति और तेज होती दिख रही है. मेरी नजर मे सभी उतने ही जिम्मेदार हैं, सरकार , सरकार मे बैठे लोग, शिक्षक, छात्र, समाज ......
जवाब देंहटाएंआपकी चिंता बिलकुल जायज है.
जवाब देंहटाएंab na vaise shikshak rahe na vidyarthi.
जवाब देंहटाएं@ Rahul Singh आज के समय में हम केवल अपनी बात कह सकें,यही बड़ी बात है !
जवाब देंहटाएं@प्रवीण पाण्डेय जब तक शिक्षा के सारे घटक अपना ताल-मेल नहीं बिठाएँगे,ऐसा ही होता रहेगा !
@सुशील दीक्षित गुरुओं की गुरुता में तो छीजन आई ही है,काश!तथाकथित 'गुरूजी' सुन-समझ लेते !
@सोमेश सक्सेना सार्थकता तभी होगी जब इस ओर कुछ किया जाए !
@संतोष पाण्डेय समाज के बदलते ढंग से शिक्षक बदल रहे हैं तो फिर काहे के शिक्षक ?
सर , मैं आपको एक बात बताऊ तो आपको ताज्जुब होगा. मैं आयकर विभाग मे अधीक्षक के पर कार्यरत हूँ और शनिवार और रविवार को मेरा अवकाश रहता है. मैं कानपुर से ४० किलोमीटर दूर एक स्कूल मे शनिवार को अपना पेट्रोल और समय लगाकर फ्री मे पढाने और व्यवस्था देखने जाता हूँ . मैं पास मे भी कर सकता हूँ पर मैं बिलकुल देहात मे जाता हूँ कि जहां पर शिक्षा का अभाव हो वहाँ पर जाऊं . मैं अपने घर का काम छोड़ कर भी उस दिन स्कूल जाना जायदा पसंद करता हूँ. लेकिन दर्द तब होता है जब देखता हूँ कि जिनको २० हजार रुपये पढाने को मिलते हैं वह मुझसे भी राजनीत करते हैं जबकि मैं कुछ भी नहिं लेता हूँ आप कभी कानपुर आये तो मैं अपने स्कूल ले चलूँगा.
जवाब देंहटाएं@सुशील दीक्षित आपके शिक्षा के प्रति किये जा रहे प्रयास स्तुत्य हैं.जिन लोगों का ज़िक्र आपने किया है,यदि वे इस लायक होते तो शायद जो 'ज़हमत' आप उठा रहे हैं उसकी ज़रुरत ही न पड़ती !
जवाब देंहटाएंकभी मौक़ा मिला तो आपके 'मिशन'को ज़रूर देखना चाहूँगा !
जब मास्टरजी दूसरे कामों में लगते हैं, बच्चे तीसरे कामों में लग जाते हैं, पहले काम की चर्चा हम लोग कर लेते हैं।
जवाब देंहटाएंसाभार:@प्रवीण पाण्डेय
@ प्रवीण त्रिवेदी धन्यवाद!(कॉपी एंड पेस्ट का अच्छा उदाहरण)
जवाब देंहटाएंआज की शिक्षा प्रणाली और शिक्षा का स्वरूप हमें आत्मचिंतन का अवसर नहीं देता बल्कि ऐसी इच्छाएँ पैदा कर देता है कि हम शिक्षा के मायने ही भूल जाते हैं ...आपकी चिंता बाजिव है ...आपका आभार
जवाब देंहटाएं@संतोष त्रिवेदी जी !
जवाब देंहटाएंसच कहूँ तो व्यवस्था ....चाहे शैक्षिक हो या कोई और ......बार बार उसी बात को कहते कहते उब सी होने लगा है .......सो इसी तरह कॉपी पेस्ट से काम चलाइए !
@प्रवीण त्रिवेदी अरे महाराज !व्यवस्थापक तो यही चाहते हैं कि आप ऊबें,सहनशील बनें,अभ्यस्त हो जाएँ तो उनका काम आसान हो जायेगा,पर हम तो जगाते,झिंझोड़ते रहेंगे !
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