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31 जुलाई 2011

'स्लटवाक' के पैरोकार !


इधर हालिया दिनों में 'स्लटवाक' की चर्चा मीडिया के ज़रिये खूब हो रही है ।सरसरी तौर पर इसका मतलब लोग यह समझाते हैं कि यह नारीमुक्ति का एक आन्दोलन है !कहते हैं यह शब्द अपनी सोच को पश्चिम से लाया है जहाँ पर किसी महिला को उसकी असुरक्षा के लिए कम कपड़ों का होना बताया गया है.अर्थात ,यदि कोई लड़की या औरत कम वस्त्रों में सड़क पर निकलेगी तो उसके साथ  छेड़छाड़ की  आशंकाएं बढ़ जाती हैं.आधुनिकता और विकास के ज़माने में ऐसी बात कहना मूर्खता कही जा सकती है.भाई,जिस प्रकार पुरुष अपने वस्त्रों का चयन कर सकते हैं ,किसी  स्त्री से उसका यह अधिकार कैसे छीना जा सकता है ?

क्या यह बात इतनी सीधी है जितनी लगती है?इसमें लोगों को सहज ही पुरुषवादी सोच नज़र आती है,पर गौर से देखा जाये तो आज समाज के सोच के दायरे बहुत छीज रहे हैं.किसी लड़की को पूरा हक है कि वह अपनी मनपसंद ड्रेस पहने,पर साथ ही बिना सामाजिक परिवेश को समझते हुए केवल अपनी पसंद को आधार बनाना कई बार ग़लत भी हो सकता है.सुन्दर और स्वतंत्र दिखने के लिए ज़रूरी नहीं है कि न्यूनतम कपड़ों में सड़क पर टहला जाए!आख़िर घर के अन्दर की पोशाक  और बाहर में  पुरुष भी अंतर रखते हैं और होना भी चाहिए !

एक बात इस 'कुलटा चाल '(माफ़ कीजिये,कुछ लोगों ने इसका हिंदी अनुवाद किया है) के समर्थक कह रहे हैं कि इस 'सोच' का विरोध जताने के लिए वो भी रैम्प पर 'न्यूनतम' हो जायेंगे.हो सकता है,कल ऐसे लोगों के लिए पूनम पांडे का कदम भी आधुनिकता का पर्याय लगे.आखिर,बिग-बॉस जैसे फूहड़ कार्यक्रम चल ही रहे हैं.ये भी अपने प्रकार की स्वतंत्रता है !

क्या जिस तरह हम मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाने व खुलेआम रति-प्रसंग को अपनी निजता बता सकते हैं ?भड़काऊ कपड़ों को अपनी आज़ादी का प्रतीक कह सकते हैं ,खुले-आम सिगरेट,शराब पी सकते हैं? जिस तरह अन्य घटनाएँ किसी और की निजता का उल्लंघन करती हैं उसी प्रकार उत्तेजक कपड़े पहनना भी ग़लत है और ख़ास बात यह है कि यह सब 'टार्गेट' करके किया जाता है,पर ख़राब तब लगता है,जब टार्गेट दूसरा बन जाता है !क्या हम फिल्म के दृश्यों को सार्वजनिक जीवन में भी आजमा सकते हैं? ज़ाहिर है,उस तरह के दृश्य महज़ मनोरंजन के लिए और परदे के लिए बने हैं.

सबसे ज़्यादा नारी का शोषण इलेक्ट्रोनिक मीडिया,प्रिंट मीडिया के द्वारा हो रहा है.आप या हम पुरुषों के डियो या चड्डी-बनियान के विज्ञापन कितनी सहजता से देख लेते हैं! इसमें स्त्री अपना भरपूर प्रदर्शन करती है पर  इसके लिए किसी 'मार्च' या 'वाक' की ज़रुरत किसी ने नहीं समझी.यह देह-शोषण का खुला व्यापार है और मज़े की बात है कि इसमें शोषित होने वाला भी खुश है.इस तरह का प्रचलन हमारे नैतिक मूल्यों को स्खलित कर रहा है,पर यह सब कहने पर हम कट्टरवादी,पुरुषवादी और नारी-विरोधी ठहरा दिए जायेंगे !पुरुष के बिगड़ने से परिवार या समाज उतना प्रभावित नहीं होता,जितना एक नारी के.आखिर कुछ ,अति-सभ्य' नारियों ने इस नज़रिए से इस पहलू को क्यों नहीं देखा ?

'स्लटवाक' को आधुनिकता और शिक्षा के नाम पर,पुरुषवादी मानसिकता कहकर नैतिकता के मूल्यों को दरकिनार करके आख़िर हम क्या पाएंगे,यह अंदाज़ लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है !

23 जुलाई 2011

सैम अंकल ,इतना दबाव ठीक नहीं !


