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10 नवंबर 2011

परब बदल गए,मेले छूट गए !

कई बरस बाद अबकी बार कतकी (कार्तिक पूर्णिमा) पर गाँव में हूँ.आने की कोई योजना नहीं थी पर अचानक दो दिन पहले घर से बड़ी अम्मा (दादी) का फोन आया,वो सख्त बीमार थीं और हमें याद कर रही थीं. अभी दिवाली पर जब घर आया था तो उनसे मुलाक़ात हुई थी,पर उनकी  मिलने  की ख्वाहिश ने बेचैन कर दिया और मैं बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के ,गाँव आ गया.वे अब कुछ ठीक हैं ! इस तरह बहुत दिन बाद कतकी पर अपने गाँव में हूँ !


आज सुबह से ही मैं इस त्यौहार के बारे में सोच रहा हूँ.कहीं भी कुछ रौनक या उल्लास नहीं दिखती है.सब कुछ सामान्य-सा लग रहा है.हाँ,घर में ज़रूर पूड़ी,कचौड़ी और रबड़ी  के व्यंजन तैयार किये गए हैं.गंगा-स्नान के लिए सोच रहा था कि जाऊँगा,पर न मन ने हुलास भरी और न दूसरों का संग मिला.अब अगर जाऊं तो बाइक या साईकल के अलावा कोई विकल्प नहीं है.साईकल चलाना अब छूट गया है,बाइक अपन कभी चलाये नहीं !सो,घर में ही दो बूँद गंगाजल छिड़ककर यहीं पर गंगा-स्नान का पुण्य ले लिया और पूड़ी-रबड़ी का आनंद भी !


 मुझे पचीस-तीस साल पहले की गाँव की कतकी आज बहुत याद आ रही है.लोग महीने भर पहले से बैलगाड़ी को तैयार करने में लग जाते थे. बैलों की पगही,गाड़ी की पैंजनी और जुआं( जिस पर बैल अपना कन्धा रखते हैं)सँभाले जाते .लढ़िया  (बैलगाड़ी) की इस तरह पूरी साज-सज्जा होती और हम सब कतकी की सुबह का बेसब्री से इंतज़ार करते. इस दिन सुबह चार बजे से घरों में खाने की तैयारियाँ होने लगती और सात बजे तक हम गंगा-स्नान को निकल जाते .वहाँ स्नान करके घाट के किनारे ही रबड़ी का लुत्फ़ लिया जाता और लौटते समय मेला घूमते.दो-तीन घंटे मेला देखने के बाद घर लौटते वक़्त रास्ते में गाड़ियों की आपस में दौड़ भी होती.सड़क किनारे डमरू,किडकिडिया ,घोड़े,हाथी ,जांत आदि खिलौने बिकते, जिन्हें हर बच्चे को लेना ज़रूरी-सा था.


इस तरह कतकी का आकर्षण स्नान,मेला और खिलौनों की वज़ह से बना रहता और बैलगाड़ी में घर-परिवार के साथ पूरे परब का मज़ा लेते ! आज के बच्चों को उसकी तनिक भी झलक नहीं मिलती है और इसलिए उन्हें ऐसे परब महज़ खान-पान का एक विशेष दिन बनकर रह गए हैं. शहरों में यह 'कल्चर' पहले से ही नहीं था, अब तो गांवों से भी यह गायब हो गया है.
इस सबके लिए क्या हमारी आधुनिकता ज़िम्मेदार है या नई पीढ़ी ? हम प्रकृति (नदी,पहाड़,जंगल) से दूर होकर कितने दिन अपने परब और मेलों से सामंजस्य बिठा पाएँगे,अपने को बचा पाएँगे ?



* पहली बार यह पोस्ट गाँव से जुगाड़-कंप्यूटर द्वारा लिखी गई !


