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30 नवंबर 2011

जब हम गमज़दा हो जाएं !

ज़िन्दगी में कभी-कभी ऐसे मौके भी आते हैं कि हमारा मन  चाहकर भी प्रफुल्लित नहीं होता. जाने-अनजाने ऐसे माहौल में हम अपने को घिरा पाते हैं जिसका मुफ़ीद कारण हमें भी नहीं मालूम होता ! इसकी एक ही वज़ह हो सकती है कि कुछ घटनाएँ या बातें अप्रत्यक्ष ढंग से हमारे दिल पर आघात करती रहती हैं और हम उनको टालते हुए उन्हें नाकुछ सिद्ध करने में लगे रहते हैं.कहते हैं कि जब कोई ख़ुशी होती है तो वह चेहरे से अपने आप झलकती है और इसी तरह यदि कोई अंदरूनी टीस या कोई बात कुरेद रही होती है तो आप लाख बचने का यत्न करें,चेहरा सच बोल देता है.ऐसे में आप अपने दिल को किस तरह बरगलाएं,समझाएं यह आपके व्यक्तित्व और रूचि के कारण  अलग-अलग तरीके से हो सकता है.


जब इस तरह का ज्यादा उहापोह होता है तो अलमारी में सुंची हुई  पुरानी डायरियों को निकाल कर,झाड़-पोंछकर  ,पीले पड़ चुके  पन्नों को  पलटने लगता हूँ.कुछ ऐसा ढूँढने लग जाता हूँ कि मेरा सारा इलाज़ यहीं मिलेगा !  जो बातें अतीत में मुझे ठीक नहीं लग रही थी ,उन्हीं को आज के ग़म को ग़लत करने का सामान बनाने की कोशिश करता हूँ.अपनी शेरो-शायरी अचानक अच्छी लगने लगती है ,पुराने लफ्ज़ नए मायनों में बदल जाते हैं.जो कभी दर्द देते थे,वे दवा बन जाते हैं. कई चीज़ें आज के अर्थों में बेमानी लगती हैं,पर रूह को कुछ सुकून ज़रूर देती हैं !उन्हें कई-कई बार पढता हूँ,कुछ अच्छा लगता है तो कुछ बकवास-सा ! बहरहाल इस तरह मैं थोड़ी देर अपने से ही मिल लेता हूँ.यह काम पुराने अलबम खोलकर भी किया जा सकता है !


ऐसे में ख़ास दोस्त भी इस माहौल  में याद आते हैं.उनसे मिलकर या फ़ोन कर मन हल्का किया जा सकता है !  किसी लेखक का जीवन-चरित पढ़कर भी मन को दिलासा दी जा सकती है  पर जब यह उदासी  ज़्यादा गहरी हो तो संगीत के पास जाना स्वाभाविक-सा लगता है.संगीत में इस 'मूड' के लिए एक अच्छी-खासी रेंज है.दर्द-भरे नगमें हमें शायद इसीलिए पसंद हैं . सामान्य हालात में भी मैं इस तरह के गीत सुनता हूँ और जब अन्दर छटपटाहट  हो तब तो माहौल बिलकुल मुफ़ीद हो उठता है.पहले अकसर मैं रफ़ी,मुकेश ,गीता दत्त आदि को सुनता रहता था,पर अब ग़ज़लों पर ही आकर टिक गया हूँ.इसमें मेहंदी हसन और मुन्नी बेगम खासतौर से मेरे रंज-ओ-ग़म में शरीक होते हैं.मैंने आड़े वक़्त के लिए इन दोनों के कई गानों को अपने पास संजो रखा है.
इन्हें सुनते हुए हमें अपना ग़म हल्का लगता है और यह महसूसता है कि हमारे दर्द को आवाज़ मिल गई है !


इस माहौल के लिए मेरा एक पुराना शेर अर्ज़ है:

                                  हम किस-किसको सुनाएँ दास्ताँ अपनी,
                                      हर किसी के साथ ,ये अफ़साने हुए हैं !



बहरहाल मेरे साथ आप भी थोड़ा ग़मगीन हो जाएँ !

बहादुर शाह ज़फर की यह ग़ज़ल मेहंदी हसन साब की आवाज़ में


27 नवंबर 2011

ब्लॉगिंग के साइड-इफेक्ट !

इधर लिखते हुए इतना समय तो हो ही चुका है कि ब्लॉगिंग के बारे में अपने उच्च विचारों से  भाइयों  का ज्ञानवर्धन कर सकूँ ! सबसे ज्यादा बात जो मुझे महसूस हुई वह यह कि यहाँ पर लिखने से ज़्यादा टीपने को लेकर  बड़ी संवेदनशीलता है.इसके लिए इतनी मारामारी  है कि बक़ायदा कई मठ स्थापित हो चुके हैं. आप यदि नए-नए ब्लॉगर हैं तो आपको इन्हीं में से किसी एक में घुसना होगा.अब यह आपकी योग्यता और क़िस्मत पर निर्भर है कि वह मठ आपकी प्रतिभा को जल्द परख ले. आपका लिखते रहना से ज़्यादा ज़रूरी है ,टिपियाते रहना.आप बड़ी संख्या में टीपें पा रहें हैं तो ज़रा कुछ दिन 'आउट -स्टेशन' होकर देखिये या विश्राम करने की ज़ुर्रत करिए,सारा दंभ हवा हो जायेगा ! दो-चार रहमदिल दोस्त ही नज़र आयेंगे,आपकी पोस्ट टीपों के नाम पर पानी माँगेगी ! हाँ,पोस्ट लिखने के बाद यदि गणेश-परिक्रमा-स्टाइल में सौ पोस्टों पर भ्रमण कर आयेंगे तो निश्चित ही आपको साठ-सत्तर 'सुन्दर-भाव',चिंतनपरक आलेख' और 'प्रभावी-प्रस्तुति' के रूप में ज़वाबी-प्रसाद मिल जायेगा.आपको भी ख़ुशी होगी कि कोई नया  ब्लॉगर (सयाना नहीं) यही समझेगा कि वाकई इस बन्दे में दम है !


टीपें पाने के उद्यम भी अजब-गज़ब हैं.सबसे सीधे लोग तो पोस्ट लिखकर कई जगह एक-एक लाइन लिखकर आ जाते हैं,ज़्यादा हुआ तो पोस्ट-लेखक कुछ लाइनें (जो उसे खुद समझ नहीं आतीं) कोट करके 'क्या खूब ' या 'सुन्दर प्रस्तुति' चेंपकर पोस्ट-लेखक को कृतार्थ  कर देंगे !इस कोटि से थोड़ा सयाने वे होते हैं जो  सम्बंधित पोस्ट पर सुन्दरता की  डिफॉल्ट-टीप  लगाकर अपनी नई पोस्ट की करबद्ध सूचना देंगे !अब वह यही समझे बैठे  हैं  कि वह यदि खुले-आम  ऐसी अभ्यर्थना नहीं करेंगे  तो ये महोदय आयेंगे ही नहीं.तीसरी कोटि के लोग वे हैं ,जो सयाने होने के साथ कुछ काइयाँपन भी लिंक के रूप में बिखेर देते हैं.वे यह समझते हैं कि जहाँ टीप रहे हैं,वहाँ का पोस्ट-लेखक गूगल-सर्च के द्वारा भी उस तक नहीं पहुँच पायेगा !


इस तरह टीपें हासिल करने की ये सीधी-सादी युक्तियाँ रहीं.कई बार तो लोगों को मेल कर,फोन कर(हाल-चाल के बहाने ,इसमें हाल कम चाल ज्यादा? ) भी दोस्ती के हवाले भी टीपें हथियाई जाती हैं! पर कई टीपबाज इतने शातिर हैं कि इतना सब होने के बाद भी उनकी आमद उस बेचारे की पोस्ट पर नहीं होती.इधर जितनी कम टीपें पोस्ट में दिखती हैं उतनी ज़्यादा उसकी 'हार्ट-बीट' बढ़ती है !अगर कुछ टीपबाज़  इतने शातिर हैं तो टीप हथियाने वाले भी खूब शातिर और जागरूक हो गए हैं. ऐसे लोग दाढ़ी बनाने वाली पोस्टों से लेकर टंकी पर चढ़ने व ब्लॉग-जगत को 'अंतिम-प्रणाम ' कहने की नौटंकी में माहिर हो गए हैं !

कुछ ब्लॉगर ,जो अपने को लेखक कम सेलेब्रिटी अधिक समझ बैठे हैं,इतने गैरतमंद हो उठते हैं कि अपने से  कमतर किसी ब्लॉग पर जाने को वे अपना अपमान समझते हैं.कोई बार-बार भी उनके ब्लॉग पर जाकर गंभीर-टीप देता है तो भी वह उसको 'अगंभीर' ही समझते हैं,ज़्यादा हुआ तो एक-आध स्माइली ठोंक कर चले जायेंगे  ( शायद यह बताना कि इस 'कूड़े' पर ठीक से हँसा भी नहीं जाता) !वे इस बहाने जताते हैं कि वे केवल लिखने और पढ़वाने भर के लिए अवतरित हुए हैं,प्रेरणा देना या उपदेसना उनके लेखकीय-कर्म में शामिल नहीं है.भले ही वह कई 'कुपोस्टों' पर जाकर ,जल-जलाकर लौटे हों.कुछ ऐसे भी सयाने टीपबाज  हैं जो किसी पोस्ट को पढते हैं,घोखते हैं,मजे लेते हैं पर मुँह से बकुर नहीं फूटेगा  और कन्नी काटकर चुप से ,बिना टीपे ऐसे निकल जाते हैं कि कहीं उन्हें करंट न लग जाए या इससे उनकी टीआरपी न गिर जाए !


कुछ लोग तो इतने फ़ुरसत में होते हैं कि खुराफ़ात के लिए अपनी कलम और स्याही बचा के रखते हैं .जो उनके अपने मठ के चेले होते हैं उन्हें भी वे नहीं बख्शते  ! कभी किसी को अपना अलग मठ बनाते देखते हैं तो सन्निपात की अवस्था में हो जाते हैं,अपने सारे हथियार खूँटी में टाँग कर उस निरीह-ब्लॉगर  को अपने पैरों पर खड़ा होने की गज़ब-शक्ति देते हैं ! कुछ ब्लॉगर तो मौके की तलाश में रहते हैं,किसी ने भी कुछ उन्नीस-बीस लिखा तो बिना लाग-लपेट के, उसके आगे-पीछे का ,अपनी यथाबुद्धि द्वारा ,संदर्भ देकर ,विलोप हो जाते हैं.ऐसे और भी कई तरह के ब्लॉगर सक्रिय हैं जो तथाकथित रूप से निष्क्रिय है पर उनके अपने मठ की जब पोस्ट आती है तो अपनी कलम घसीट ही देते हैं.


इसके उलट कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके यहाँ यदि गलती से भी आप कभी चले गए तो ज़बरिया आपको अपना लेंगे,न-न कहते-कहते अपने मठ की दीक्षा भी दे देंगे और बिला नांगा आपको पढ़ते रहेंगे,टीपते रहेंगे और आप इनसे कुछ सीखते भी रहेंगे.इनके पास पता नहीं कौन-सा गरम-मसाला  होता है कि एक ठंडी-सी पोस्ट में भी कमाल का उबाल ला देते हैं.टीपने वाले  बार-बार इनके और पोस्ट के संपर्क में रहते हैं.कुछ लोग तो इतने भोले हैं कि किसी घटना -दुर्घटना से इनका लेना-देना नहीं होता.ये शांतिप्रिय ढंग से यहाँ,वहाँ टीप देते हैं,टीप पाते है,बस...इत्ते से संतुष्ट हो जाते हैं !