आप तो इस दुनिया के प्रभु-देश हो और अपने भक्तों के लिए आप यह क्या करने जा रहे हैं? आपकी विदेश मंत्री ने अपनी भारत-यात्रा पर हमारे देश का ज़बरदस्त समर्थन किया है! उन्होने हमारे हुक्मरानों को भरपूर आश्वस्त किया है कि वे कतई परेशान न हों,ख़ुद अमेरिका उनकी परेशानी को समझता है और इसलिए वह पाकिस्तान पर आतंकवाद के मुद्दे पर अपना दबाव और बढ़ाएगा!पर इसके उलट  मैं इतना ज़रूर आपसे कहूँगा कि  पाकिस्तान पर अपना दबाव न बढ़ाए नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि आपके  अधूरे काम में ही  बाधा पड़ जाए!

सैम अंकल! आपको अपने आर्थिक हितों के ही बारे में सोचना चाहिए .अगर ज़्यादा दबाव पड़ा तो फिर हथियारों की होड़ ख़त्म हो जाएगी, आपका पाला-पोसा बालक जवान होने से पहले ही निपट जाएगा. वैसे भी 'ओसामाजी' के जाने के बाद वहाँ के रहनुमा भारी सदमे में हैं.इस मौक़े पर यदि भारत के नाम पर उस पर दबाव पड़ा तो आपका 'क्रीड़ा-स्थल' तो पूरी तरह से चौपट हो जाएगा! यह अपील तो हम आपसे आम लोगों की तरफ़ से कर रहे हैं और रही बात हमारी सरकार की तो उसने कभी-भी आपको निराश नहीं किया है.पूर्व में जब भी कुछ हुआ है तो आपको फ़ोन कर या चिट्ठी लिखकर सूचित किया गया है. चाहे संसद पर हमला हो या मुम्बई पर ,हमारी हर सरकार ने आपके हितों की रक्षा की है.इसी परम्परा के निर्वहन हेतु हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप उन्हीं पर ड्रोन  का हमला करें ,जो सीधे आपकी संप्रभुता पर चोट करते हैं!

आशा है,हमारी इस अपील और आग्रह पर आप अमल करेंगे और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे बेचारे पाकिस्तान को अपना 'मूल-धर्म' त्यागना पड़े!


19 जुलाई 2011

मेरा गाँव !

याद बहुत आते हैं हमको महुआ, गूलर, आम !
गलियारे,पगडंडी,बरगद,जीवन के थे नाम !!  

गौरैया आ पास बैठती,कौआ लाता नित पैग़ाम !
खुला हुआ दरवाजा घर का , रहता आठों याम!!

रोज सबेरे सूरज उगता,अस्त होय हर शाम !
छाया मिलती नीम की ,नहीं करारा घाम !!

सुबह-शाम पनघट में आतीं, चपला और ललाम!
दूर बैठ हम देखा करते दिल को दिए लगाम !!

कहाँ गाँव के लोग गए,खेत और खलिहान !
काका,अजिया,नानी, छूट गए दालान  !!

चिट्ठी आती एक तो, पढ़ते दस-दस बार !
खानापूरी बन गया शहरी पत्राचार !!

ना जाने किस जनम में ,होगा ऐसा प्यार!
दुःख में होते साथ सब,कई-कई मनुहार !!

15 जुलाई 2011

स्थितिप्रज्ञता !

साभार:गूगल बाबा
हम हाथ बाँधे इंतज़ार में हैं,
कोई आयेगा देवदूत
जो हमें
बम,गोली,दहशत से
निज़ात दिलाएगा,
ख़बरों से  अब ख़ुशी गायब है!
केवल ब्लास्ट और ब्रेकिंग है ,
ख़बरें टूट रही हैं,
डराती हैं हमें !
वो अपने मक़सद में कामयाब हैं,
हम आतंकी को क़ैद करके खुश हैं,
आतंक छुट्टा घूम रहा है !
हम अभी भी दूसरों का मुँह ताक रहे हैं,
वो हमारे लिए ड्रोन मारेगा,
हमारी जेब से निकाल कर उनको 
फाँसी के फंदे पर चढ़ाएगा !
और हम
केवल योजनायें बनायेंगे,
व्यवस्था 'चाक-चौबंद'
और मुआवजा राशि बढ़ाएँगे,
पड़ोस में नयी सूची भेजकर
आराम फ़रमायेंगे , 
इस तरह जनता को भरमायेंगे,
क्योंकि
वह हमारी दूसरी जेब में है !

 




12 जुलाई 2011

बदला हुआ मौसम !

अब नींद भी किश्तों की तरह आती है,
सावन की तरह झूम के नहीं आती है !

हम जानते थे उनके दिल में बैठे हैं,
मेरी सूरत  भी उन्हें याद नहीं आती है !

बारिश के महीने में कैसी ये तपिश,
बदले हुए मौसम की तरह आती है!

अब मुझे हँसने की इतनी आदत है,
रोती हुई सूरत को हँसी आती  है !

उनकी हर बात मुझे जँचती  है,
यही बात नहीं उनको नज़र आती है !