28 टिप्‍पणियां:

  1. सामजिक वातावरण ही खत्म हो गया है ऐसे मेले और त्योहारों का ... सब अपने में ही गुम हो गए हैं ..

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  2. जुगाड़ कम्पयूटर के बारे में तफसील लिख देते तो और आनंद आता ...
    शुभकामनायें आपको !

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  3. @सतीशजी, जुगाड़-कंप्यूटर का मतलब है,कंप्यूटर तो असली है पर इन्टरनेट मोबाइल से चलता है और बिजली न रहने पर इनवर्टर का प्रयोग होता है,काम चलाऊ तकनीक है,फिर भी टैम तो पास हो जाता है !

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  4. कस्मे यी कतकी बेमजा हुयी गयी ? तू ऊह्ना गाँव गिराव में कटे कटे हो aur मैं तो बनारस में वो भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन बेज़ार होकर बैठे हैं ..हाँ बेचैन आत्मा ने अच्छा ख़ासा प्लान बनाया है -अरे ऊ अपने देवेंदर पांडे हो ! तफसील से पोस्ट लिखेगें !

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  5. हम प्रकृति (नदी,पहाड़,जंगल) से दूर होकर कितने दिन अपने परब और मेलों से सामंजस्य बिठा पाएँगे,अपने को बचा पाएँगे ?
    सचमुच चिंतनीय !!

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  6. मेले ढेले का आनंद अभी भी कमोबेस वैसा ही है लेकिन सच्चाई यही है कि हमी वैसे नहीं रहे। न यार-मित्र न पहले जैसा निश्चिंत जीवन। सर पर विचारों का बोझ लादे बचपन के मजे ढूँढेंगे तो कहां मिलेगा मेले में। अब तो बचपन को हंसते देखने और उसी में आंनद ढूँढने की उम्र आ गई।

    आज सुबह सबेरे तो नहीं देर से...लगभग 11 बजे पहुंचे अस्सी घाट लेकिन वहां उस समय भी भीड़ जमी हुई थी। खाली घाट ढूंढते-ढूंढते तुलसी घाट के आगे भदैनी पहुंच गये। वहाँ भीड़ कम थी। गंगा में उतरे तो मन हुआ तैरा जाय..। कुछ देर तैरने के बाद पलटकर देखा तो सकपका गये। नदी में बहाव होने के कारण बहकर काफी आगे निकल चुके थे। बड़ी मशक्कत के बाद किनारे लगे। सारी शक्ति जवाब दे चुकी थी। घाट पर पहुंचे तो लोग हंसने लगे... दम नाहीं हौ त काहे तैरे लगला..?

    देव दीपावली का आनंद तो शाम को है।

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  7. गाँव में भी कम्पयूटर ....
    जुगाड़ से ही सही ,अगर गाँव में बैठ नेट से जुड़ना ही सुखद अनुभव है !
    यह कमेन्ट भी जुगाड़ करके दे रहा हूँ !

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  8. @ दो बूँद गंगाजल छिड़ककर यहीं पर गंगा-स्नान का पुण्य ले लिया और पूड़ी-रबड़ी का आनंद भी !

    कोई दिक्कत नहीं, कम से कम हमारी पीढ़ी के लिए... यादों में ही सही, परब और त्योहार जिन्दा तो हैं...


    आगे खुदा जाने.

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  9. शहरों में तो मानों- दिन में होली, रात दीवाली रोज...

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  10. कार्तिक पूर्णिमा में गंगा नहाना कैसे भुलाया जा सकता है।

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  11. @ पहली बार यह पोस्ट गाँव से जुगाड़-कंप्यूटर द्वारा लिखी गई !

