बहुत ही संवेदनशील और गंभीर विषय पर बात करने जा रहा हूँ.कई दिनों से मेरे मन में एक मंथन चल रहा है जिसे सबके साथ साझा कर रहा हूँ.मित्र शब्द से ज़ेहन में ऐसी तस्वीर बनती है जिसके आगे हम बिलकुल खुल जाते हैं,बिछ जाते हैं.मित्रता में औपचारिकता नहीं होती,समान विचार कम आलोचना और मतभेद ज्यादा होते हैं.
हम ऐसी मित्रता की बात कर रहे हैं जो सोद्देश्य न हो.अपना हित जब तक सधता रहे तब तक हम दोस्त बने रहें यह दोस्ती नहीं एक तरह की सौदेबाज़ी और 'रणनीति' है. मैं बहुत खुशमिजाज़ और मजाकिया हूँ,पढ़ाई से लेकर अब तक कई दोस्त बने लेकिन परिस्थितिवश हमें अलग होना पड़ा.नई जगह आने पर नए संपर्क मिलते हैं,जाहिर है नए दोस्त भी मिलेंगे.इसका मतलब ऐसा नहीं है कि पुराने छूट जाएँ.दर-असल दोस्त कभी पुराने नहीं होते ,समयाभाव या हमारी जीवनशैली उन्हें दूर कर देती है पर वास्तव में सच्चे मित्र वही होते हैं जिनसे मिलकर हम खूब खुश होते हैं,दिल के सारे गुबार उनके आगे निकाल देते हैं.
मैं बोलता बहुत हूँ इस वज़ह से नए लोग मुझसे बचते भी हैं,पर मैं केवल मित्र बनाने के लिए अपनी स्वाभाविकता त्याग दूँ, ऐसा नहीं हो सकता.मैं चाहता हूँ कि मेरा मित्र मुझे मेरे गुण-दुर्गुण के साथ स्वीकारे. मैंने कभी मित्र बनाने में ज्यादा उतावलापन नहीं दिखलाया .मेरी सोच हमेशा से रही है कि यदि वह मेरी मित्रता के लिए उपयुक्त होगा तो मुझसे बच नहीं सकता.आख़िर उसकी भी तो नज़र पारखी होनी चाहिए !
मित्रता में समान विचार होने को मैं ज़रूरी नहीं समझता,हाँ मैं ज़रूर चाहूँगा कि जिससे मेरी मित्रता हो उसका आचरण अच्छा हो.व्यक्तिगत जीवन में हो या किसी और सन्दर्भ में ,यदि किसी की नीयत या ईमान में खोट है तो वह अच्छा मित्र भी नहीं साबित होगा. इस कसौटी में हमने मित्र खोए ज्यादा हैं ,पाए कम.मुझे ऐसे लोगों के खोने का रंचमात्र भी दुःख नहीं रहा,क्योंकि मैं सोचता हूँ कि वे कभी 'मित्र' थे ही नहीं .
मैं समझता हूँ कि दोस्ती बचाने के लिए नहीं बल्कि दोस्ती के लिए दोस्त बनाए जाते हैं.इस में यदि सही और हितकारी बात भी उसे सहन नहीं है तो हम काहे के दोस्त.दोस्त की हर बात मानना ज़रूरी नहीं है,ज़रूरी यह है कि हम और वह अपना-अपना मत रख सकें .हमने इस छोटे से जीवन में अनुभव किया है कि आज लोग मित्रता के अर्थ को नहीं पहचानते हैं,"शॉर्ट-कट ' तरीकों से मित्र बनाते हैं और उन्हें सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाते हैं .ऐसे लोग तब बिलकुल अकेले हो जाते हैं जब उनका कोई मित्र निःस्वार्थ भाव से उनके दुःख के समय में आस-पास नहीं होता !
तुलसीदास बाबा की कुछ पंक्तियाँ गौर फरमाएँ :
"निज दुःख गिरि सम रज करि जाना.मित्रक दुःख रज मेरु समाना
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा.गुन प्रकटे अवगुननि दुरावा.
जाकर चित अहि-गति सम भाई.अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई"
हम ऐसी मित्रता की बात कर रहे हैं जो सोद्देश्य न हो.अपना हित जब तक सधता रहे तब तक हम दोस्त बने रहें यह दोस्ती नहीं एक तरह की सौदेबाज़ी और 'रणनीति' है. मैं बहुत खुशमिजाज़ और मजाकिया हूँ,पढ़ाई से लेकर अब तक कई दोस्त बने लेकिन परिस्थितिवश हमें अलग होना पड़ा.नई जगह आने पर नए संपर्क मिलते हैं,जाहिर है नए दोस्त भी मिलेंगे.इसका मतलब ऐसा नहीं है कि पुराने छूट जाएँ.दर-असल दोस्त कभी पुराने नहीं होते ,समयाभाव या हमारी जीवनशैली उन्हें दूर कर देती है पर वास्तव में सच्चे मित्र वही होते हैं जिनसे मिलकर हम खूब खुश होते हैं,दिल के सारे गुबार उनके आगे निकाल देते हैं.
मैं बोलता बहुत हूँ इस वज़ह से नए लोग मुझसे बचते भी हैं,पर मैं केवल मित्र बनाने के लिए अपनी स्वाभाविकता त्याग दूँ, ऐसा नहीं हो सकता.मैं चाहता हूँ कि मेरा मित्र मुझे मेरे गुण-दुर्गुण के साथ स्वीकारे. मैंने कभी मित्र बनाने में ज्यादा उतावलापन नहीं दिखलाया .मेरी सोच हमेशा से रही है कि यदि वह मेरी मित्रता के लिए उपयुक्त होगा तो मुझसे बच नहीं सकता.आख़िर उसकी भी तो नज़र पारखी होनी चाहिए !
मित्रता में समान विचार होने को मैं ज़रूरी नहीं समझता,हाँ मैं ज़रूर चाहूँगा कि जिससे मेरी मित्रता हो उसका आचरण अच्छा हो.व्यक्तिगत जीवन में हो या किसी और सन्दर्भ में ,यदि किसी की नीयत या ईमान में खोट है तो वह अच्छा मित्र भी नहीं साबित होगा. इस कसौटी में हमने मित्र खोए ज्यादा हैं ,पाए कम.मुझे ऐसे लोगों के खोने का रंचमात्र भी दुःख नहीं रहा,क्योंकि मैं सोचता हूँ कि वे कभी 'मित्र' थे ही नहीं .
मैं समझता हूँ कि दोस्ती बचाने के लिए नहीं बल्कि दोस्ती के लिए दोस्त बनाए जाते हैं.इस में यदि सही और हितकारी बात भी उसे सहन नहीं है तो हम काहे के दोस्त.दोस्त की हर बात मानना ज़रूरी नहीं है,ज़रूरी यह है कि हम और वह अपना-अपना मत रख सकें .हमने इस छोटे से जीवन में अनुभव किया है कि आज लोग मित्रता के अर्थ को नहीं पहचानते हैं,"शॉर्ट-कट ' तरीकों से मित्र बनाते हैं और उन्हें सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाते हैं .ऐसे लोग तब बिलकुल अकेले हो जाते हैं जब उनका कोई मित्र निःस्वार्थ भाव से उनके दुःख के समय में आस-पास नहीं होता !
तुलसीदास बाबा की कुछ पंक्तियाँ गौर फरमाएँ :
"निज दुःख गिरि सम रज करि जाना.मित्रक दुःख रज मेरु समाना
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा.गुन प्रकटे अवगुननि दुरावा.
जाकर चित अहि-गति सम भाई.अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई"