19 फ़रवरी 2011

मित्रता के मायने !

बहुत ही संवेदनशील और गंभीर विषय पर बात करने जा रहा हूँ.कई दिनों से मेरे मन में एक मंथन चल रहा है जिसे सबके साथ साझा कर रहा हूँ.मित्र शब्द से ज़ेहन में ऐसी तस्वीर बनती है जिसके आगे हम बिलकुल खुल जाते हैं,बिछ जाते हैं.मित्रता में औपचारिकता  नहीं होती,समान विचार कम आलोचना और मतभेद ज्यादा होते हैं.


हम ऐसी मित्रता की बात कर रहे हैं जो  सोद्देश्य न हो.अपना हित जब तक  सधता रहे तब तक हम दोस्त बने रहें यह दोस्ती नहीं एक तरह की सौदेबाज़ी और 'रणनीति' है. मैं बहुत खुशमिजाज़ और मजाकिया हूँ,पढ़ाई से लेकर अब तक कई दोस्त बने लेकिन परिस्थितिवश हमें अलग होना पड़ा.नई जगह आने पर नए संपर्क मिलते हैं,जाहिर है नए दोस्त भी मिलेंगे.इसका मतलब ऐसा नहीं है कि पुराने छूट  जाएँ.दर-असल दोस्त कभी पुराने नहीं होते ,समयाभाव या हमारी जीवनशैली उन्हें दूर कर देती है पर वास्तव में सच्चे मित्र वही होते हैं जिनसे मिलकर हम खूब खुश होते हैं,दिल के सारे गुबार उनके आगे निकाल देते हैं.

मैं बोलता बहुत हूँ इस वज़ह से नए लोग मुझसे बचते भी हैं,पर मैं केवल मित्र बनाने के लिए अपनी स्वाभाविकता त्याग दूँ, ऐसा नहीं हो सकता.मैं चाहता हूँ कि मेरा मित्र मुझे मेरे गुण-दुर्गुण के साथ स्वीकारे. मैंने कभी मित्र बनाने में ज्यादा उतावलापन नहीं दिखलाया  .मेरी सोच हमेशा से रही है कि यदि वह मेरी मित्रता के लिए उपयुक्त  होगा तो मुझसे बच नहीं सकता.आख़िर उसकी भी तो नज़र पारखी होनी चाहिए !

मित्रता में समान विचार  होने को मैं ज़रूरी नहीं समझता,हाँ मैं ज़रूर चाहूँगा कि जिससे मेरी मित्रता हो उसका आचरण अच्छा हो.व्यक्तिगत जीवन में हो या किसी और सन्दर्भ में ,यदि किसी की नीयत या ईमान में  खोट है तो वह अच्छा मित्र भी नहीं साबित होगा. इस कसौटी में हमने मित्र खोए ज्यादा हैं ,पाए कम.मुझे ऐसे लोगों के खोने का रंचमात्र भी दुःख नहीं रहा,क्योंकि मैं  सोचता हूँ कि वे कभी  'मित्र' थे ही नहीं .

मैं समझता हूँ कि  दोस्ती बचाने के लिए नहीं बल्कि दोस्ती के लिए दोस्त बनाए जाते  हैं.इस में यदि सही और हितकारी बात भी उसे सहन नहीं है तो हम काहे के दोस्त.दोस्त की हर बात मानना ज़रूरी नहीं है,ज़रूरी यह है कि हम और वह अपना-अपना मत रख सकें .हमने इस छोटे से जीवन में अनुभव किया है कि आज लोग मित्रता के अर्थ को नहीं पहचानते हैं,"शॉर्ट-कट ' तरीकों से मित्र बनाते हैं और उन्हें सीढ़ियों की  तरह इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाते हैं .ऐसे लोग तब बिलकुल अकेले हो जाते हैं जब उनका कोई मित्र निःस्वार्थ भाव से उनके दुःख के समय में आस-पास नहीं होता !

तुलसीदास बाबा की कुछ पंक्तियाँ गौर फरमाएँ :

"निज दुःख गिरि सम रज करि जाना.मित्रक दुःख रज मेरु समाना
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा.गुन प्रकटे  अवगुननि  दुरावा.
जाकर चित अहि-गति सम भाई.अस कुमित्र परिहरेहिं  भलाई" 






5 फ़रवरी 2011

शिक्षे,तुम्हारा नाश हो !

शीर्षक पढ़कर चौंकिए  नहीं जनाब !देश में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की ऐसी दुर्दशा हो रही है,जिसके बारे में किसी को परवाह नहीं है .विद्यालयों से पढ़ाई का माहौल बिलकुल नदारद है,'मास्टरजी' दूसरे कामों में लगे हुए हैं,छात्र बिंदास होकर  कक्षाओं से बाहर घूम रहे हैं और सरकार शिक्षा-अधिनियम लागू कर  बेफ़िक्र हो गयी है.

