1 दिसंबर 2008

खून की होली !

बहुत पहले

जब आती थी होली 

पूरे साल भर बाद,

हम लोग महीनों पहले से तैयारी करते थे,

पिचकारियाँ दुरुस्त की जाती थीं
कुछ बांस की कुछ ऐसी ही ।


अब हर रोज़ जलती हैं होलियाँ ,

पिचकारी की जगह बन्दूक है

और रंग की जगह गोलियां !

अब जब बुढापा आ गया है,

हम जैसे लोग सठिया गए हैं ।

होली अख़बारों में 


सरकारी कैलेंडर में,

और नेताओं के इश्तहार में ,

नज़र आती है ।

होली अब खुशी का पैगाम लेकर नहीं,

डर और आशंका के बादल लाती है !

आख़िर ये होली क्यूँ आती है?



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