    यही तो बदलाव है भाई । अगर यह बदलाव न होता तो क्या आप यूँ लिख पाते ।
    याद तो बहुत आते हैं गाँव के मेले , लेकिन फिर यही लगता है कि जो आज है वह भी खूब है ।

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  12. आप जिनके लिए गाँव गये वो सही है पर साइकिल से गंगा स्नान को जाने की हिम्मत करते तो आपकी हालत भी वही होती जो भाई देवेन्द्र पाण्डेय की भदैनी के पास तैरते हुए हुई :)

    पता नहीं , आपका संस्मरण पढते हुए 'लढिया हुराय दई' का ख्याल क्यों आ रहा है ?

    जब हम ही बदल रहे हैं तो परबों को भी बदलना होगा !

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  13. कवन गाँव ? :)
    अरे गाँव का नाम तो बता दीजिये.

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  14. हमलोग मुज़फ़फ़रपुर से पहलेजाघाट जाते थे, भोरका गाड़ी में ठुंस-ठुसा कर।

    अब तो शहरी हो गए हैं, सही कहा, घरे में गंगाजल छिड़क लेते हैं, जबकि बाबू घाट में नहाने की अच्छी सुविधा है।

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  15. @ अभिषेक ओझा हमारा गाँव कानपुर से सत्तर किमी पूरब ,लखनऊ से एक सौ किमी दक्षिण पूर्व में रायबरेली जिले में दूलापुर है . यह इलाका बैसवारा क्षेत्र में पड़ता है .

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  16. समय के साथ सब कुछ शायद यूं ही बदलता आया है... सदियों से ही

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  17. ई कल किसकी नजर लग गयी दोनौ गुरु चेला को ...??
    जय जय !

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  18. प्रवीण तिरवेदी जी की नज़र से नहीं बच पाए हैं हम -ई कौन सा राग अलाप दिए कल दूनौ इकट्ठे ?

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  19. एक कतकी में साईकिल मोटरसाइकिल के चक्कर में गंगा स्नान से वंचित रहे ....दुसरे मेले में अपनी संती कौनो और का भेज रहे !!

    आलस्य के देवता तो आप द्वय गुरु चेला तो कभिये ना रहे !

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  20. chalo ganga ji ke bahut pass tak pahunch to gaye dadi se milna kisi ganga snan se kam punya ka kam nahi hai,

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  21. आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । पोस्ट रोचक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।

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  22. आज कतकी के दूसरे दिन गंगा-स्नान हो पाया लेकिन बिना डुबकी लगाए ! दर-असल घाट के पास गहराई थी सो हिम्मत नहीं पड़ी कूदने की इसलिए वहीँ पर बंधी हुई नाव में बैठकर प्रतीकात्मक स्नान कर लिया !

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  23. समय के साथ पर्व बदल तो रहे ही हैं। हमने तो कार्तिक पूर्णिम को भी नलके के जल से ही "गंगे च यमुने ... सन्निधिं कुरू" किया।

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  24. सच में आपके इस आलेख ने तो बचपन की यादे ताज़ा कर दी.
    बहुत बहुत बधाई आपको !

    मेरे ब्लॉग पर आये -
    manojbijnori12.blogspot.com

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  25. समय तेज़ी से बदल रहा है और पर्व भी ... अब तो बस यादें ही बची हैं ...

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  26. संतोष जी आपके सुझाव के लिए धन्यवाद! मैंने आखरी पंक्ति में बदलाव किया है आप फिर से आकर देखिएगा ! आपकी टिपण्णी का इंतज़ार रहेगा !
    बहुत बढ़िया लगा! जाकत किसीके लिए ठहरता नहीं और रह जाती है सिर्फ़ मीठी यादें !

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  27. सही कहा जी, पर्व-त्यौहारों का हमारे बचपन में जो उल्लास था अब कहाँ। आधुनिकीकरण की आँधी ने सब बदल दिया। आज हमारे यहाँ यमुनानगर में कपालमोचन का मेला भरा है। स्नान का सोचा भी, एकाध घंटे का रास्ता होगा पर अकेले जाने की इच्छा नहीं हुयी। आसपास से कोई जा नहीं रहा।

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