ऊपर की घटनाएँ थोड़ी बानगी भर हैं. दर-असल  वर्तमान सत्र में सितम्बर बाद से शायद ही छात्रों को उनके 'मास्टरजी' पूरा  समय दे पाए हों ! बड़े शोर-शराबे के बीच ,छात्रों के ऊपर से दबाव हटाने  के नाम पर सीबीएसई ने सतत मूल्याङ्कन प्रणाली (cce ) की शुरुआत करी जिसका नतीज़ा यह निकला कि अधिकतर सत्र में शिक्षक प्रश्न-पत्र बनाने, उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्याङ्कन करने ,'प्रोजेक्ट-कार्य' करवाने तथा इस सबका विवरण तीन -चार जगह सहेजने में लग गए.इस सबसे इतर 'मिड-डे मील' बँटवाना,नाना प्रकार की छात्रवृत्तियाँ देना भी मास्टरजी की दिनचर्या में शामिल कर दिया गया.

शिक्षा के साथ खिलवाड़ करने वालों का जैसे इस सबके बावज़ूद मन न भरा हो और उन्होंने शिक्षकों को विद्यालय से बाहर भेजने का भी पक्का इंतज़ाम कर लिया .कभी चुनाव कार्य के नाम पर अध्यापकों को बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) की ड्यूटी थमाई गयी तो अब दशकीय जनगणना के नाम पर पूरे शिक्षक वर्ग को काम पर लगा दिया गया है.उनसे यह अपेक्षा की गयी है कि वे विद्यालय समय के बाद इस कार्य को अंजाम दें,जो कि कई मायनों में असंभव-सा है !यहाँ कई बातें ऐसी हैं जो जनहित की हैं और उनकी उपयोगिता  को किसी प्रकार से  कमतर करने कोशिश नहीं की जा रही है,पर क्या किसी ने इस ओर ध्यान दिया है कि यह सब किस कीमत पर हो रहा है ?


सबसे बड़ी खेदजनक बात यह है कि सरकार ने शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर इसे दोयम दर्ज़े में शामिल कर दिया है और इस पर न तो कोई राजनैतिक दल,न ही मीडिया और न ही शिक्षाविद सोच रहे हैं.इन सब वाकयों से असल में धनाढ्य ,राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी  का कोई लेना-देना नहीं है.उनके बच्चों की चिंता उन्हें नहीं सरकार को,समाज को,मीडिया को,सभी को है.जिन लोगों  के बच्चों की शिक्षा दाँव पर लगी है,वे  किसी नीति  -निर्माता के सगे नहीं हैं.क्या उन बच्चों का कोई 'मानवाधिकार' है भी कि नहीं? 'सबके लिए ज़रूरी शिक्षा ' के नाम पर क्या केवल मखौल नहीं उड़ाया जा रहा है ?

आखिर,ऐसा क्या है कि सरकार इस तरह का बर्ताव शिक्षा के प्रति कर रही है ? सबसे बड़ा कारण इसमें  'बाबूगीरी' का है.अधिकतर बाबुओं के दिमाग़ में 'मास्टर' शब्द आते ही घिन उठती है."ये ससुर न पढ़ाते हैं न लिखाते हैं और हमसे मोटी पगार हथिया लेते हैं",ऐसी विकृति सोच उनके दिमाग़ में भरी है,तभी ऐसी ऊट-पटांग  और अव्यावहारिक   नीतियां लागू कराते हैं कि इन 'मास्टरों' की अकल ठिकाने आ जाए  !


सरकार हर बार की तरह परीक्षा-परिणाम का फ़ीसद देखती है,वह बढ़ा हुआ होता है,वह भी खुश,अधिकारी अपनी पीठ थपथपाते  हैं और अखबार  भी दो-चार कसीदे लिख देते हैं.जबकि शिक्षा के असली हक़दार अपने को ठगा हुआ पाते हैं ! इस तरह शिक्षा-पद्धति  को बड़े पैमाने पर  एक नया मुकाम मिल गया है,जहाँ पढ़ानेवाले  को पढ़ाने नहीं दिया जाता,पढनेवाले को पढने नहीं दिया जाता और अध्यापकों से शिक्षण-समय के बाद भी काम करवाकर उनको  प्राकृतिक - न्याय से वंचित किया जा रहा है. यहाँ सबसे चिंताजनक हालत सरकारी-शिक्षा की है,पर शायद इस तरफ सोचने की 'फिकर' किसी को नहीं है ! इसीलिये बरबस ये पंक्तियाँ थोड़े हेर-फेर के साथ याद आती हैं,"शिक्षे ,तुम्हारा नाश हो,तू केवल कागज़ी बनी !"