21 अप्रैल 2010

पाती मेरे नाम की !



अचानक बहुत दिनों बाद एक चिट्ठी के रूप में पोस्ट-कार्ड को पाकर जो आनंद मिला,वह कम-से-कम 'इंटरनेटी 'दुनिया की समझ के बाहर है। हमारे एक साथी हैं,जिनसे अब मुलाक़ात भी यदा-कदा होती है,बातचीत मोबाईलवा पे होती रहती है। यह चिट्ठी जो आई , उनके पिताजी की तरफ से आई और चिट्ठी क्या वह तो मेरे लिए किसी पूज्य ग्रन्थ से कम नहीं लगी।



यह पाती श्री रूप सिंह जी ने मेरी उनसे ७-८ साल पहले की मुलाक़ात को याद करते हुए लिखी है। पत्र में विशेषणों की भरमार व ढेर सारा आत्मीय प्यार उड़ेल दिया है उनने। पढ़ के एकबारगी तो चकरा गया मैं । क्या मैं ऐसा ही हूँ जैसा उनने मेरे लिए कहा है। उनका महसूसना और संवेदनात्मक लेखन अन्दर तक छू गया। आज जब हम दो शब्द लिखने के लिए बड़ी भूमिका बनाते हैं और जहाँ तक हो सके लिखना टालते रहते हैं ,ऐसे में एक पोस्ट-कार्ड में क़रीब २५० शब्द पिरो देना बताता है कि तकनीकी युग में भी पत्र का कोई विकल्प नहीं है।

संचार-क्रांति से पहले की बातें ज़ेहन में याद आती हैं जब हम पत्र आने पर उसे कई बार पढ़ते थे,चूमते थे,सीने से लगाते थे,क्या आज वही सब हम एसएमएस या ई-मेल के साथ कर सकते हैं या महसूस सकते है?

रूप सिंह जी साहित्यकार भी है। उनकी सौ रचनाओं का एक संकलन 'राष्ट्रीय स्वर' के नाम से छप चुका है और वे महरौली ,ललितपुर के ठेठ देशी व्यक्तित्व हैं। उनका भेजा हुआ पत्र अब मेरी थाती है और इसके लिए मैं बहुत गौरवान्वित हूँ।

19 अप्रैल 2010

तुम हो न सके मेरे !


जिनकी हमें तलाश थी,वो इस तरह मिले,
उनसे हुआ जो सामना ,हसरत से ना मिले।

ख़्वाब-ओ-ख़याल क्या थे ,मिलने से उनके पहले,
फूलों को थे तलाशते ,काँटे मुझे मिले।


कल तक रहे जो हमदम, मेरे जनम-जनम के,
जनम-जनम की बात क्या,दो पल भी ना मिले।

इस ज़िन्दगी में क्या बचा,तनहाइयों के सिवा,
फिज़ा है उनके बाग़ में, मुझे उजड़ा चमन मिले।


मुझको सियाह रात देने वाले ''चंचल",
हर मोड़ पर तुझे,आफ़ताब ही मिले !

फतेहपुर,१५/०१/१९९०