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18 अक्तूबर 2011

अच्छा लगता था !

घर की डेहरी  पर 
घंटों बैठे 
बिना काम के 
अम्मा से चिज्जी की फ़रमाइश करते 
झूठ-मूठ का रोना रोते 
मांगें अपनी पूरी करवाना 
अच्छा लगता था!

छोटी-सी गप्पी में 
कंचों को लुढकाना
ऐंठ मारकर 
बड़ी दूर से टिप्पा साधे 
हर बाज़ी चाहते जीतना
अपने कंचों की थैली को 
रोज़ बढ़ाते ही रहना 
अच्छा लगता था !

डंडे पर गुल्ली को रखकर 
दूर भगाते और लपकते 
रात को चाँद  की निगरानी में 
अपने कई दोस्तों के संग 
पाटा लगे हुए खेतों पर 
भुरभुर माटी की छाती पर 
दौड़ लगा झाबर* खेलना
अच्छा लगता था !

आमों की बगिया में 
ढेला लेकर आम टीपना 
झुकी हुई डाली को कसकर 
और झुकाना उसे हिलाना 
जामुन को भी आँख दिखाना 
चोरी से अमरुद तोड़ना
गोल बनाकर बेर गिराना   
अच्छा लगता था !

कतकी के मेले में जाना,
पूड़ी,रबड़ी खूब उड़ाना,
भइया* की उंगली  पकड़े
डमरू और पिपिहरी लेना,
पट्टी और जलेबी खाना 
बैलों की गाड़ी में चढ़कर 
चलत बैल को अरई मारना  
अच्छा लगता था !!

खेतों की मेड़ों पर सरपट 
नंगे पाँव भागते जाना ,
गन्ने के खेतों में घुसकर 
गन्ने का हर पोर चूसना ,
बित्ते भर का झाड़ चने का 
जड़ से उखाड़ कर ख़ूब छीलना
अच्छा लगता था !



झाबर*=पकड़ा-पकड़ी का खेल, भइया*=अपने पिताजी को हम यही कहते हैं 



35 टिप्‍पणियां:

  1. जाने कहाँ गये वो दिन ...
    बहुत सुन्दर!

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  2. भाई हमें भी यह सब अच्छा लगता था .....आज भी जब गाँव जाता हूँ तो बाजी मार ही लेता हूँ .....क्या आनंद आता है जब मैं बच्चा हो जाता हूँ .....!

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  3. पढकर बहुत अच्छा लगा भी. थोडा बहुत तो पढते हुए भी फील हो ही गया :)

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  4. मुझे तो आज भी अच्छा लगता है जब भी मौका मिलता है आपके कहे शब्द सच कर देता हूँ।

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  5. यह सब अच्‍छा, सबको अच्‍छा लगता है.

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  6. @ अपने कंचों की थैली को
    रोज़ बढ़ाते ही रहना ....

    सीधा अपने गाँव ही पंहुचा दिया आपने ....
    गज़ब का लिखते हो ...
    चिज्जी,गप्पी ,अरई ...बरसों बाद सुने हैं ! आभार आपका महाराज !

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  7. वाह क्या कहने ,जैसे अतीत एक झटके से सामने आ मुंह बिराने(*चिढाने ) लगा :)
    वह रजा झबरिया क झाबर ,वो पाटे वाले खेत का डुडुआ ,
    वह कंचों का खजाना .....वह मेले की खरीददारी ...
    आपने तो एक युग साकार कर दिया कविता के जरिये ...
    मैं गृह विरही हो उठा हूँ....और मटर के खेत की वह मटरगश्ती ? :)
    कितने संयोग ...मैं भी पिता जी को भईया ही कहता रहा ..
    और उन्ही की दिलाई आदत से मेहंदी हसन को सुनना शुरू किया
    कितनी बातें समान हैं हममें आपमें -आखिर ये चक्कर क्या है ?

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  8. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||

    बधाई स्वीकारें ||

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  9. आपका बचपन में उतर जाना हमें अच्छा लगता है।

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  10. टिपियाने और उत्साह बढ़ाने वाले सभी साथियों का ह्रदय से आभार !


    @Arvind Mishra महाराज जी ,आपसे ही थोड़ी प्रेरणा ले रहा हूँ.कभी-कभी जोशिया जाता हूँ !

    पिताजी को भइया कहना,मेहंदी हसन को सुनना,ख़ूब बातें करना,फटे में टाँग अड़ाना और हाँ ग़लती से ब्लॉगरी कर लेना जैसी कुछ साम्यताएँ बताती हैं कि रिश्ते ऐसे भी बन जाते हैं !

    @ प्रवीण पाण्डेय सही कह रहे हो. बचपन में सहज था,जवानी को समझ न पाया और बुढ़ापे में संभल न पाया !!

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  11. ई मेल पर चुपके-से मिली 'डरपोक' Indu Puri की यह टीप :

    अपने बचपन में पहुँच गई मैं तो.कंचे खूब खेले मैंने भी.गुल्ली डंडा खेलना कभी नही आया. पांच फीट की दूरी तक भी न मार सकी कभी खेल के नाम पर फिसड्डी थी पर.... आम,इमली जंगल जलेबियों को पत्थर मार कर खूब तोड़े मैंने.आज सब जैसे आँखों के सामने से गुजर गया.
    एक बार पढ़ो तो कुछ जगन मात्राए सही नही लगी है.देख लो एक बार.
    कविता सचमुच अच्छी है.बचपन की बाते जो है इसमें.यूँ............ अब भी किसी बच्चे से कम नही तुम बाबु!

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  12. आदरणीया इंदु जी ! ये चुपके से मेल पर टीप ठेलना बंद करो.लो,अबकी बार मैंने प्रकाशित भी कर दिया.

    जो ग़लतियों की बात आप कह रही हैं ,जैसे 'चलत' तो इसे जानबूझकर रखा गया है.आप भी मेरी तरह बचपन में शैतान थीं,यह भी जानकारी मिल गई !

    सादर !

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  13. @कोई मुझे यह रहस्य समझायेगा (आप ही कोशिश करिए न ) कि आखिर इंदु पुरी जी दिल्ली वालों पर ही क्यूं इतना मेहरबान रहती रही हैं बनारस में क्या सब मुर्दे रहते हैं एक बार भी ,जी हाँ एक बार भी आँख उठा के नहीं देखा जबकि मैं इनकी दरियादिली (यहाँ भी दिल्ली ही है ) के किस्से सुन सुन कर पक गया हूँ :)

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  14. @ Arvind Mishra इंदुजी की कृपा-द्रष्टि पाने का सौभाग्य मुझे मिला,इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ !

    और हाँ,शिव की नगरी में तो आप रहते हैं पर तीसरा नेत्र इंदुजी के पास है और वे दिल्ली,बनारस सब देख लेती हैं ,इसलिए बचे रहिएगा !

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  15. ई सब बेकार है ......ई तो अइसन है कि .....

    अरे अरे डरिये नहीं आपसे दिल्ली छोड़कर हियाँ गाँव में आवै का ना कहिबे ............सो कविताई जारी रहे, यादें कर्म जारी रहे !!!

    मौज लेने का हक आपै का नहीं है महाराज !


    @अरविन्द जी......हांडी उतार लीजिए.....जब मालूम है कि पक गयी है .....जलन की खुशबू प्यारी हो ...तो और बात है .......
    :-)

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  16. कंचे लट्टू गिल्ली डंडा ... आज टॉप बचपन में लौटा ले गए आप ... लाजवाब रचना है ...

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  17. बचपन की यादें ...हमेशा ही अच्छी लगती हैं ... सुन्दर प्रस्तुति

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  18. @प्रवीण त्रिवेदी,
    ई बीरबल की हांडी है ..अभी नहीं पकी खिचडी ..आलमपनाह का इंतज़ार है :)

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  19. चलिए, आपकी कविता के बहाने हम भी अपने बचपन में दुबकी लगा आये. बहुत खूब.
    झाबर के बारे में पता चला.
    हमारे एक मौसेरे भाई अपने पिताजी को जीजा कहते हैं. वो क्या है न कि उनकी सभी मौसियाँ उनके पिताजी को जीजा कहती रहीं तो वही उनकी जुबान पर चढ़ गया.
    लेकिन हमारा बचपन गाँव में इतना नहीं बीता इसलिए बहुत सी चीज़ों का अनुभव लेने का मन अभी भी करता है.

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  20. अच्‍छा तो अब भी यही लगता है
    पर मौका कब किसको कहां मिलता है
    अभी इसमें छिपन छिपाई
    खो खो, स्‍टापू टापना
    वगैरह रह गए हैं
    इस कविता की अगली कड़ी की इंतजार है संतोष भाई
    आपने तो इतना लिखकर ही संतोष कर लिया
    पर हमें असंतोषी कर दिया।

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  21. @ प्रवीण त्रिवेदी मौज लीजिये महाराज आप भी ! अब रजाई छोड़ के तनी बाहर निकल आव...फिर मजा लेव !

    @निशांत गाँव का रहने का सुख अलग ही है,वह भी बचपन में !

    @ नुक्कड़ अब आप ही पूरा कर दें ! हमें तो संतोष है !

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  22. बहुत सुन्दर लगा ! दिलचस्प प्रस्तुती!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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  23. एक शरारती पर मासूम सा बच्चा तुम मे जीता है बाबु!
    वो बार बार उन गलियों मे चला जाता है और .......हमे भी आवाज दे के बुला लेता हैं.यही मासूमियत तुम्हारे व्य्कतित्त्व की विशेषता है.जो तुम्हे अलग सा बना देती है कईयों से.इस बच्चे को कभी बड़ा मत होने देना....अब तो इतने सालों बाद वो बड़ा हो भी नही सकता.
    अपने सपनों की दुनिया मे ही सही वो इसी तरह खेलेगा,भैया की अंगुली पकड़े मेले मे घूमेगा. पर.......अब भीड़ मे उसके खो जाने का डर नही.जियो बाबु!

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  24. इंदु जी ,आप ब्लॉग-जगत की शेरनी हैं और इसी भरोसे आपकी शरण में हूँ.आपका आशीर्वाद मिल जाना परम सौभाग्य है.
    मैं कभी बड़ा बनना भी नहीं चाहता...!

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  25. अम्मा से चिज्जी की फ़रमाइश करते
    झूठ-मूठ का रोना रोते
    मांगें अपनी पूरी करवाना
    अच्छा लगता था!
    बचपन की यादें ...हमेशा ही अच्छी लगती हैं ... सुन्दर प्रस्तुति

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  26. खेतों की मेड़ों पर सरपट
    नंगे पाँव भागते जाना ,
    गन्ने के खेतों में घुसकर
    गन्ने का हर पोर चूसना ,
    बित्ते भर का झाड़ चने का
    जड़ से उखाड़ कर ख़ूब छीलना
    अच्छा लगता था !

    बचपन की बात कुछ और होती है !!

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  27. काश के वे दिन फिर फिर लौट आते। अब तो बस आपाधापी है और बेमतलब की दौड़ भाग।

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  28. बचपन हर ग़म से बेगाना होता है

    कुछ ऐसा ही सतीश पंचम जी भी लिखे रहे

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  29. शानदार..जानदार..बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें। बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर। अफसोस कि देर से आया। मैं तो वर्षों से यादों में खोया हूँ...34 पोस्ट लिख डाली पर अभी बचपना गया नहीं। अच्छा लगता है बचपन की यादों को सहेजना। उससे भी अच्छा लगता है अपनी जैसी यादों को पढ़ना।
    आज के आनंद की जय।

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  30. @ बी एस पाबला हमारी पीढ़ी के अधिकतर लोगों की पृष्ठ-भूमि गाँव की है,सो ऐसे भाव लगभग सबके पास हैं.कोई कहता है,कोई याद करता है !

    @देवेन्द्र पाण्डेय सबसे बड़ी निधि है,बचपन का गायब न होना.असली जिंदगी वही थी ,जिसे रह-रह कर स्मृतियों में ही जी लेते हैं पर नई पीढ़ी को वह भी नसीब न रहा...!

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  31. बसवारी का कोई और कोना दिखाईये अब

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  32. सुंदर!
    वे दिन अब न रहे। कोई लौटा दे...।
    डँणवार फाँदने का जिक्र नहीं आवा। उहौ तौ ‘अच्छा लगता था न!’ :))

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