ब्लॉगिंग-जगत में कई तरह की प्रवृत्तियां सक्रिय हैं.अब यह आप पर निर्भर है कि इन प्रवृत्तियों में आप अपने को किसके नज़दीक पाते हैं.टीपों को लेकर इतना घमासान और ऐसी दुरभिसंधियां चलती हैं कि निरर्थक  पोस्टें जहाँ शतक बना लेती हैं,(भले ही वह डिफॉल्ट-टीपें हों ) वहीँ कई अच्छे लेखक ,बिना टीप किये ,अपनी पोस्ट में एक अदद टीप को तरसते हैं.हम पोस्ट को लेकर सेंटीमेंटल हों या टीप को ,यह आपको,हमको,सबको सोचना है.सोचो और जल्दी टीपो,नहीं तो हम सेंटिया जायेंगे !



जेहे-नसीब श्रीमान अनूप शुक्ल जी (फुरसतिया जी) पधार चुके हैं.इस विषय पर उनकी लेखनी का कमाल देखिये,हमने तो झलकी दी  है,उन्होंने तो पूरा महाकाव्य रच डाला है ! आभार सहित 

25 नवंबर 2011

थप्पड़ रोज़ खाए हम !

उनके पास है मरने का हुनर-ओ-इल्म ,
ठीक से जीना भी नहीं, सीख पाए हम !१!


उस्ताद हैं वे, सबको भरमाने की कला  में,
सफ़र में न किसी एक को,रोक पाए हम !२!


कई साल से मसल्सल ,वे पीटते  रहे,
गाँधी के नाम थप्पड़ ,रोज़ खाए हम !३!


महफ़िल में आज छाये ,मेरे ही करम से,
गीतों में सुर चढाते ,जो छेड़ आए हम !४!


चलते ही जा रहे,बड़ी तेज़ चाल से,
कहना न फिर कोई,न संभाल पाए हम !५!


शतरंज की बिसात पर,तुम जीत तो गए,
पर किसी  मोहरे से नहीं ,मात खाए हम !६!






20 नवंबर 2011

ब्लॉगिंग जब नशा बन गया !

पहले बता चुका हूँ  कि ब्लॉगिंग का विधिवत श्रीगणेश प्रवीण त्रिवेदी जी के मार्ग-निर्देशन में हुआ.इसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता यह सफ़र शुरू हुआ.इस दरम्यान मैंने कई ब्लॉग्स झाँके,टटोले और कहीं टिके भी ! मेरे ब्लॉग पर प्रवीण पाण्डेय जी  का आना उल्लेखनीय रहा.मैं इस वज़ह से उनके ब्लॉग पर पहुँचा और बिलकुल अलग अंदाज़ ,स्टाइल का  अनुभव महसूसा ! प्रवीण जी का ,हर टीप का उत्तर देना ,उन्हीं  से सीखा,बाद में उन्होंने यह कर्म बंद कर दिया तो अपुन ने भी. अब हर टीप के बजाय ज़रूरी टीप का ही उत्तर देता हूँ !उन्होंने एक नवोदित-ब्लॉगर को जिस तरह नियमित रूप से (बिला-नांगा किये )  सहयोग किया ,इसका बहुत आभारी हूँ !


इस बीच ई पंडित से भी यदा-कदा तकनीक के बारे में बातें होती रहीं.निशांत मिश्र से भी परिचय हुआ .ज़बरदस्त ब्लॉगर अजय कुमार झा  से  भी संपर्क हुआ और मुलाक़ात हुई ! डॉ. अमर कुमार जैसे वरिष्ठ भी मेरे ब्लॉग पर आकर आशीर्वाद दे गए,जिससे बड़ी प्रेरणा मिली .इसी मिलने-मिलाने के क्रम में भाई अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी से विशेष जुड़ाव हुआ और कई मुलाकातें भी !भाई अमरेन्द्र के संपर्क से श्रीयुत अनूप शुक्ल जी  (फुरसतिया) से संपर्क सधा जो आगे जाकर एक क्रान्तिकारी घटना सिद्ध हुई ! मुझे अविनाश वाचस्पति जी  से भी विशेष स्नेह मिला,इंदु पुरी जी  जैसी लौह-महिला (असली वाली ) ने भी बड़ी शाबाशी दी.इन सबका भी विशेष आभार !



जैसा मैंने बताया कि फुरसतियाजी के माध्यम से जो संपर्क और जुड़ाव मुझे हुआ वाक़ई में उसने मेरी ब्लॉगिंग की सोच,शैली और रंग सब पर अहम् असर डाला.पहले मैंने ब्लॉगिंग को शौक़िया शुरू किया था  बिलकुल श्वेत-श्याम की  पुराने ज़माने की टीवी-स्क्रीन जैसा,पर उस एक संगत ने ब्लॉगिंग में कई तरह के रंग भरे और इसकी सेहत भी दुरुस्त करी ! औपचारिक लेखन से शुरुआत करने वाले एक नए कुदाड को ब्लॉगिंग के अखाड़े का एक खाया-पिया पट्ठा बनाने में इस गुरू ने अहम् रोल अदा किया.ये हमारे आदरणीय और हर कदम पर प्रोत्साहित करने वाले और कोई नहीं ब्लॉग-जगत के 'मर्द-ब्लॉगर' डॉ. अरविन्द मिश्र जी हैं.उनसे प्राप्त हुए अनुभव और बदलाव को बताने से पहले मैं यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि  ब्लॉगिंग कोई अखाड़े का मैदान नहीं है और हम यहाँ कुश्ती लड़ने नहीं आये हैं,बल्कि हमारा प्रशिक्षण कुछ ऐसा हुआ कि  हम बिना नफ़ा-घटा  सोचे ,अपने भावों को निर्भीकता से प्रकट कर सकें !


जब मिश्रजी से हमारा संपर्क हुआ तो वह भी अप्रिय प्रसंग से ,पर बाद में तो हम ऐसे घुल-मिल गये  कि  हमने आपसी बोलचाल में औपचारिकता को भी तिलांजलि दे दी .मेरी बोलचाल में 'सुनो,देखो,चलो,करो...'आदि शब्द बैसवारा के अपने सहज-स्वभाव से उत्पन्न हैं,पर मिश्राजी को यह कतई नागवार गुजरा और इतना कि इस बहाने उन्होंने मेरा ''प्रमोशन ' भी कर दिया.मिश्राजी ने मुझे लिखने  का ऐसा मन्त्र दिया कि ब्लॉगिंग मेरा नशा बन गया.कई पोस्टें उनकी प्रेरणास्रोत रहीं.उनके संपर्क में आने पर दोस्त अधिक और दुश्मन कम (बस दो,कृपया नाम न पूछियेगा) मिले.सतीश सक्सेना जी ,अनुराग शर्माजी  , डॉ.दराल  , देवेन्द्र पाण्डेय जी (बेचैन आत्मा ),पाबलाजी और अपने अली साहब  जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर उन्हीं के संसर्ग में मिले !


जो सबसे ज्यादा बात मुझे प्रभावित करती है वह यह की मिश्राजी का ब्लॉग केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है.यहाँ लेख के बाद बक़ायदा एक लम्बा संवाद चलता है जो कई बार बड़ा रुचिकर लगता है.दूसरी  जगह इस वज़ह से लोग शायद ही बार-बार जाते हों कि  अब 'इस' कमेन्ट का क्या उत्तर आया ! क्वचिदन्यतोsपि महज़ एक ब्लॉग नहीं बल्कि भरा-पूरा शिक्षण-संस्थान  है,जहाँ सीखने वाले को अपनी भावनानुसार  हर तरह की सीख दी जाती है.उनके पास ऐसा 'मसाला' है जिसे वे अपनी पोस्ट में तड़का देकर लंबे संवाद की नींव रख देते हैं !उनके लेखन में  तंज,चिकोटी और चुटकी तीनों का भरपूर सम्मिश्रण है !


मैंने जो काम शौकिया  शुरू किया था उसे दीवानगी की हद तक अरविन्दजी ने परवान चढ़ाया,जिसके लिए हमें 'घर' से शिकायत भी मिलती रहती है,पर अब यह सब मेरी रूटीन में आ चुका है.यह ऐसा अनोखा संपर्क है कि  जिसमें किसी से मिले बिना ही आप उसके इस हद तक दीवाने हो जाएं ! अमूमन हमारे शौक भी एक जैसे हैं.मेहंदी  हसन और मुन्नी बेगम के हम जहाँ कद्रदान हैं,वहीँ मिश्राजी इनके बड़े वाले 'फैन' ! हाँ ,अभी एक चीज़ से हम महरूम हैं.अभी मिश्राजी ने मुझे दोस्ती के  खिताब से नहीं नवाज़ा है,इस पर वो कहते हैं कि इसका लाइसेंस केवल सतीश सक्सेना जी और अली साब के ही पास है. मैं फिर सोचता हूँ कि जिस तरह वे मुझसे घुलमिल कर बातें करते हैं,मेरी नालायकियों  को नज़र-अंदाज़ करते हैं,वह दोस्ती के सिवा क्या हो सकता है ?बिलकुल 'गुन प्रकटे  अवगुननि दुरावा' की तर्ज़ पर !


मुझे कई बार लगता है कि क्या इस आभासी-दुनिया में मात्र लिखने-लिखाने से भी कोई इतना अपना बन जाता है जो किसी की लेखन-शैली में मूलभूत अंतर ला देता है.अब मैं कहीं ज़्यादा आत्मविश्वास से कम्प्यूटर के की-बोर्ड से छेड़छाड़ करता हूँ,सहज महसूस करता हूँ,और जो बात सबसे मार्के की है कि खूब निचो-निचो के रस पीता हूँ ,मौका मिलते ही लेखों को पढता और टिपियाता हूँ.

डॉ. अरविन्द मिश्र 
ब्लॉग-जगत ऐसे ही अक्खड और फक्कड ढंग से अलख जगाने वाले लोगों की वज़ह से जिंदा और रस-युक्त है,नहीं तो इसे गंदला और मटमैला करने वालों की भी गिनती कम नहीं है. अरविन्द मिश्र जी से ,हो सकता है कई लोग कुछ बातों में असहमत हों,पर उनका ब्लॉग-जगत में होना हम जैसे प्रशंसकों से ज़्यादा उनके लिए अपरिहार्य है ! वे हैं तो वस्तुतः विज्ञानी लेकिन मानव-मनोविज्ञान पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ है ! विज्ञान  का  उनका अलग  से विज्ञान-ब्लॉग  है !


मेरी ब्लॉगिंग को जहाँ प्रवीण त्रिवेदी जी ने ककहरा सिखाकर शुरू किया,उसे आदरणीय मिश्रजी ने परवान चढ़ाया,उसमें रंग मिलाया !अपने इस गुरू को सादर नमन और शुभचिंतक दोस्त को प्रेमालिंगन !




* अरविन्द मिश्रजी का चित्र उनकी घोर-आपत्ति के बाद बदला गया,क्योंकि उनको आशंका थी कि  कुछ लोग उसे देखकर बिदक सकते हैं.

*जब मिश्र जी के चित्रों पर इतना कौतूहल हो रहा है ,सो हम यहाँ पर लिंक दे रहे हैं,जिससे दर्शनार्थी कृतार्थ हो लें !

