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28 अक्तूबर 2011

साहित्य का लाल नहीं रहा !

अभी -अभी खबर मिली कि हिंदी के मशहूर साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल हमारे बीच नहीं रहे. उनके निधन की खबर ने सभी साहित्य प्रेमियों को बेचैन और बदहवास कर दिया है.उन्हें अभी हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था,पर वे इससे ज़्यादा 'राग-दरबारी' के लेखक के रूप में जो मान हासिल कर चुके थे ,वह बहुत छोटी उपलब्धि ही कही जाएगी !


साहित्य के इस पुरोधा को शत-शत नमन !








23 अक्तूबर 2011

धरती माता ,जागो जागो !

पिछले कुछ दिनों से मेरा बेटा गाँव जाने को लेकर इतना उत्सुक है कि रोज़ सुबह उठकर बताता है कि इतने दिन बचे हैं ! अबकी दिवाली में उसे लेकर मैं गाँव जा रहा हूँ,ताकि वह त्यौहार का कुछ मतलब समझ सके.पिछली बार भी जाने का कार्यक्रम बनाया था पर आख़िरी मौक़े पर जाना न हो पाया.

बेटा आठ साल का है और दिवाली को उसने शहरी तौर पर ही जाना है.मुझे उसको वहां ले जाना ज़रूरी इसलिए लगा कि बचपन में जैसा मैं महसूस करता था,अब वैसा तो नहीं पर उस जैसा कुछ तो उसे दिखे और वह जान सके कि त्यौहार असल में होते क्या हैं ?

मुझे अपनी दिवाली बेतरह याद आती है.कुछ दिनों पहले से ही घर-बाहर की सफ़ाई का अभियान चलता था और इसे ठेके पर नहीं कराया जाता था बल्कि स्वयं परिवार के सभी सदस्य जुटते थे.घर-दुवार को  पूरी तरह से चमकाया जाता था.आंगन,खमसार, दहलीज़ और चौपारि को गोबर से लीपा जाता  और उस पर रंगोली बनती.दीवारों पर चूने से पोताई होती.कच्चे घरों में माटी का पोतना फेराया जाता.इस तरह दिवाली के आते-आते  सबके घर बिलकुल दमकने लगते.

मैं ज्यादा पटाखे छुड़ाने का शौक़ीन तो नहीं रहा पर छोटा तमंचा और बिंदीवाली डिबिया के साथ दो-चार दिन पहले से ही शुरू हो जाता .तमंचे का प्रयोग तो काफी बाद में आया ,पहले तो ईंट के टुकड़े से ही दगने वाली  'टिकिया' पर वार करके मज़ा लिया जाता था.'दईमार' और 'मिर्ची' भी खूब प्रसिद्ध पटाखे थे.


दिवाली से एक दिन पहले नरक-चतुर्दशी को अम्मा सुबह-सुबह हम लोगों को जगातीं और नहाने के बाद लाइ,चंदिया,चिरइया(खिलौने) का भोग लगवातीं !कुम्हार दो दिन पहले ही दिए दे जाता था.उन्हें दिवाली की शाम को धुलकर तैयार किया जाता.सूर्यास्त होने के बाद अम्मा आंगन में पूजा-पाठ का इंतजाम करतीं,सारे दिए वहीँ रखे जाते,घी-तेल और बाती भी तैयार होती .जैसे ही,अँधेरा शुरू होता, दियों  को अलग-अलग जगह ,घर के हर आले में .हर कोने में .छत की मुंडेर पर ,दरवाज़े पर करीने से धर दिया जाता.


इसके बाद असली धमाल शुरू होता.हम छोटे भाई के साथ हाथों में छुरछुरिया लेकर दुवारे(घर के बाहर खुला बड़ा स्थान) के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक दौड़ते और साथ में ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाते,"आज दियाली,काल दियाली ,धरती माता ,जागो जागो "! उस समय हम परब के पूरे उफान पर होते और घर के बड़े-बूढ़े हमारी यह गुहार सुनकर आनंदित होते.इसके बाद तो पटाखे आधी रात तक छूटते  रहते.अगले दिन सुबह हम भाई-बहनों में होड़ लगती कौन कितनी 'दियाली' पाता है ? हाँ, अम्मा एक विशेष तरीके से दिया जलातीं,जिसके बने हुए काजल को हम साल भर अपनी आँखों में रांजते !

सोचता हूँ ,जब बेटा गाँव की दिवाली को महसूसेगा तो उसे आँगन,आला,छत,मुंडेर आदि कैसे लगेंगे.शहरों में बंद कमरों में मनाई जाने  वाली दिवाली उसके लिए गाँव में कितने धरती और आसमान के सपने दिखाएगी ? 



18 अक्तूबर 2011

अच्छा लगता था !

घर की डेहरी  पर 
घंटों बैठे 
बिना काम के 
अम्मा से चिज्जी की फ़रमाइश करते 
झूठ-मूठ का रोना रोते 
मांगें अपनी पूरी करवाना 
अच्छा लगता था!

छोटी-सी गप्पी में 
कंचों को लुढकाना
ऐंठ मारकर 
बड़ी दूर से टिप्पा साधे 
हर बाज़ी चाहते जीतना
अपने कंचों की थैली को 
रोज़ बढ़ाते ही रहना 
अच्छा लगता था !

डंडे पर गुल्ली को रखकर 
दूर भगाते और लपकते 
रात को चाँद  की निगरानी में 
अपने कई दोस्तों के संग 
पाटा लगे हुए खेतों पर 
भुरभुर माटी की छाती पर 
दौड़ लगा झाबर* खेलना
अच्छा लगता था !

आमों की बगिया में 
ढेला लेकर आम टीपना 
झुकी हुई डाली को कसकर 
और झुकाना उसे हिलाना 
जामुन को भी आँख दिखाना 
चोरी से अमरुद तोड़ना
गोल बनाकर बेर गिराना   
अच्छा लगता था !

कतकी के मेले में जाना,
पूड़ी,रबड़ी खूब उड़ाना,
भइया* की उंगली  पकड़े
डमरू और पिपिहरी लेना,
पट्टी और जलेबी खाना 
बैलों की गाड़ी में चढ़कर 
चलत बैल को अरई मारना  
अच्छा लगता था !!

खेतों की मेड़ों पर सरपट 
नंगे पाँव भागते जाना ,
गन्ने के खेतों में घुसकर 
गन्ने का हर पोर चूसना ,
बित्ते भर का झाड़ चने का 
जड़ से उखाड़ कर ख़ूब छीलना
अच्छा लगता था !



झाबर*=पकड़ा-पकड़ी का खेल, भइया*=अपने पिताजी को हम यही कहते हैं 



15 अक्तूबर 2011

करवा-चौथ और बेचारा पति !

वैसे तो पति नाम के निरीह प्राणी को पूरे साल दम मारने की फ़ुरसत नहीं मिलती है पर एक दिन ऐसा आता है जब उसे सूली पर लटकाने का विधिवत कार्यक्रम होता है.श्रीमतीजी पूरे साल और कामों में इतना व्यस्त रहती हैं कि पतिदेव की ख़ातिरदारी में कोई न कोई कोताही ज़रूर रह जाती है.इसीलिए किसी शुभचिंतक ने करवा-चौथ का मुहूरत सोच-विचारकर निकाला है.


पति को तीन सौ पैसठ दिन भकोसने वाली बीवी जब अचानक किसी दिन मेहरबान हो जाय तो समझो कि शामत या क़यामत ज्यादा दूर नहीं है.शायद इसी तरह के प्रसंगों से प्रेरित होकर तुलसी बाबा ने लिखा है,'नवनि नीच कै अति दुखदाई,जिमि अंकुस,धनु,उरग,बिलाई'! यहाँ भी जब पत्नी से अनायास ज़्यादा प्यार टपकने लगता है तो पति की  हालत पतली होने लगती है.उसे लगता है कि वह बलि का बकरा है और उसको आज के ही दिन हलाल करने के लिए तैयार किया गया है.


क़रीब पंद्रह दिन पहले से इस दिन की आहट सुनाई  देने लगती है.जेब की तलाशी तो पूरे साल ली जाती है लेकिन इन दिनों तो बक़ायदा डकैती पड़ती है.मजाल है कि इस पवित्र पर्व के अनुष्ठान के लिए पति उफ़ भी कर दे.साल भर पानी पी-पी कर कोसने वाली सबला जब धर्मपत्नी बनने को आतुर हो उठती है तो फिर से तुलसी बाबा डराते हैं,''का न करै अबला प्रबल,केहि जगु काल न खाय" !पति की पूजा  के नाम पर पत्नी कितनी मेवा खा लेती है यह विशेषज्ञ पति ही बता सकता है. प्यारा और दुलारा पति अडोस-पड़ोस से गुजरता हुआ नकली मुस्कान चेहरे पे लादे रहता है और सोचता है कि कितनी जल्दी चाँद दिखे और उसका जो भी होना है हो जाये !चाँद को छन्नी से देखने का फंडा भी अजीब है.विवाह से पहले जिस चाँद से उसकी तुलना की जाती है ,पत्नी देखती है कि उसमें क्या ख़ास है जो अब उसमें नहीं रहा !


पत्नी के मेहंदी भरे हाथ पति को कैक्टस की चुभन से कम नहीं लगते.वह इस ख़ास  दिन को लेकर इतना आशंकित रहता है कि उसे भी कुछ दिन पहले से अपनी व्यूह-रचना करनी पड़ती है.इस समय अगर पति की  जेब टटोली जाये तो पैसों की जगह बादाम,किशमिश और काजू के कुछ दाने ज़रूर मिल जायेंगे.जहाँ उसकी पत्नी अपने त्यौहार की तैयारी सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करती है वहीँ पति ज़्यादातर चुपचाप ही रहता है.किसी भावी आशंका को वह अपने दोस्तों तक से ज़ाहिर तक नहीं कर सकता !क्या पता,संयोग से मिला एक सुकून भरा दिन भी उससे रूठ जाए !


सभी पतियों की तरह हम भी उम्मीद करते हैं कि यह करवा-चौथ भी पिछले की तरह बिना किसी ज्वालामुखी के फटे ,निर्विघ्न संपन्न हो जाये .पत्नी की मेहँदी का रंग नकली न निकले और यह अनुष्ठान बिना ए.टी.एम.
को नुकसान पहुँचाये,अगले साल तक के लिए विराम ले ले !जैसे हमसे पहले वालों के दिन बहुरे,वैसे हमारे भी बहुरें,इसी कामना के साथ करवा-चौथ की बधाई !!


12 अक्तूबर 2011

रजिया गुण्डों में फँस गयी !

थकावट थी इसलिए रात को जल्दी ही सो गया ! अचानक श्रीमतीजी की आवाज से चौंक गया,'अजी सुनते हो ! कई दिनों से पानी ठीक से नहीं आ रहा है,ज़रा टंकी तो देख कर आओ !कहीं कुछ लीक-वीक तो नहीं हो रहा है ! मैं अलसाया-सा उठ बैठा,सीढ़ी ढूँढने लगा तो उसके दो डेढ़के (पैर रखने वाले डंडे) नदारद मिले.मैं पड़ोसी के यहाँ जाकर उसकी सीढ़ी से अपनी छत पे पहुँचा ! 


छत के ऊपर बुरा हाल था.आस-पास कीचड़-सा जमा था .टंकी का ढक्कन खोलकर देखा तो तली में थोड़ा पानी दिखा,जिसमें दो-तीन मेंढक उछल-कूद कर रहे थे.मैं नीचे से मोटर चला कर आया था,पर यहाँ पानी की एक बूँद भी न टपक रही थी.अब मेरा दिमाग हलकान हो रहा था.टंकी लगभग सूखी थी और मेंढकों ने उस पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था.लेकिन मुख्य सवाल यह था कि पानी क्यों नहीं आ रहा है? अभी थोड़े दिन पहले ही एक जाने-माने प्लंबर से ठीक भी कराया था.उसने टंकी की मरम्मत करने के बाद उस पर बाक़ायदा  अपना नोटिस-बोर्ड लगा दिया था.किसी भी तरह की समस्या के लिए इस नंबर पर कॉल करें !मैंने तुरत वह नंबर डायल किया पर मुआ वह भी 'नॉट-रीचेबल' बता रहा था.


मैंने श्रीमतीजी को छत से ही खड़े-खड़े आवाज़ दी ,''भागवान, ज़रा शर्माजी से पता करो,वह दूसरे शहर के प्लंबर से काम करवाते हैं और उसका बड़ा नाम है.थोड़ी देर में पता चला कि वह प्लम्बर इस समय शर्माजी के यहीं आया हुआ है,सो श्रीमतीजी ने तुरत उसे अपने यहाँ बुला लिया.