7 जुलाई 2011

हमारा रेडियो ला दो !

मेरे जीवन के शुरूआती पचीस साल गाँव के खुले आकाश में खेलते-कूदते बीते.वह खुलापन और वहाँ के सीमित साधनों में भी जिंदगी जीने का मज़ा अब शायद ही मिले !गाँव की दिनचर्या में खेती-पाती से जुड़ना लगभग अपरिहार्य-सा है, मेरा मामला  भी इससे ज़्यादा जुदा नहीं था.ऐसे में पढ़ाई के अलावा समय काटने और मनोरंजन के लिए बाग़-बगीचों की तरफ जाना होता या फिर रेडियो लेकर बैठ जाते थे !

रेडियो एक तरह से हमारा दोस्त बन गया था,जिससे हम सुबह से लेकर सोने तक किसी न किसी रूप में जुड़े रहते थे.सुबह-सुबह ही हम समाचार सुनते और इसमें हमारे पिताजी की भी ख़ासी रूचि थी.इसके बाद तो हम शॉर्ट वेव में आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस से गाने सुनने लगते .इसी तरह यही बैंड साढ़े तीन बजे फिर से फरमाइशी गाने सुनाने लगता.वास्तव में फ़िल्मी गानों का असली क्रेज़ हमें इसी स्टेशन से हुआ !पुरानी  फिल्मों,संगीतकारों और गायकों के बारे में एक तरह से एनसाइक्लोपीडिया का काम किया इसने ! 


साभार:गूगल बाबा
उस समय हम रेडियो में इतने मशगूल हो गए थे कि एक जगह से गाने ख़त्म होते ही दूसरी जगह से सुनने लग  जाते थे.संगीत से भी ज़्यादा समाचार सुनने  का शौक था .लगभग हर समाचार बुलेटिन पर हमारी नज़र रहती और उस समय देश-दुनिया के बारे में मैं बहुत-कुछ जानता था.लखनऊ से प्रादेशिक समाचार , दिल्ली से राष्ट्रीय समाचार और बी.बी.सी .से पूरी दुनिया के समाचारों को चाव से सुनता था.यज्ञदेव पंडित जहाँ प्रादेशिक समाचारों में खूब प्रभावित करते थे ,वहीँ देवकी नंदन पाण्डेय,अशोक बाजपेई ,मनोज कुमार मिश्र ,कृष्ण कुमार भार्गव आदि राष्ट्रीय समाचारों में अपनी जादुई आवाज़ से हमें सम्मोहित करते थे !बीबीसी में ओंकार नाथ श्रीवास्तव,अचला शर्मा,कैलाश बधवार,धीरंजन मालवे,परवेज आलम,राजनारायण बिसारिया आदि को तल्लीन होकर सुनते थे !समाचारों के दौरान पास से गुजरने वाले  दो-चार लोग ज़रूर ठिठक जाते और बुलेटिन ख़त्म होने पर ही जाते ! बीबीसी सुनने के बाद किसी अख़बार को पढने की भूख नहीं रहती थी,न वहाँ इनकी उपलब्धता ही थी.

रेडियो के इन महान पात्रों के अलावा चंद्रभूषण त्रिवेदी'रमई काका' का नाम कैसे भुलाया जा सकता है.वे 'किसानों के लिए' कार्यक्रम में 'मतोले' की भूमिका में बड़े प्रभावी लगते थे !हर रविवार 'बाल-संघ' आता जिसमें बच्चों के मुँह से कविता,चुटकुले सुनाये जाते जो बहुत प्यारे लगते .इस तरह रेडियो ने सीमित साधन होते हुए भी हमारे जीवन के हर अंग में अपना रंग भरा !हमने बहुत ज्ञानवर्धक चीज़ें उससे सीखीं जो आज शहर में असीमित साधनों के होते हुए भी नहीं सीख पाते हैं !


रेडियो के प्रति हमारी दीवानगी का एक किस्सा अभी भी मुझे याद है.बड़े भाई बम्बई से फिलिप्स का नया रेडियो लाये थे.मैं समाचार सुन रहा था तभी किसी काम से उन्होंने मुझे पुकारा.मैंने कहा,हेड-लाइन सुनकर आ रहा हूँ.बस,फिर क्या था? भाईसाहब ने मुझसे  रेडियो  लेकर एक बड़ी ईंट से उसे पूरी तरह से पिचका दिया.इसके बाद पास के  कुएँ  में दे मारा.उन्हें डर था कि थोड़ी-सी भी क़सर रहने पर इसे निकालकर बनवाया जा सकता है.उस दिन मुझे रेडियो पर ,अपने-आप पर बहुत पछतावा हुआ था !

आज शहरों में मोबाइल-रेडियो एफ.एम की शक्ल में ज़िन्दा तो है,पर मीडियम वेव और शॉर्ट वेव के बिना भी कोई रेडियो है? भला  इसमें वो बात कहाँ जो हमारे रेडियो में थी !