17 नवंबर 2011

प्राइमरी का मास्टर :मेरे नज़रिए से !

प्राइमरी का मास्टर का प्रतीक-चिह्न 
ब्लॉग-जगत के चर्चित ब्लॉग्स का  जब भी ज़िक्र होगा,तो प्राइमरी का मास्टर  का एक अहम स्थान ज़रूर रहेगा. पिछली पोस्ट  में हमने अपनी ब्लॉगिंग को गतिमान बनाने व मुख्यधारा में आने के प्रयासों व उपायों के लिए  प्रवीण त्रिवेदी जी  के योगदान की चर्चा की थी .इसके लिए मैं पिछले कुछ समय से सोच रहा था और उस पोस्ट के बहाने उनका मूल्यांकन कतई नहीं करना चाहता था.मैं प्रवीण जी की  तकनीकी सलाहों का बहुत आभारी रहा हूँ और वह पोस्ट महज़ आभार-प्रकटन हेतु थी .फिर भी,डॉ.अरविन्द मिश्र इंदु पुरी जी  और सबसे ज़्यादा अपने  अली साहब  ने मुझे इतना लठियाया  कि प्रवीण जी के बारे में ,उनके ब्लॉग (प्राइमरी का मास्टर ) के बारे में  कुछ और कहूँ  !इस पर  अली साब की टीप जेरे-गौर है,जिसने मुझे  इस पोस्ट  के  लिए प्रेरित किया :



ali ने कहा…
@ संतोष जी ,
अब जब लगभग सारी टिप्पणियां आ चुकी हैं तो कहने में कोई हर्ज नहीं है कि प्रवीण जी पे पोस्ट लिखते वक़्त आपने किंचित हडबडी से काम लिया है ! हुआ ये कि जो उनके गुण दिखने चाहिए वे ही निगेटिव शेड्स की प्रतीति कराने लगे ! अगर कोई बंदा उन्हें पहले से ना जानता हो तो उनके बारे में क्या सोचेगा ? यही कि लंद फंद और ब्लॉग जगत की खुराफातों का आशना या निष्णात व्यक्ति जबकि भाव ये आना चाहिये थे कि उन्होंने आपको ब्लॉग जगत के निगेटिव अंडर करेंट से सतर्क किया ! आपको तकनीकी रूप से सक्षम किया !

बेहतर होता जो एक नवोदित ब्लागर बतौर ही सही उनके किसी बेहतरीन आलेख का लिंक ही दे देते जिसकी वज़ह से आप उनके ओर आकर्षित हुए,उनसे प्रभावित हुए ! खैर अब तो आलेख दो तीन दिन पुराना हो गया सो मेरे सुझावों का कोई मतलब ही नहीं रह गया पर उस दिन उसे पढकर मैं खुद भी हतप्रभ रह गया था ! वे मास्टर हैं , गुणी है इसलिए उन्होंने आलेख की हडबडाहट को महसूस कर लिया होगा वर्ना उनको इससे बेहतर आलेख का हक़ बनता है !

अब चलते चलते एक मजाक...मित्रों को लठियाने से बेहतर है कि उनका लठैत बनके चला जाये :) 




प्रवीण त्रिवेदी जी 


प्रवीण जी जितने बड़े तकनीकी-महारथी हैं उससे भी बड़े पोस्ट-लेखक ! तकनीक की उनकी पोस्टें तो कमाल की हैं हीं,शिक्षा और बच्चों के मनोविज्ञान को उनने बड़े ही उम्दा तरीके से प्रकट किया है !पहले उनके लेखों की विषय-वस्तु और भाषा शैली की बानगी देखते हैं :


इस पोस्ट से उद्दृत ;


.... कक्षा का ढांचा प्रजातांत्रिक हो जिसमें सभी सदस्य अपने आप को स्वतन्त्रजिम्मेदार और बराबर पायें। सभी को अपनत्व महसूस हो और लगे कि यह कक्षा उनकी अपनी है। अध्यापक को लगे कि यह बच्चे उनके अपने हैं और बच्चों को भी महसूस हो कि अध्यापक उनके अपने हैं और सभी को लगे कि विद्यालय उनका अपना हैजैसा कि उनका अपना घर। कक्षा में  आपसी सम्मानप्रेम तथा विश्वास के रिश्तों का एक सूक्ष्म जाल हो जिसमें कक्षा के सभी सदस्य खुशी से सीखें और सीखायें।


एक अन्य पोस्ट से ;

एक अध्यापक या बच्चे के संरक्षक के रूप में हमें कोशिश करनी चाहिए कि बच्चा अपने अनुभवों को हमारे सामने प्रकट कर सके ...यह तभी हो सकता जब हम उसे उसके अपने बारे में उसे बात करने का अवसर दें| अध्यापक के रूप में हमें यह पूर्वाग्रह हटाना पड़ेगा कि बच्चे की घरेलू और निजी जिन्दगी के अनुभवों का विद्यालयी ज्ञान से कोई अंतर्संबंध नहीं है| जाहिर है .... ऐसे प्रोत्साही माहौल  में ही बच्चे निःसंकोच अपनी बात कह पाने में समर्थ हो सकेंगे| ऐसे माहौल को बनाने केलिए बच्चों एवं शिक्षकों के बीच अपनत्व एवं सहयोगी मित्र का रिश्ता कायम होना अति आवश्यक है। 


उक्त दोनों लेख उम्दा शिक्षण-तकनीक और बाल-मनोविज्ञान  को सही ढंग से समझने के उदाहरण हैं.इन लेखों और ऐसे  अन्य लेखों ने प्रिंट मीडिया   में भी खूब जगह पाई !एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि 'जनसत्ता' ने अपने चर्चित स्तंभ "समान्तर' की शुरुआत ही प्रवीण जी के लेख से करी !

पिछले काफी समय से उनकी कोई पोस्ट नहीं आ रही है,इस पर मैंने जब भी उनसे कहा तो उनका ज़वाब था,"आप जमे रहो महराज,मैं अभी कुछ दिन आराम के मूड में हूँ." इस बीच ऐसा नहीं है  कि वे बिलकुल निष्क्रिय बैठे हैं. गूगल-रीडर और ट्विटर पर चुनिन्दा लेखों या ट्विट्स  को शेयर करना ,महत्वपूर्ण पोस्टों पर टीपना वे लगातार जारी रखे हैं !फेसबुक पर भी ज़नाब खूब सक्रिय रहते हैं ! वे यहाँ  फतेहपुर पेज बनाकर उसमें काफी समय दे रहे  हैं.

इस ब्लॉग-जगत में  कई वरिष्ठ ब्लॉगर हैं जो मुझसे ज्यादा उनको और उनके लेखन-कौशल को जानते हैं.इसलिए अगर उनकी तकनीक और लेखन-कला पर वे लोग कुछ कहें  तो अधिक उपयुक्त होगा ! मैं उन्हें एक अच्छे ब्लॉगर के साथ-साथ सुहृद के रूप में भी मानता हूँ.अब इस पोस्ट के माध्यम से उनसे भी निवेदन है कि प्राइमरी का मास्टर ब्लॉग को पुनः नियमित रूप से पोस्ट-लेखन करें,ताकि तकनीक और शिक्षा सम्बन्धी मार्गदर्शन से हम वंचित न रहें !

प्रवीण त्रिवेदी जी के लिए कुछ वरिष्ठ लोगों का आग्रह कि उनके बारे में और कहा जाय ,यह बताता है कि उनको लेकर लोगों में किस तरह की ललक और  कृतज्ञता का भाव है ! इस ओर मैंने महज एक शुरुआत की है,प्रयास भर किया है ! मुझे लगता है कि अली साब इत्ते  भर से मुतमईन होने वाले नहीं हैं !

एक 'उदीयमान  या  नवोदित ' ब्लॉगर  का  विनम्र -प्रयास  !

14 नवंबर 2011

प्रवीण त्रिवेदी : ब्लॉगिंग के मास्टर !

पिछली सर्दियों में फतेहपुर में !
ब्लॉगिंग से जुड़े तो थे औपचारिक रूप से चार साल पहले ,पर पिछले दो सालों से इससे ज्यादा मुठभेड़ हो रही है.पिछले एक साल से तो यह हमारे रूटीन में आ चुका है और अब पूरी  तरह से इसकी गिरफ्त में हूँ,नशेड़ी हो चुका हूँ. अब इतना समय तो गुजर ही चुका है कि  इसके बारे में कुछ जान सका हूँ  और इस दुनिया के कितने लंद-फंदों से वाकिफ़ हुआ हूँ !


बिलकुल शुरुआत में मुझे इस विधा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था,पर अचानक एक संपर्क ने मेरी ब्लॉगिंग की दुनिया को जैसे पंख दे दिए हों.'हिंदुस्तान' में रवीश कुमार के कॉलम से प्रवीण त्रिवेदी के ब्लॉग प्राइमरी का मास्टर  के बारे में पढ़ा तो सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो गया.यह आकर्षण निश्चित रूप से ब्लॉग के बजाय व्यक्तिगत प्रवीण त्रिवेदी जी के लिए था क्योंकि एक तो वे फतेहपुर के थे और दूसरे अध्यापक थे  ( वैसे त्रिवेदी सरनेम भी आकर्षण की थोड़ी वज़ह तो था ही ) !
बाइक पर प्रवीणजी के साथ गंगा-पुल पर 


मैंने उनके ब्लॉग पर जाना शुरू किया और फोन पर उनसे संपर्क साधा .बातचीत शुरू हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था कि मालूम चला कि वे हमारे एक नजदीकी रिश्ते में भी हैं. बस,फिर तो अपनी गाड़ी ऐसी  चली कि बिना टायर ,बिना हवा खूब कुलांचे मार रही है.समय समय पर वे हमें हर तरह की मदद को तत्पर रहते हैं.वे ऐसे मित्र हैं जो परदे के पीछे से अपना काम पूरी मुस्तैदी से करते हैं.उनने  कई बार हमें ब्लॉग-जगत की ऊँच-नीच भी समझाई और कई दबे छिपे रहस्य भी बताए !


मेरे वर्तमान ब्लॉग की रूपरेखा का पूरा श्रेय प्रवीण जी को है.उन्होंने हर वक्त मेरी मदद करी.यह मदद तकनीकी भी थी और नेटवर्किंग की भी.जहाँ -जहाँ  प्रवीण जी की  इन्टरनेट में प्रोफाइल थी,मैंने झट से वहाँ अपनी भी उपस्थिति दर्ज कर ली.मेरे लिए  नेटवर्किंग बिलकुल अलग कांसेप्ट था इसलिए जिज्ञासा वश या शौकिया जहाँ-तहाँ  हम भी बिखर गए !हालाँकि अब कई ऐसी जगहों की प्रोफाइल व्यर्थ हो गयी हैं !
फतेहपुर में ही ऐसे फोटुआते हुए !


पिछले लम्बे अरसे से प्रवीणजी पोस्ट लिखने के कार्यक्रम को लटकाए हुए हैं पर जल्द ही सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ हम सबके बीच में होंगे.कई पोस्टों पर वे नियमित रूप से अपनी प्रभावी टीपें दे रहे हैं.बीच-बीच में अपनी दुनाली से फायर भी कर देते हैं.


मैं जब भी अपने गृह जनपद रायबरेली जाता हूँ,कोशिश करके उनसे मिलता हूँ.बड़ी ही आत्मीयता से वे मुझे झेलते हैं और अपनी सारी ऊर्जा मुझमें स्थानांतरित कर देते हैं.उनके साथ लगातार संवाद होता रहता है,कोई समस्या आने पर मैं तुरत उनकी शरण में जाता हूँ और यह गुज़ारिश करता हूँ कि भई,इसे अब आप ही ठीक करें,यह मेरे बस की  बात नहीं है, और फिर वे अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच मेरी मुश्किल को आसान बना देते हैं !


यह मेरा सौभाग्य है कि मेरा ननिहाल फतेहपुर में है और मेरी जवानी का प्रथम चरण वहीँ बीता .सन १९८५ से १९९० तक मैं वहाँ लगातार रहा !फतेहपुर की पढाई से जहाँ आज मैं रोज़गार कर रहा हूँ और वहीँ वहाँ के सपूत प्रवीण जी की  मदद से तथाकथित 'ब्लॉगर' भी बन गया हूँ !


ब्लॉगिंग का ककहरा सिखाने वाले प्रवीणजी वास्तव में मेरे लिए प्राइमरी का मास्टर रहे जिन्होंने मेरे लिए ब्लॉगिंग की असल बुनियाद धरी.ऐसे गुरु पर मुझे फक्र है जो मेरा उतना ही दोस्त है !

10 नवंबर 2011

परब बदल गए,मेले छूट गए !

कई बरस बाद अबकी बार कतकी (कार्तिक पूर्णिमा) पर गाँव में हूँ.आने की कोई योजना नहीं थी पर अचानक दो दिन पहले घर से बड़ी अम्मा (दादी) का फोन आया,वो सख्त बीमार थीं और हमें याद कर रही थीं. अभी दिवाली पर जब घर आया था तो उनसे मुलाक़ात हुई थी,पर उनकी  मिलने  की ख्वाहिश ने बेचैन कर दिया और मैं बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के ,गाँव आ गया.वे अब कुछ ठीक हैं ! इस तरह बहुत दिन बाद कतकी पर अपने गाँव में हूँ !


आज सुबह से ही मैं इस त्यौहार के बारे में सोच रहा हूँ.कहीं भी कुछ रौनक या उल्लास नहीं दिखती है.सब कुछ सामान्य-सा लग रहा है.हाँ,घर में ज़रूर पूड़ी,कचौड़ी और रबड़ी  के व्यंजन तैयार किये गए हैं.गंगा-स्नान के लिए सोच रहा था कि जाऊँगा,पर न मन ने हुलास भरी और न दूसरों का संग मिला.अब अगर जाऊं तो बाइक या साईकल के अलावा कोई विकल्प नहीं है.साईकल चलाना अब छूट गया है,बाइक अपन कभी चलाये नहीं !सो,घर में ही दो बूँद गंगाजल छिड़ककर यहीं पर गंगा-स्नान का पुण्य ले लिया और पूड़ी-रबड़ी का आनंद भी !


 मुझे पचीस-तीस साल पहले की गाँव की कतकी आज बहुत याद आ रही है.लोग महीने भर पहले से बैलगाड़ी को तैयार करने में लग जाते थे. बैलों की पगही,गाड़ी की पैंजनी और जुआं( जिस पर बैल अपना कन्धा रखते हैं)सँभाले जाते .लढ़िया  (बैलगाड़ी) की इस तरह पूरी साज-सज्जा होती और हम सब कतकी की सुबह का बेसब्री से इंतज़ार करते. इस दिन सुबह चार बजे से घरों में खाने की तैयारियाँ होने लगती और सात बजे तक हम गंगा-स्नान को निकल जाते .वहाँ स्नान करके घाट के किनारे ही रबड़ी का लुत्फ़ लिया जाता और लौटते समय मेला घूमते.दो-तीन घंटे मेला देखने के बाद घर लौटते वक़्त रास्ते में गाड़ियों की आपस में दौड़ भी होती.सड़क किनारे डमरू,किडकिडिया ,घोड़े,हाथी ,जांत आदि खिलौने बिकते, जिन्हें हर बच्चे को लेना ज़रूरी-सा था.


इस तरह कतकी का आकर्षण स्नान,मेला और खिलौनों की वज़ह से बना रहता और बैलगाड़ी में घर-परिवार के साथ पूरे परब का मज़ा लेते ! आज के बच्चों को उसकी तनिक भी झलक नहीं मिलती है और इसलिए उन्हें ऐसे परब महज़ खान-पान का एक विशेष दिन बनकर रह गए हैं. शहरों में यह 'कल्चर' पहले से ही नहीं था, अब तो गांवों से भी यह गायब हो गया है.
इस सबके लिए क्या हमारी आधुनिकता ज़िम्मेदार है या नई पीढ़ी ? हम प्रकृति (नदी,पहाड़,जंगल) से दूर होकर कितने दिन अपने परब और मेलों से सामंजस्य बिठा पाएँगे,अपने को बचा पाएँगे ?



* पहली बार यह पोस्ट गाँव से जुगाड़-कंप्यूटर द्वारा लिखी गई !


5 नवंबर 2011

पन्ना मेरी किताब का !



सबसे  दूर हूँ,ग़ुमसुम सा हो गया हूँ ,
*गायब है एक पन्ना ,मेरी किताब का !१!

सोचता तो होगा,वह भी मेरी  तरह,
दूर जाके पन्ना,मेरी  किताब का !२!

मैं रहा अधूरा,वो भी रहा अकेला,
नुच गया है पन्ना, मेरी किताब का !३!

ज़िन्दगी के इस ,छोटे अहम सफ़र में ,
ज़िस्म-सा था पन्ना,मेरी किताब का !४!

ये हवाएँ,आंधियाँ,दुश्मन मेरी बनीं,
उड़ा गईं हैं पन्ना ,मेरी किताब का !५!


