कभी सोचता हूँ,क्या हूँ,
इस भीड़ में नया हूँ .
अपने ग़मों से दूर
किसी और की दवा हूँ.
ज़ुल्फ़ के दुपट्टे में
फँसती हुई हवा हूँ .
अलग-थलग लगा
जब उसके पास गया हूँ.
दुनियावी बातों में,
हरदम ठगा गया हूँ.
आशियाँ बना,न बना,
उड़ती हुई बया हूँ.
अपने ही चमन में,
गुजरी हुई फिज़ा हूँ !
अब आइने से पूछो,
सूरत से भी ज़ुदा हूँ !
इस भीड़ में नया हूँ .
अपने ग़मों से दूर
किसी और की दवा हूँ.
ज़ुल्फ़ के दुपट्टे में
फँसती हुई हवा हूँ .
अलग-थलग लगा
जब उसके पास गया हूँ.
दुनियावी बातों में,
हरदम ठगा गया हूँ.
आशियाँ बना,न बना,
उड़ती हुई बया हूँ.
अपने ही चमन में,
गुजरी हुई फिज़ा हूँ !
अब आइने से पूछो,
सूरत से भी ज़ुदा हूँ !
बढ़िया प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंअपने ही चमन में,
जवाब देंहटाएंगुजरी हुई फिज़ा हूँ !
अब आइने से पूछो,
सूरत से भी ज़ुदा हूँ !
वाह!!!!!बहुत सुंदर रचना,क्या बात है,संतोष जी बधाई
MY RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
क्या बात है संतोष जी! छोटी बहरों में बहुत खूबसूरत भाव हैं।
जवाब देंहटाएंअब आइने से पूछो,
जवाब देंहटाएंसूरत से भी ज़ुदा हूँ !
आइना भीतरी सूरत नहीं दिखाता....
बहुत सुन्दर भाव.
सादर.
कभी सोचता हूँ,क्या हूँ,
जवाब देंहटाएंइस भीड़ में नया हूँ
भीड़ में कहां पता चलता है कौन नया कौन पुराना। भीड़ की जगह भाड़ तो नहीं है? :)
अनूपजी,पर अपने को तो महसूस हो जाता है कि मैं अलग-थलग या नया हूँ,इन सबसे जुदा हूँ.
हटाएंमाट्साब! अच्छा खींचा है अपना शब्द-चित्र!!
जवाब देंहटाएंजीवन है तीर्थ अपना,
'काशी' कभी 'गया'हूँ!
सलिलजी,ई वाली लाइन सबपे भारी है, बिलकुल 'गागर में सागर' की तरह !
हटाएंआभार !
ज़ुल्फ़ के दुपट्टे में
जवाब देंहटाएंफँसती हुई हवा हूँ ...
वह बहुत खूब ... छोटी बहर में कमाल किया है ... शब्द चित्र उतारा है केनवास पे ...
पहली बार का प्रयोग था,आशीर्वाद आपका !
हटाएंसुन्दर आत्मनिरीक्षण .
जवाब देंहटाएंबहुत सही डाक्टर साहब :)
हटाएंमैं भी इसी लाइन में सोच रहा था कि चमन तो ठीक है पर उम्रदराज़ होकर गुज़री फिज़ा कौन है ? या फिर उम्रदराज़ ना होकर भी गुज़री तो भी ये फिज़ा कौन है ?
gahan ..sunder abhivyakti ...!!
जवाब देंहटाएंबढियां है ! आशा है देवेन्द्र जी इसका मूल्यांकन स्तर थोड़ा तो ऊपर करेगें -मैं कविताई के मामले में उनकी गुरुता मानता हूँ!
जवाब देंहटाएंवे नैसर्गिक कवि हैं !
अरे बाप रे! कहाँ फंस गये!! अभी.. जीवन है तीर्थ अपना 'काशी' कभी 'गया' हूँ..का मजा ले रहा था कि अचानक से आपके गुरू गंभीर टीप के बोझ तले चिपिया गया हूँ..(:-(:-
हटाएंबड़े भाई साहब! मैं कोशिश कर रहा हूँ मगर एक शब्द फ़िजा पर अटक गया हूँ। क्या आप मेरी मदद करेंगे? फ़िजा का अर्थ बतलायें तो बात बने:) वैसे बिना समझे मैने भी लिख तो दिया है।
हटाएंअरविन्दजी से मुझे ज़्यादा उम्मीद नहीं थी क्योंकि इस समय वह निर्वात की स्थिति से गुजर रहे हैं. निर्वात से निर्वाण तक की दूरी ज़्यादा नहीं होती !
हटाएं...देवेंद्रजी,फिजा का अर्थ आप समझ रहे हैं,अभी तो आपके चमन से गुजरी है !
संतोष सह देवेन्द्र जी ,
हटाएंमैं तो समझ रहा था कि फिज़ा किसी सुकन्या / सुप्रौढा / सुवृद्धा का नाम है ! बहरहाल नाम के भी अर्थ तो होते ही हैं ? सो हमें भी बताइये ?
पहली बार जाना कि सुवृद्धा भी होती है !
हटाएंनाम आपको पता है !
अब आइने से पूछो,
जवाब देंहटाएंसूरत से भी ज़ुदा हूँ !
...बहुत खूब! बेहतरीन गज़ल...
छोटी बहर की बढ़िया गज़ल है जिसमे पाठकों के भी जोर आजमाइश का पूरा चांस है। कुछ लोग गज़ल छोड़ फोटू पर ही गुनगुनाने लगें तो अचरज नहीं। अल्लाह बचाये कदरदानों से:)वैसे इस गज़ल को पढ़कर यह लगा कि संतोष जी यह कहना चाह रहे हैं....
जवाब देंहटाएंमैं इस गज़ल में
जिंदगी जी गया हूँ।
दुपट्टे की हवा कभी
गुज़री हुई फिज़ा हूँ!
एक आग का दरया है और डूब के जाना है! :)
हटाएंभाई देवेन्द्र जी...यहाँ कभी खुशी ,कभी गम वाला मसला है ! आपने हवा और फिजा दोनों रूपों को समझा है.
हटाएंजीवन का यथार्थ दिखाने की कोशिश,कुछ पाने से ज़्यादा महसूसने की चीज़ !
कभी सोचता हूँ,क्या हूँ,
हटाएंपुरनिया हूं कि नया हूँ .
अपने ग़मों से दूर होकर
दूसरे के ग़मों की वज़ह हूं
ज़ुल्म के झपट्टे में
फंसता हुआ गवाह हूँ .
अलग-थलग सा दिखा ड्रामा
जब उसके पास पर गया हूँ.
अभी फिलहाल इतनी सी
पैरोडी बना सका हूं !
आभार इस ठिठोली-पैरोडी का...!
हटाएंबहुत सुन्दर सजाया है मन के स्पष्ट भावों को..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शब्द संयोजन......
जवाब देंहटाएंखूबसूरत....
जवाब देंहटाएंसादर।