भारतीय जनता पार्टी इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रही है। संघ के तथाकथित निर्देशों के तहत 'दुनिया' को दिखाने के लिए कुछ चेहरे इधर से उधर किये गए हैं,पर इससे इसका कायाकल्प हो जायेगा, यह सोचना फ़िज़ूल है। पार्टी के सर्वोपरि नेता आडवाणी जी अपने क्रियाकलाप से लगातार इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहे हैं। कितना हास्यास्पद लगता है उनका यह कहना कि वे रथी हैं और रथ से नहीं उतरेंगे,ना ही उनका अभी संन्यास लेने का इरादा है! उनके इस कथन के निहितार्थ हम इस तरह समझ सकते हैं:
वे अपने को रथी बता रहे हैं और रथ पर सवार होकर ही सत्ता-प्राप्ति के लिए विरोधियों से लड़ने को तैयार हैं,जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए कि लोकतंत्र की लड़ाई रथ पर बैठे-बैठे नहीं जीती जाती बल्कि उसके लिए पैदल,नंगे पाँव चलकर,आम लोगों के बीच जाकर माटी और घाम सहना पड़ता है। आडवाणी जी अपने आराध्य श्री राम को भी यहाँ भूल जाते हैं ,जब उन्होंने बिना रथ के होकर रथ पर चढ़े हुए रावण के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ा था।अब यहाँ क्या यह बताने की ज़रुरत है कि वे किसकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं?
रही बात उनके संन्यास न लेने की ,तो यह किसी का भी व्यक्तिगत फैसला हो सकता है,पर कोई भी राजनेता स्वेच्छा से संन्यास नहीं लेना चाहता है, उसे तो परिस्थितियां और जनता स्वयं संन्यास में पहुँचा देती है। सत्ता का मोह होता ही इतना भ्रामक है कि व्यक्ति मजबूर हो जाता है और इसका खामियाज़ा दूसरों को भुगतना पड़ता है।
भाजपा में शीर्ष में कुछ भी नहीं बदला है सिवाय कुछ 'नेमप्लेटों 'के इधर-उधर होने के! जब तक कार्यकर्ताओं के स्तर से बदलाव की बयार नहीं आती तब तक उनमें जोश के संचार की कामना व्यर्थ है। जिस मुखिया को पद-त्याग का उदाहरण पेश करना चाहिए वह रथ पर चढ़ा हुआ है और उससे मिलने के लिए किसी रथी को ही इज़ाजत है ,आम आदमी को नहीं !
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