क़यामत के रोज़ मैं,खुदा से पूँछ लूँगा,
क्यों जुदा हुआ पन्ना ,मेरी किताब का ?६!





* पंक्ति डॉ अरविन्द मिश्र  द्वारा  सुझाई गयी,इसलिए उन्हीं को समर्पित !

प्रभाष जोशी : एक सच्चा पत्रकार !


आज से प्रभाष जी को गए दो साल हो गए पर उनकी कमी अब भी लगातार महसूस हो रही है.वे समकालीन पत्रकारों में मूल्यवान पत्रकारिता के लिए संघर्षरत रहने वालों के अगुआ थे.अपने जीवन में उन्होंने सत्ता के प्रति कभी मोह नहीं किया.वे जिस मुकाम पर थे,चाहते तो पद और पुरस्कार उनके क़दमों में होते ,मगर एक सच्चे गाँधीवादी पत्रकार और इन्सान थे.जिस शिद्दत के साथ उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार ,सम्प्रदायवाद के खिलाफ कलम उठाई,उसी तेवर से उन्होंने बिकी हुई पत्रकारिता के खिलाफ आवाज़ बुलंद की.उनके जाने के तुरंत बाद दी गई श्रद्धांजलि आज उनकी बरसी पर यहाँ दी जा रही है.

बीती रात भारत-आस्ट्रेलिया का पांचवां एक-दिवसीय मैच कई मायनों में न भुला पाने वाला सबक दे गया !सचिन के अतुलनीय पराक्रम के बाद भारत ने सिर्फ़ एक मैच ही नहीं गंवाया बल्कि अपने एक सच्चे सपूत को भी खो दिया जो किसी मैच की हार-जीत से परे बहुत बड़ी क्षति है!


प्रभाष जोशी हमेशा की तरह अपने क्रिकेट और सचिन प्रेम के कारण इस मैच का आनंद ले रहे थे,जिसमें बड़ा स्कोर होने के कारण भारत के लिए ज़्यादा कुछ उम्मीदें नहीं थीं,पर टीम का भगवान् अपनी रंगत में था और लोगों ने सालों बाद सचिन की पुरानी शैली और जवानी की याद की। केवल अकेले दम पर उनने बड़े टोटल का आधा सफ़र तय किया और हर भारतीय को आश्वस्त कर दिया कि जीत उन्हीं की होगी पर तभी अचानक वज्रपात सा हुआ और जो मैच भारत की झोली में आ रहा था वह हमें ठेंगा दिखा कर चला गया और यही कसक जोशी जी की जान ले बैठी। उन्हें सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल ले जाया गया पर हम उन्हें बचा नहीं पाये ।पत्रकारीय बिरादरी का 'भीष्म पितामह' अपनी यात्रा पर जा चुका था। सचिन क्रिकेट के भगवान् थे, प्रभाष जी के लिए क्रिकेट भगवान् था और हम जैसे पाठकों के भगवान् प्रभाष जी थे !


प्रभाष जी की लेखनी के कायल इस देश में कई लोग मिल जायेंगे,जो उनका ही लिखा आखिरी फैसले की तरह मानते थे। केवल अखबारों में लेख लिखने के लिए नहीं उन्हें याद किया जाएगा,अपितु पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और उनकी चिंता को हमेशा स्मरण किया जाएगा। वे राजेंद्र माथुर के जाने के बाद अकेले ऐसे पत्रकार थे जिनकी किसी भी ज्वलंत विषय पर सोच की दरकार हर सजग पाठक को थी। वे ऐसे टिप्पणीकार भी थे जिन्होंने न केवल राजनीति पर खूब लिखा बल्कि क्रिकेट,टेनिस और आर्थिक मसलों पर उनकी गहरी निगाह थी। उनके राजनैतिक लेखों से आहत होने वाले भी उनकी क्रिकेट और टेनिस की टिप्पणियों के मुरीद थे।


प्रभाष जी के जाने से धर्मनिरपेक्षता को भी गहरी चोट लगी है। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा हमेशा गाँधी के भारत की हिमायत की और कई बार इसका मूल्य भी चुकाया।आज जब अधिकतर पत्रकार सुविधाभोगी समाज का हिस्सा बनने को बेचैन रहते हैं,जोशी जी एक मज़बूत चट्टान की तरह रहे और यही मजबूती उन्हें औरों से अलग रखती है।


जोशी जी इसलिए भी भुलाये नहीं भूलेंगे क्योंकि उन्होंने न केवल राजनीतिकों को उपदेश दिया बल्कि उस पर ख़ुद अमल भी किया,इस नाते हम उनको निःसंकोच पत्रकारीय जगत का गाँधी कह सकते हैं। प्रभाष जी को 'जनसत्ता'की तरह अपन भी खूब 'मिस' करेंगे। उन्हें माँ नर्मदा अपनी गोद में स्थान दे,यही एक पाठक की प्रार्थना है!


पुण्य तिथि ०५/११/२००९ 

1 नवंबर 2011

बदलते हुए !

इन्हीं  आँखों से मैंने, जाम को ज़हर होते देखा,
ढल गयी जो शाम उसे सहर होते देखा !१!


ज़िन्दगी के मायने ,अब बदल गए,
अपनों में परायों का, असर होते देखा !२!


खुशबू-ओ-मोहब्बत से ,भरे हुए चमन में,
घुसते हुए लोगों का ,क़हर होते देखा !३!


जिन्होंने बनाए थे ,अपने खूं से  घरौंदे,
उन्हीं को आज हमने , खंडहर होते देखा !४!


कहाँ तक बचेंगे ,बदलती रिवायत से,
छिपाते जिसे रहे ,नज़र होते देखा !५!




*आख़िरी शेर को छोड़कर सब पुरनिया  हैं !

फतेहपुर,२५/०३/१९९०