पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव कब के ख़त्म हो गए पर भारतीय जनता पार्टी का ख़ुमार अभी तक उतर रहा है। जो सिपाही कल तक पार्टी के लिए जी-जान से हुँकार भर रहे थे,वही आज उसका गिरेबाँ पकड़ कर अपना हिसाब माँग रहे हैं। ताजा संकट जिन्ना के बारे में किताब लिखने के बहाने जसवंत सिंह को एकतरफा तरीके से बाहर निकालने से पैदा हुआ है। सुधीन्द्र कुलकर्णी ,अरुण शौरी की तलवारबाज़ी तो हमें देखने को मिली ही है इसके पहले से वसुंधरा राजे और खंडूडी का असंतोष पहले से ही खदबदा रहा था। इन सबमें पार्टी को जसवंत सिंह कमज़ोर कड़ी दिखाई दिए और उन्हें 'किक' मारने में ज़्यादा देर नहीं लगाई गई ।
अब मूल मुद्दे पर आते हैं। दर-असल पार्टी के लिए जिन्ना कोई बहुत बड़ा बहस का विषय हैं भी नहीं। पार्टी के प्रेरणा-स्रोत रहे आडवाणी जी के उच्च विचारों से पार्टी पहले ही लाभान्वित हो चुकी है। उनके नेत्रत्व में 'मज़बूत' प्रधानमंत्री का नारा देकर पार्टी पहले तो सत्ता गवां बैठी और अब उन्हीं की 'मजबूती' से वह विपक्ष का रोल भी अदा कर रही है। कितनी हास्यास्पद बात है कि भाजपा में एक हारे हुए सेनापति को कुर्सी से चिपका दिया गया है और दूसरे लोगों को कहा जा रहा है कि वे हार की ज़िम्मेदारी लेकर अपनी-अपनी कुर्सी छोड़ें ।
यह ऐसी भाजपा है जिसका नेता हारने के बाद भी कुर्सी-मोह में जकड़ा हुआ है और वह ऐसी कांग्रेस से टक्कर लेने को सोचती है जिसकी नेता प्रधानमंत्री -पद को पाकर भी ठुकरा देती हैं। ऐसे में किस तरह कोई अपने दल के लिए आदर्श प्रस्तुत करेगा? जब ऊँचे पद पर बैठे लोगों में ऐसी लालसा रहेगी तो नीचे वाले न तो ऐसे बनेंगे और न ही वे कोई अनुशासन मानेंगे।
जसवंत सिंह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। वे इतने दिनों से आँख ,कान बंद किए बैठे रहे तब उन्हें धर्मनिरपेक्षता की चिंता नहीं हुई (खासकर गुजरात दंगों पर ) और अब अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो यह विशुद्ध व्यावसायिक हितों के लिए ताकि उनकी किताब ख़ूब बिके और इस बहाने उन्हें रोज़गार मिल जाए। और अपने रोज़गार के लिए वे क्यों न कुछ करें जब उनका नेता ही अपने लिए 'रोज़गार' (नेता-विपक्ष)ढूँढ लेता है!
अरुण शौरी ने न जाने क्या-क्या कहा पर पार्टी उनको निकालने की ज़ल्दी में नहीं है। कही ऐसा न हो कि किसी दिन पार्टी में से निकालने वाला ही कोई न बचे क्योंकि जसवंत और शौरी की तरह रोज़गार का संकट कइयों को है!
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