कुछ जुमले थे कुछ नारे थे
वो ईश्वर के हरकारे थे।
सबका विकास, सब साथ रहें
लगते केवल जयकारे थे।
बज रहा रेडियो हर हफ्ते
मन-बात नहीं अंगारे थे।
बुलेट ट्रेन सरपट दौड़ी
कुचले किसान बेचारे थे।
रोज़ी-रोटी नहीं चाहिए
ये तो धरम के मारे थे।
बदले वक्त में वो भी बदले
जो आँखों के तारे थे।
©संतोष त्रिवेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें