अभी जल्दी हम गाँव गए थे , जहाँ मैंने अपने जीवन के शुरुआती पचीस वर्ष गुजारे हैं. अब करीब पंद्रह वर्षों से शहर की भी ज़िन्दगी 'झेल' चुका हूँ,तो मुझे तब और अब में फ़र्क साफ़ नज़र आता है.
गाँव की ज़िन्दगी खुले आकाश की तरह होती है, जहाँ हम अपने सभी काम तरीक़े व सलीके से करते हैं. यार-दोस्तों से गप-शप होती है,पूजा-पाठ होता है और खेत-खलिहान भी देखे जाते हैं. वहाँ के हर काम में ख़ुद को तल्लीन होना पड़ता है और हिस्सेदारी होती है. खाना,घूमना,मनोरंजन ,शादी-ब्याह सब में हमें 'मैनुअली' लगना पड़ता है .इस तरह वास्तव में हम वहाँ ज़िन्दगी जीते हैं.
शहर की ओर अगर रुख़ करके देखें तो पाएंगे कि यहाँ सब कुछ मशीनों के ऊपर निर्भर है. घर में रहने,खाने,बाहर जाने,मनोरंजन व दोस्त बनाने में हम मशीनी हो गए हैं. जिस तरह किसी तकनीकी-वस्तु को चलाने के लिए उसमें 'मैनुअल' या 'ऑटो' का विकल्प होता है बिलकुल वैसे ही हमारे पास अपनी ज़िन्दगी जीने के दो विकल्प (गाँव या शहर) हैं,पर अफ़सोस,अब गांवों का भी शहरीकरण हो रहा है.
हम शहर में रहते हुए सोचते हैं कि यहाँ रहना थोड़े दिनों की बात है,पर वह थोड़े दिन धीरे-धीरे कब पूरी ज़िन्दगी गुजार देते हैं,यह पता ही नहीं चलता.
सच बताएं, शहर में आकर हम मात्र 'रोबोट' की तरह बनकर रह गए हैं, जिसके पास सिवा 'मालिक' की आज्ञानुसार चलना-फिरना रह गया है. हमारे हाथ में हमारी ही ज़िन्दगी नहीं रह गयी है, और हम अपने परिवार,शहर और देश का 'ठेका' लिए घूमते हैं.
आप भी बताएं कि आप कैसी ज़िन्दगी जी रहे हैं,मैनुअल या ऑटो ?
30 अगस्त 2010
18 अगस्त 2010
शिक्षण-व्यवस्था में ख़ामियाँ !
हर वर्ष सरकारी आंकड़े यह बता रहे हैं कि देश में शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ रहा है,पर क्या ज़मीनी हक़ीक़त यही है ?अनौपचारिक शिक्षा को तो छोड़िये,हालाँकि उसके नाम पैसों का बंदर-बाँट सबसे ज़्यादा हो रहा है, औपचारिक शिक्षा की भी नींव हिलाने का पूरा इंतज़ाम किया जा चुका है !
सरकारी विद्यालयों में आधार-भूत सुविधाओं की अभी-भी कमी है,शिक्षक पर्याप्त नहीं है,फिर भी इन कमियों को थोड़ा दर-किनार किया जा सकता है,पर जो सबसे चिंताजनक पहलू उभर कर आ रहा है कि आज ऐसी व्यवस्था लाद दी गयी है कि विद्यालयों का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं रह गया है. छात्रों में अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं रह गयी है, ऐसे में ७०-८० की औसत छात्र-संख्या वाली कक्षा को कोई जादूगर ही नियंत्रित कर सकता है. उनमें गुरु के प्रति आदर भाव तो कब का ख़त्म हो चुका है,पर अब सामान्य शिष्टाचार भी दुर्लभ हो रहा है.
कई ऐसे मौके आते हैं जब छात्र शिक्षक के सामने अशिष्ट आचरण करता है और शिक्षक नए नियमों का पालन करने को मज़बूर होता है,जहाँ उसके लिए यह ताक़ीद की गयी है कि वह उन्हें डांट तक नहीं सकता !
आज विद्यालयों में सरकारी अनुदान की भरमार की जा रही है. खाना तो दिया ही जा रहा है वर्दी और पुस्तकों के अलावा अन्य कई तरह से नकद राशि दी जा रही है,बस नहीं दी जा रही है शिक्षा, जिसके लिए वो यहाँ आते हैं. शिक्षक को यूनिट-टेस्ट व दूसरे और टेस्ट बनाने और जाँचने में उलझा दिया गया है और अन्य कार्यों की तो बात ही न करें. कुल मिलाकर 'मास्टरजी' को बाबू बनाया जा रहा है.
छात्रों में तो कई दोष हैं ,पर वास्तव में वे असली दोषी नहीं हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि जो वो कर रहे हैं वह ग़लत है और यही बात शिक्षक उन्हें बता नहीं पा रहा है . नैतिक-शिक्षा का तो अता-पता है ही नहीं , सामान्य शिक्षा की ही हालत ख़राब है . इस सबके लिए सरकार,मीडिया,अभिभावक ,प्रशासक और शिक्षक सभी सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं !
सरकारी विद्यालयों में आधार-भूत सुविधाओं की अभी-भी कमी है,शिक्षक पर्याप्त नहीं है,फिर भी इन कमियों को थोड़ा दर-किनार किया जा सकता है,पर जो सबसे चिंताजनक पहलू उभर कर आ रहा है कि आज ऐसी व्यवस्था लाद दी गयी है कि विद्यालयों का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं रह गया है. छात्रों में अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं रह गयी है, ऐसे में ७०-८० की औसत छात्र-संख्या वाली कक्षा को कोई जादूगर ही नियंत्रित कर सकता है. उनमें गुरु के प्रति आदर भाव तो कब का ख़त्म हो चुका है,पर अब सामान्य शिष्टाचार भी दुर्लभ हो रहा है.
कई ऐसे मौके आते हैं जब छात्र शिक्षक के सामने अशिष्ट आचरण करता है और शिक्षक नए नियमों का पालन करने को मज़बूर होता है,जहाँ उसके लिए यह ताक़ीद की गयी है कि वह उन्हें डांट तक नहीं सकता !
आज विद्यालयों में सरकारी अनुदान की भरमार की जा रही है. खाना तो दिया ही जा रहा है वर्दी और पुस्तकों के अलावा अन्य कई तरह से नकद राशि दी जा रही है,बस नहीं दी जा रही है शिक्षा, जिसके लिए वो यहाँ आते हैं. शिक्षक को यूनिट-टेस्ट व दूसरे और टेस्ट बनाने और जाँचने में उलझा दिया गया है और अन्य कार्यों की तो बात ही न करें. कुल मिलाकर 'मास्टरजी' को बाबू बनाया जा रहा है.
छात्रों में तो कई दोष हैं ,पर वास्तव में वे असली दोषी नहीं हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि जो वो कर रहे हैं वह ग़लत है और यही बात शिक्षक उन्हें बता नहीं पा रहा है . नैतिक-शिक्षा का तो अता-पता है ही नहीं , सामान्य शिक्षा की ही हालत ख़राब है . इस सबके लिए सरकार,मीडिया,अभिभावक ,प्रशासक और शिक्षक सभी सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं !
5 अगस्त 2010
अपना-अपना खेल !
खेल हुए चालू नहीं,लगा निकलने तेल,
अपनी-अपनी कुप्पी में ,भरे ले रहें तेल !
ऐसा मौका हाथ लगा है,बड़े समय के बाद,
नेता,अफ़सर ,चोर सब , होंगे जब आबाद !
चूना,मिट्टी,ट्रेड-मिल ,सभी जगह है छाप ,
सारे ठेके इन्हें मिलेंगे, कहीं नहीं हम,आप !
पदक मिलें ना मिलें सही,हो जायेंगे खेल,
चाहे कितना ज़ोर लगा लो,असल खिलाड़ी फ़ेल!
'कॉमन वेल्थ' से हैं उम्मीदें,सबकी अपनी-अपनी,
जिसकी जितनी बाहें लम्बी, उसकी उतनी मनी !
अपनी-अपनी कुप्पी में ,भरे ले रहें तेल !
ऐसा मौका हाथ लगा है,बड़े समय के बाद,
नेता,अफ़सर ,चोर सब , होंगे जब आबाद !
चूना,मिट्टी,ट्रेड-मिल ,सभी जगह है छाप ,
सारे ठेके इन्हें मिलेंगे, कहीं नहीं हम,आप !
पदक मिलें ना मिलें सही,हो जायेंगे खेल,
चाहे कितना ज़ोर लगा लो,असल खिलाड़ी फ़ेल!
'कॉमन वेल्थ' से हैं उम्मीदें,सबकी अपनी-अपनी,
जिसकी जितनी बाहें लम्बी, उसकी उतनी मनी !
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