शर्माजी के प्लंबर ने आते ही हमारी समस्या सुनी और बजाय वह छत पर चढ़ने के, जहाँ मोटर लगी थी,वहाँ   पहुँच गया.उसने बटन दबाते ही हम दोनों की तरफ घूरकर ऐसे देखा,हम तो डर ही गए ! हमें लगा कि  क्या कुछ हो गया है? उसने अपना निर्णय सुनाया,भाई साहब ! आपकी तो यह मोटर ही फुंकी पड़ी है तो पानी ऊपर टंकी में कैसे चढ़ेगा ? आपने इस मोटर को बिना चेक किये कई बार चलाया है जिससे यह जल गई है ! मैंने कहा,''अभी तो एक नामी-गिरामी स्पेशलिस्ट प्लंबर को दिखाया था,फिर यह कैसे ? उसने आगे बताया,देखिये ,उसी ने गलत जगह छेनी-हथौड़ी चलाई है इसलिए इसके नट-बोल्ट ढीले हो गए थे.ऐसे में आपको इसे नहीं चलाना चाहिए था.मैंने कहा,जो गलती हुई सो हुई अब बताओ क्या हो सकता है? उसने झट-से बात साफ़ कर दी कि अब इसमें इतनी तोड़-फोड़ हो चुकी है कि यह रिपेयर के लायक नहीं है,इसलिए अच्छा है  कि नई मोटर लगवा लें !


अब श्रीमतीजी की बारी थी! उन्होंने हमें ही कोसना शुरू कर दिया.'मुझे शुरू से ही इसके लच्छन अच्छे नहीं दिख रहे थे.जब इसमें ख़राबी आ गयी थी, तभी रिप्लेस कर देते,अब भुगतो. यह सब उस नासपीटे प्लंबर का किया धरा है जिसने मोटर तो खराब की ही ,टंकी में भी मेढकों का जमावड़ा कर दिया.अब जब पानी ही न रहा और न आने की गुंजाइश है तो ये मोटर और टंकी दोनों हमारे किस काम की ?'


अभी मैं इस पर आने वाले खर्चे की उधेड़बुन में ही था कि  हमारी पड़ोसन ने ज़बरदस्त -ऑफर  देकर थोड़ी राहत दी.उन्होंने श्रीमतीजी से कहा,'कोई नहीं बहन,आख़िर आप भले मुझे अपना न समझे पर मैं आपकी टंकी में अपने पाइप के ज़रिये थोड़ा-बहुत पानी दे सकती हूँ". मैं इस पर रजामंदी देने ही वाला था कि श्रीमती जी ने मेरा चद्दर उठाते हुए झिंझोड़ा,देखो जी कितना सूरज चढ़ आया है और आप हैं  कि अभी तक  घर्रे मारे जा रहे हैं  !

मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा ! मेरी नींद काफूर हो गयी थी,फिर मैंने जल्द से टंकी की ओर देखा,उसी प्लंबर का फोन नंबर बड़े-बड़े अक्षरों में दिख रहा था !दूसरे कमरे में बच्चे एफ.एम. में गाना सुन रहे थे,'रजिया गुण्डों में फँस गयी' ! 





10 अक्तूबर 2011

राम विलास शर्मा को पढ़ते हुए !



क़रीब दस-बारह साल बाद  दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी गया था.हालाँकि घर में पढने लायक अथाह भंडार मौज़ूद  है,पर कई दिनों से अज्ञेय की आत्मकथा 'शेखर :एक जीवनी' को पढने की प्रबल  इच्छा थी मन में ! पुस्तकालय में जाकर पुनः सदस्य बनने का तात्कालिक कारण यह भी रहा.बहरहाल,आसानी से सदस्यता ग्रहण करके मैंने अपनी वांछित पुस्तक की खोज शुरू की ,पर वह उस समय वहां उपलब्ध नहीं थी. मैंने उसका विकल्प खोजना शुरू किया तो सहसा मेरी नज़र 'अपनी धरती,अपने लोग' पर पड़ी और उसे खोलते ही जिस तरह की भाषा मुझे दिखी,उससे मैं सहज ही आकर्षित हो गया.यह राम विलास शर्मा की आत्मकथा के तीन खण्डों का पहला भाग था.मैं लेखक के नाम से पहले से ही परिचित था,चूंकि वे हमारे बैसवारा के ही रहनेवाले थे,इसलिए उनकी आत्मकथा पढने में अतिरिक्त रूचि लगी और मैंने उस पुस्तक को ले लिया.हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा व जिन्ना के जीवन के बारे में अमेरिकी लेखक की लिखी पुस्तक ही इससे पहले मैंने जीवनी के नाम पर पढ़ीं थीं !


'मुंडेर पर सूरज' इस आत्मकथा का पहला भाग है,जिसमें लेखक के बचपन से लेकर अध्यापन-कार्य से मुक्त होने तक की अवधि को तफ़सील से बताया गया है.उनका शुरुआती जीवन अपने बाबा के साथ गाँव में बीता और इस दौरान होने वाले अनुभव मेरे लिहाज़ से सबसे ज़्यादा रोमांचकारी रहे क्योंकि उन प्रसंगों को राम विलास शर्माजी ने जस-का -तस धर दिया है .इसमें देशज शब्दों की भरमार  है.जिन शब्दों को मैं भूल-सा रहा था,उन्हें किताब में पाकर निहाल हो उठा.जिस जीवन को मैंने अपने बचपन में जिया था,इतने बरसों बाद लग रहा है कि यह मेरी अपनी ही कहानी है. इस तरह के कुछ अंश यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ.


रसोई के बगल में  छोटी खमसार थी.एक तरफ सौरिहाई जहाँ मेरा जन्म हुआ था,दूसरी तरफ आटा,दाल,चावल,गुड़ रखने की कोठरी;खमसार में एक तरफ बड़ी चकिया ,दूसरी तरफ धान कूटने की  ओखली,उसी के ऊपर दीवाल में घी,तेल की हांडियां रखने का पेटहरा  !

                                                             ***************
कुछ  दिन में बाबा ठीक हो गए और मैं उनके साथ सोने लगा.सोने के पहले घुन्घूमनैयाँ करते थे .चित लेटकर पैर मोड़ लेते थे,उन पर मुझे लिटाकर घुटने छाती की तरफ़ लाते,फिर पीछे ले जाते. इस तरह झूला झुलाते हुए गाते जाते थे,घुन्घूमनैयाँ ,खंत खनैया ,कौड़ी पइयां,गंग बहइयां...और अंत में पैरों पर मुझे उठाते हुए  कहते थे,बच्चा का बिहाव होय,कंडाल  बाजे भोंपड़ प पों,पों !


इस तरह और भी कई जगह रोचक और जीवंत-प्रसंग हैं. कथरी,नहा ,पगही,चीपर,अंबिया,कुसुली गड़  आदि न जाने कितने शब्द हैं जो बैसवारे में ही बोले और सुने जाते हैं! इस तरह उन्होंने हचक के अवधी व बैसवारी शब्दों का प्रयोग किया है.


राम विलास शर्मा जी की ख्याति एक आलोचक के रूप में ही ज़्यादा रही,इसलिए भी आम पाठक उन्हें अधिक नहीं पढ़ या जान पाया.कहते हैं कि निराला के बारे में  जितनी प्रामाणिक जानकारी  शर्माजी के पास थी,शायद ही किसी के पास रही हो.वे अपने लखनऊ -प्रवास के दौरान निरालाजी के संपर्क में आये और उनकी गाढ़ी दोस्ती हो गयी.वे निराला के गाँव गढ़ाकोला(उन्नाव) भी गए थे.निरालाजी ने कई बार उनको मानसिक सहयोग दिया,जिसका उन्होंने पुस्तक में जिक्र भी किया है.'तुलसी' के बारे में भी राम विलास जी ने ख्याति पायी है.इन्होंने निराला और तुलसी पर अलग से काफी-कुछ लिखा है !आलोचना के क्षेत्र में राम चन्द्र शुक्ल के बाद उस समय के आलोचकों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है.


महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्माजी के गाँव आस-पास ही थे,यह मेरा सौभाग्य है कि  मेरा गाँव भी इन दोनों विभूतियों से बहुत दूर नहीं है ! दिल्ली में रहते हुए भी शर्माजी से मिल नहीं पाया ,इसकी टीस ज़रूर हमेशा रहेगी !

पुस्तक पढने के दौरान ही यह जाना कि शर्माजी का जन्मदिन दस अक्टूबर को पड़ता है,संयोग से आज वही दिन है और  ख़ास बात यह है कि  यह उनके जन्मशती-वर्ष की शुरुआत का दिन भी है !इस नाते भी हमें उनको,उनके किये गए कामों को याद करना ज़रूरी है.उस महान आलोचक और लेखक की याद को शत-शत नमन ! 


 



6 अक्तूबर 2011

स्टीव जॉब्स : तकनीक का जादूगर !

अभी थोड़ी देर पहले खबर आई कि दुनिया को अपने  अद्भुत उत्पाद से चमत्कृत करने वाले स्टीव जॉब्स नहीं रहे.हिंदुस्तान के लोग उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते पर 'एप्पल' की वज़ह से जितना जानते हैं उससे ज्यादा की शायद ज़रुरत भी नहीं है.

'एप्पल' के मैकबुक,आइ-पॉड  ,आई-पैड और आई फ़ोन'  की पहुँच से आम भारतीय भले बाहर रहा हो लेकिन इन सभी के प्रति दीवानगी सबमें रही है.'एप्पल' के स्टोर अब भारत में भी कई जगह  हैं और इन्हें न ले पाने वाले भी इसके चमत्कारी और जादुई अनुभव के गवाह हैं.इन उत्पादों में लगातार बाज़ार के दबाव के चलते समय-समय पर ज़रूरी बदलाव हुए  हैं ,कीमतें भी कुछ कम हुई हैं ! नई पीढ़ी इन्हें हाथोंहाथ ले रही है.इन सभी उत्पादों का अनुभव बिलकुल परीलोक में विचरण करने जैसा लगता है.जिस भी तकनीक-पसंद ने एप्पल का कोई उत्पाद एक बार देख लिया,अनुभव कर लिया वह देर-सबेर उसे ज़रूर लेगा,ऐसी ललक पैदा करने वाले थे स्टीव जॉब्स  !

स्टीव अपने स्वास्थ्य को देखते हुए थोड़े दिन पहले ही कंपनी के जिम्मेदार पद से मुक्त हो गए थे,जिससे यह भी पता चलता है कि उनके लिए प्राथमिकता में केवल 'एप्पल' का उनका सुनहरा-प्रोजेक्ट था.उन्होंने अपने रहते एप्पल में  लगातार आवश्यक परिवर्तन किये और उसे अपनी तरह का अनूठा ब्रांड बना दिया.ज्यादा कीमतों की आलोचना पर वो कहते थे कि उनके 'टारगेट' में आम लोग नहीं बल्कि ख़ास लोग हैं ! केवल बिक्री बढ़ाना ही उनका उद्देश्य नहीं था.


आज उनके न रहने पर तकनीकी क्षेत्र का एक महारथी और जादूगर चला गया.उनको हार्दिक श्रद्धांजलि !

स्टीव के मित्र उनके बारे में अब क्या कहते हैं ,देखें यह लिंक !

उनके  बारे में और जानें हिंदी विकिपीडिया से :


स्टीव पॉल "स्टीव" जाब्स (जन्म फरवरी २४ ,१९५५) एक अमेरिकी बिजनेस टाईकून और आविष्कारक हैं.
वे एप्पल इंक के सह-संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे. अगस्त २०११ में उन्होने इस पद से त्यागपत्र
दे दिया। जाब्स पिक्सर एनीमेशन स्टूडियोज के मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी रह चुके हैं। सन २००६ में वह
दी वाल्ट डिज्नी कम्पनी के निदेशक मंडल के सदस्य भी रह चुके हैं, जिसके बाद डिज्नी ने पिक्सर का अधिग्रहण
कर लिया था. १९९५ में आई फिल्म टॉय स्टोरी में उन्होंने बतौर कार्यकारी निर्माता काम किया था.

