बहुत पहले
जब आती थी होली
पूरे साल भर बाद,
हम लोग महीनों पहले से तैयारी करते थे,
पिचकारियाँ दुरुस्त की जाती थीं
कुछ बांस की कुछ ऐसी ही ।
अब हर रोज़ जलती हैं होलियाँ ,
पिचकारी की जगह बन्दूक है
और रंग की जगह गोलियां !
अब जब बुढापा आ गया है,
हम जैसे लोग सठिया गए हैं ।
होली अख़बारों में
सरकारी कैलेंडर में,
और नेताओं के इश्तहार में ,
नज़र आती है ।
होली अब खुशी का पैगाम लेकर नहीं,
डर और आशंका के बादल लाती है !
आख़िर ये होली क्यूँ आती है?
जब आती थी होली
पूरे साल भर बाद,
हम लोग महीनों पहले से तैयारी करते थे,
पिचकारियाँ दुरुस्त की जाती थीं
कुछ बांस की कुछ ऐसी ही ।
अब हर रोज़ जलती हैं होलियाँ ,
पिचकारी की जगह बन्दूक है
और रंग की जगह गोलियां !
अब जब बुढापा आ गया है,
हम जैसे लोग सठिया गए हैं ।
होली अख़बारों में
सरकारी कैलेंडर में,
और नेताओं के इश्तहार में ,
नज़र आती है ।
होली अब खुशी का पैगाम लेकर नहीं,
डर और आशंका के बादल लाती है !
आख़िर ये होली क्यूँ आती है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें