जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो,
कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे !'
मुन्नी बेगम की गायी हुई एक ग़ज़ल का यह शेर पिछले दो दिनों से बरबस याद आ रहा है! डॉ.अमर कुमार के जाने का तरीका कुछ ऐसा ही रहा.उनके बहुत नजदीकियों को भी कुछ अहसास जब तक होता ,तब तक वे अपनी महायात्रा पर निकल चुके थे !उनके दैहिक अवसान के बाद पूरे ब्लॉग-जगत में स्तब्धता छा गयी और बड़े पैमाने पर हर किसी ने उन्हें अपने ढंग से याद किया.
मेरा उनका संपर्क बहुत कम रहा.न मैं उनको ज्यादा पढ़ पाया,न सुन पाया और न जान पाया! जब पहली और आखिरी बार बारह अगस्त को उनसे मिला था तो सोच रखा था कि डॉ. साहब से बहुत बातें करूँगा,टीपों में उनकी मारक-शैली का राज जानूँगा,पर उनकी दशा ऐसी न थी कि उन्हें सुना जाय,इसलिए मैंने ही अपनी तरफ से उनसे संवाद ज़ारी रखा था.वे बीमार ज़रूर थे,पर निश्चय ही मन के सारे भाव उनकी आँखों में देखे जा सकते थे.वे जीवन के प्रति निराश भी नहीं दिखे!
उनको नजदीक से जानने वाले और उनका दिया 'संताप' झेलने वाले डॉ. अरविन्द मिश्र , अनूप शुक्ल ,फुरसतिया और अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी से हुई बातों से ही उनके बारे में थोडा-बहुत जान पाया .वे शायद पहले ऐसे शख्स थे जो किसी को अपनी तंज-टीप से उकसाते थे और घोषित-अघोषित आलोचना भी सहते थे ! उनमें अपने दोस्तों और लिक्खाड़ लोगों को पहचानने की अद्भुत क्षमता थी.अनूप जी कहते हैं कि जब कोई उनकी टीप से 'आहत' होकर कोप-भवन में बैठा होता हो तब डॉ. साहब ऐसी गुदगुदी मचाते कि वह बरबस ही सहज हो जाता.शुक्ल जी के शब्दों में,'संवादहीनता को ख़त्म करने की उनकी 'साज़िश' सफल हो जाती थी'!ऐसे कई लोग अब उनके जाने के बाद निश्चित ही फडफडा रहे होंगे !मुझे तकलीफ है कि उस 'संताप' का दंश मुझे नहीं मिल पाया !
उनको जो भी थोडा बहुत मैं समझ पाया उससे एक बात ज़रूर नुमाया होती है कि इस 'अंतरजाल' को उन्होंने अपने लेखन से तो सजाया ही,पूरी तरह जिया भी.केवल लिखते रहना ही उनका उद्देश्य नहीं था.लिखने के साथ उन्होंने जीने को 'मिक्स' कर रखा था.उन्होंने कोई हास्य नहीं लिखा,वरन वे संजीदा बात को हास्य की चाशनी में लपेट देते थे .अब यह स्वाद लेने वाले के ऊपर निर्भर था कि वह चाशनी का ले या असली माल का !
डॉ. साहब को मैंने 'इंसानी-ब्लॉगर' कहा है क्योंकि वे दिल से लिखने और मिलने वाले व्यक्ति थे! अवधी और बैसवारी में उनका लेखन अनूठा और आकर्षक था.वे अपनी दो-या तीन शब्दों की टीप से बहुत कुछ कह देते थे. मेरी एक पोस्ट 'सरकार का प्रेसनोट' में उन्होंने अपने अंदाज़ में 'जउन हुकुम हाकिम' टीप कर उसका सारा 'पानी' उतार दिया था.कई लोगों ने उनको समझने में देर लगाई ,पर डॉ.साहब अपना 'शिकार' जल्द पहचान लेते थे. एक देशी कहावत के अनुसार वे चलत बैल क अरई मारै वाले किस्म के मनई रहे !उनकी सबसे बड़ी सम्पदा उनकी 'कोचन-शैली' और दोस्ताना मिजाज़ था.
इस 'अंतर्जाल' में लिखने-लिखाने वाले लोग तो बहुतायत में हैं,पर मिलने -मिलाने वालों की गिनती बहुत कम है.डॉ. साहब के जाने पर यह संकट और गहरा गया है.उनको याद करने का सबसे बढ़िया तरीका यही है कि उनकी बनाई लकीर पर चला जाये !
डॉ. साहब ,आप तो चले गए पर हम मरीजों को नीम-हकीमों के लिए छोड़ गए !
फिलहाल के लिए,
तुम इतना छोड़ गए हो अपने पीछे,
भूख मिटाते चले चलेंगे सदियों-सदियों !
कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे !'
मुन्नी बेगम की गायी हुई एक ग़ज़ल का यह शेर पिछले दो दिनों से बरबस याद आ रहा है! डॉ.अमर कुमार के जाने का तरीका कुछ ऐसा ही रहा.उनके बहुत नजदीकियों को भी कुछ अहसास जब तक होता ,तब तक वे अपनी महायात्रा पर निकल चुके थे !उनके दैहिक अवसान के बाद पूरे ब्लॉग-जगत में स्तब्धता छा गयी और बड़े पैमाने पर हर किसी ने उन्हें अपने ढंग से याद किया.
मेरा उनका संपर्क बहुत कम रहा.न मैं उनको ज्यादा पढ़ पाया,न सुन पाया और न जान पाया! जब पहली और आखिरी बार बारह अगस्त को उनसे मिला था तो सोच रखा था कि डॉ. साहब से बहुत बातें करूँगा,टीपों में उनकी मारक-शैली का राज जानूँगा,पर उनकी दशा ऐसी न थी कि उन्हें सुना जाय,इसलिए मैंने ही अपनी तरफ से उनसे संवाद ज़ारी रखा था.वे बीमार ज़रूर थे,पर निश्चय ही मन के सारे भाव उनकी आँखों में देखे जा सकते थे.वे जीवन के प्रति निराश भी नहीं दिखे!
उनको नजदीक से जानने वाले और उनका दिया 'संताप' झेलने वाले डॉ. अरविन्द मिश्र , अनूप शुक्ल ,फुरसतिया और अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी से हुई बातों से ही उनके बारे में थोडा-बहुत जान पाया .वे शायद पहले ऐसे शख्स थे जो किसी को अपनी तंज-टीप से उकसाते थे और घोषित-अघोषित आलोचना भी सहते थे ! उनमें अपने दोस्तों और लिक्खाड़ लोगों को पहचानने की अद्भुत क्षमता थी.अनूप जी कहते हैं कि जब कोई उनकी टीप से 'आहत' होकर कोप-भवन में बैठा होता हो तब डॉ. साहब ऐसी गुदगुदी मचाते कि वह बरबस ही सहज हो जाता.शुक्ल जी के शब्दों में,'संवादहीनता को ख़त्म करने की उनकी 'साज़िश' सफल हो जाती थी'!ऐसे कई लोग अब उनके जाने के बाद निश्चित ही फडफडा रहे होंगे !मुझे तकलीफ है कि उस 'संताप' का दंश मुझे नहीं मिल पाया !
उनको जो भी थोडा बहुत मैं समझ पाया उससे एक बात ज़रूर नुमाया होती है कि इस 'अंतरजाल' को उन्होंने अपने लेखन से तो सजाया ही,पूरी तरह जिया भी.केवल लिखते रहना ही उनका उद्देश्य नहीं था.लिखने के साथ उन्होंने जीने को 'मिक्स' कर रखा था.उन्होंने कोई हास्य नहीं लिखा,वरन वे संजीदा बात को हास्य की चाशनी में लपेट देते थे .अब यह स्वाद लेने वाले के ऊपर निर्भर था कि वह चाशनी का ले या असली माल का !
डॉ. साहब को मैंने 'इंसानी-ब्लॉगर' कहा है क्योंकि वे दिल से लिखने और मिलने वाले व्यक्ति थे! अवधी और बैसवारी में उनका लेखन अनूठा और आकर्षक था.वे अपनी दो-या तीन शब्दों की टीप से बहुत कुछ कह देते थे. मेरी एक पोस्ट 'सरकार का प्रेसनोट' में उन्होंने अपने अंदाज़ में 'जउन हुकुम हाकिम' टीप कर उसका सारा 'पानी' उतार दिया था.कई लोगों ने उनको समझने में देर लगाई ,पर डॉ.साहब अपना 'शिकार' जल्द पहचान लेते थे. एक देशी कहावत के अनुसार वे चलत बैल क अरई मारै वाले किस्म के मनई रहे !उनकी सबसे बड़ी सम्पदा उनकी 'कोचन-शैली' और दोस्ताना मिजाज़ था.
इस 'अंतर्जाल' में लिखने-लिखाने वाले लोग तो बहुतायत में हैं,पर मिलने -मिलाने वालों की गिनती बहुत कम है.डॉ. साहब के जाने पर यह संकट और गहरा गया है.उनको याद करने का सबसे बढ़िया तरीका यही है कि उनकी बनाई लकीर पर चला जाये !
डॉ. साहब ,आप तो चले गए पर हम मरीजों को नीम-हकीमों के लिए छोड़ गए !
फिलहाल के लिए,
तुम इतना छोड़ गए हो अपने पीछे,
भूख मिटाते चले चलेंगे सदियों-सदियों !