परिचय

कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल फोन बनानी वाली कंपनी एपल के भूतपूर्व सीईओ और
जाने-माने अमेरिकी उद्योगपति स्टीव जॉब्स ने संघर्ष करके जीवन में यह मुकाम हासिल किया है। कैलिफोर्निया के सेन फ्रांसिस्को में पैदा हुए स्टीव को पाउल और कालरा जॉब्स ने गोद लिया था। जॉब्स ने कैलिफोर्निया में ही पढ़ाई की। उस समय उनके पास ज्यादा पैसे नहीं होते थे और वे अपनी इस आर्थिक परेशानी को दूर करने के लिए गर्मियों की छुट्टियों में काम किया करते थे। वे लम्बी बीमारी के बाद ०५/१०/२०११ को हमारे बीच नहीं रहे !
1972 में जॉब्स ने पोर्टलैंड के रीड कॉलेज से ग्रेजुएशन की। पढ़ाई के दौरान उनको अपने दोस्त के कमरे में जमीन पर सोना पड़ा। वे कोक की बोतल बेचकर खाने के लिए पैसे जुटाते थे और पास ही के कृष्ण मंदिर से सप्ताह में एक बार मिलने वाला मुफ्त भोजन भी करते थे। आज जॉब्स के पास करीब 5.1 मिलियन डॉलर की संपत्ति है और वे अमेरिका के 43वें सबसे धनी व्यक्ति थे। जॉब्स को कंप्यूटर से लेकर पार्टेबल डिवाइसिस के 230 से अधिक एप्लिकेशन के इनवेंटर या को-इनवेंटर के तौर पर जाना जाता है।

साभार :विकिपीडिया





3 अक्तूबर 2011

कुछ मन से ,कुछ बेमन से !

कई दिनों से मन उचाट-सा है.विषय बहुत हैं लिखने को पर लगता है जो 'तड़प' है उसमें कहीं कुछ कमी आ गयी है.ऐसा क्यों होता है अब? पहले पढने से मन विरत हुआ और अब लिखने से ! यह निरा काहिलपना नहीं तो क्या है ? किताबें लेना ,उन्हें निहारना और खरीदना मुझे अब भी अच्छा लगता है,पर उन किताबों में भी उसी तरह धूल ठहरी हुई है जैसे मेरे दिमाग में !

फिर भी ,प्रवीण पाण्डेय की यह पोस्ट   पढ़कर करीब दस साल बाद दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी गया और  पुनः सदस्य बना.अज्ञेयजी की आत्मकथा 'शेखर एक जीवनी' पढने की इच्छा बहुत दिनों से थी,पर वह उस समय वहाँ भी न मिली.अचानक हिंदी के प्रसिद्द आलोचक राम विलास शर्मा की आत्मकथा 'अपनी धरती अपने लोग' दिखाई दी और मैंने उसे तुरत लपक लिया .यह तीन खण्डों में है जिसका शुरूआती भाग अभी पढ़ रहा हूँ.शर्माजी हमारे बैसवारा के ही रहने वाले थे ,इसलिए इसमें अतिरिक्त दिलचस्पी हुई.वास्तव में बेहद रोचक और देसज-शब्दों की प्रचुरता लिए हुए यह पुस्तक बहुत रुचिकर लग रही है .इसके बारे में फिर कभी विस्तार से !


इस बीच मेरे परम सुह्रद डॉ.अरविन्द मिश्र  कई बार मुझे नई पोस्ट के लिए प्रेरित कर रहे थे,मुझे अपना लेखकीय-धर्म याद दिला रहे थे,सो अपने मन को सान पर चढ़ाकर पैना करने की कोशिश में जुट गया ! पुरानी डायरियों के पन्ने उलटे,तो कई रचनाएँ  आज मुझे बड़ी हलकी लगीं,फिर भी झाड़-पोंछकर जो बच रहा ,वह आपके  रूबरू है !


                                          आ  जाओ तुम 

साँस आखिरी,आस आख़िरी,
आ  जाओ तुम ,सलाम आख़िरी !


ये निगाहें,तुम्हें ही ताकतीं,
स्याह ज़िन्दगी में,रोशनी -सी झांकती,
थक गया हूँ मैं,इंतज़ार में,
पी रहा हूँ ये, जाम आख़िरी !!

मिल नहीं सके, तो ना सही,
तमन्ना भी अब,और ना रही,
तन की नहीं,प्यास नज़र की,
बुझा जाओ तुम,है काम आख़िरी !!

ज़ुदा जो रहे ,अब तलक मुझसे,
कुछ भी नहीं  हैं,शिकवे-गिले तुमसे,
कर रहा हूँ अर्ज़,तसलीम तो करो,
मान जाओ तुम ,है  कलाम  आख़िरी  !!

साँस  आखिरी ,आस आख़िरी,
आ जाओ तुम ,सलाम आख़िरी !!


रचना काल : १०/१०/१९८९  ,फतेहपुर 


अगर यह बेमतलब लगे तो हमारी पसंद की यह ग़ज़ल तो सुन ही लो ,मुन्नी बेग़म की दिलकश आवाज़ में !