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30 दिसंबर 2011

फ्रीडम एट मिडनाइट !

लोकपाल को लेकर किया जा रहा धमाल कुछ समय के लिए थम गया है. कई लोगों को इसके ऐसे हश्र का अंदाज़ा पहले से ही था,फिर भी सत्ता पक्ष द्वारा बार-बार यह कहा जाता रहा कि उन पर ,संसद पर विश्वास नहीं किया जा रहा.ये लोग ही हैं जो बेसुरे और बेसबरे हो रहे हैं.अब जबकि आधी रात को फ़िलहाल इस जिन्न से छुटकारा मिल गया है ,काफी सारे परदे खुले ,मान्यताएं ध्वस्त हुईं व राजनीति अपने असली रंग में आई ! संसद में लोकपाल की हिमायत के बजाय अपने-अपने हितों की वकालत ज़्यादा की गई  ! आम आदमी भौचक्का होता हुआ केवल यह देखता रह गया कि उसके लिए यहाँ कौन बैठा है ? और वे सब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के जश्न में डूबे हुए हैं !


अन्ना जी के आन्दोलन शुरू करने के पहले दिन से ही किसी भी नेता या दल ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया.सब पहले से ही आर टी आई से दुखी थे एक और नई मुसीबत के लिए वे तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल था,इसलिए अन्ना को शुरू में ही उपेक्षित रखा गया.बाबा रामदेव से सौदेबाजी की  गई ,उनको जानबूझकर अन्ना के आगे खड़ा करने की चाल चली गई,फिर उनके साथ क्या किया गया, यह सभी जानते हैं.अन्नाजी के अगस्त-आन्दोलन ने सत्ता के गलियारों में खलबली मचा दी तो सारे दल के नेताओं ने इससे उबरने के लिए गजब की दुरभिसंधियाँ कीं ! टीम अन्ना सहित कई प्रबुद्ध लोग राजनीति की इस चाल से सशंकित थे,फिर भी उन पर भरोसा किया गया.


इस सबके बाद क्या हुआ ,देश ने खूब देखा.इस बीच केजरीवाल,किरण बेदी और यहाँ तक कि अन्ना को भी गरियाया और बदनाम किया गया.संघ और भाजपा से रिश्ते जोड़े गए. कहीं न कहीं सत्ता में बैठे लोग लोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे को भूलकर टीम अन्ना को सबक सिखाने में जुट गए.जो भी इस आन्दोलन का समर्थक बना उसे उसकी भ्रष्टाचार की चिंताओं से हटकर ,संघ के रिश्तों में लपेटने की कोशिशें होने लगीं.संघ क्या देशद्रोही और आतंकवादी संगठन है? उसके साथ जुड़े हुए लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकते ? इस तरह मामले को दूसरा मोड़ देने के पुरजोर प्रयास किये गए.


अन्ना ने अपनी अस्वस्थता और राजनीति के दोगलेपन के चलते जब अनशन खत्म किया तब उनका उपहास  किया गया.संसद में बहस के नाम पर फूहड़ता का बोलबाला रहा.नेताओं को ऑन दि रिकॉर्ड   मज़बूत   लोकपाल चाहिए पर ऑफ दि रिकॉर्ड उसकी राह में हज़ार कांटे बो दिए गए.आम आदमी को बार-बार यह बताया जा रहा था कि लोकतंत्र में संसद सबसे ऊपर है...लोक से भी !


अन्ना जिसके लिए आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं ,वह सरकार का अपना दायित्व है,पर इस पर भी माननीयों को आफत आ रही है..इस प्रजातंत्र की सारी कवायद 'परजा' ने देख ली है.अन्ना को कुछ हासिल हुआ हो या नहीं पर उन्होंने लोकपाल और भ्रष्टाचार को  नए साल का ,अगले चुनावों का अजेंडा ज़रूर बना दिया है !


मोरल ऑफ़ दा स्टोरी " तुम हमसे कितना भी होशियार  हो,पर हमारा जैसा कांईयापन  कहाँ से लाओगे ?"


........चलते-चलते

उनको हक है कि हमें ,ज़िल्लत की जिंदगी दें,
हम न बोलें,न रोयें, यूँ ही मुर्दा पड़े रहें !!

24 दिसंबर 2011

संसद से सड़क तक !

इन खामोश निगाहों से 
मंजिल को जाती राहों से 
होरी,धनिया की आहों से 
अनगिन किये गुनाहों से 

कब तक तुम बच पाओगे,
सभी आदरणीयों से माफ़ी सहित 
कभी सड़क पर तो आओगे !! १!


अपने को ही मार रहे
बनत बड़े हुशियार रहे 
गरम हवा के साथ बहे
कुछौ न करिहौ बिना कहे ?

कब तक घूँघट डाल रखोगे,
कभी तो पनघट पर आओगे !! २!


आग भरी है हमरे दिल मा
रोज कर रहे हम पैकरमा 
चुहल कर रहे तुम संसद मा
कितने छेद कर दिए बिल मा 

तुम किस बिल में घुस पाओगे,
बीच सड़क जब आ जाओगे ? ३!

हमने तो ये सोच रखा है
धीरज को तुमने परखा है 
ताक में गाँधी का चरखा है 
चारा,रबड़ी खूब चखा है 

अब तुम हड्डियां चबाओगे ?
शायद सुकून तब पाओगे !! ४ !






20 दिसंबर 2011

सिल्क जो डर्टी नहीं है !

अपन ने कभी किसी फिल्म की समीक्षा नहीं की और न इस उद्देश्य के साथ कोई फिल्म देखी,पर 'डर्टी पिक्चर' का मामला बिलकुल अलग है.इसकी समीक्षा ही करनी थी तो थियेटर में आने के बाद ही देख आता.हाँ,इसके प्रोमोज में 'ऊ ला ला ,ऊ ला ला' गाने को देखकर हमारा बुढ़ियाता  हुआ मरदाना मन ज़रूर इसे देखने को लेकर मचल रहा था.मन के किसी कोने में दबी हुई अतृप्त इच्छाएं बाहर निकले को बेचैन थीं.हमें साथ भी मिल गया दो और हमसे थोड़ा बुज़ुर्ग होते दोस्तों का,सो हम तीनों ख़ुशी-ख़ुशी सिनेमा-हाल में मनोरंजन करने घुस गए !


फिल्म चलने लगी तो शुरू में हमें वही दिखने लगा जो हम सोचकर गए थे,पर जल्द ही लगा कि सिनेमा ने वास्तविक जिंदगी के ट्रैक को पकड़ लिया है. 'सिल्क' एक आम भारतीय सोच के साथ अपने सपने को यथार्थ रूप में परिणित करने में लग जाती है.उसका यह सपना किसी से छुपा नहीं होता और वह आम फार्मूले को अपनाकर फ़िल्मी-ट्रैक पर सरपट दौड़ने लगती है.इस दरम्यान उसने कभी अपनी जिंदगी में दोहरापन नहीं लाने दिया.इस वज़ह से शुरू में उसने अपने पारिवारिक रिश्तों को खोया और बाद में फ़िल्मी या बनावटी रिश्तों को भी.


उसके जिस अंग-प्रदर्शन के चलते उसे सफलता मिली,पुरस्कार मिले,पहचान मिली उसी ने तिरस्कार और पाखंड
का अनुभव भी कराया. सबसे बड़ी बात कि 'सिल्क' अपने द्वारा किये जा रहे काम के अंजाम से बेपरवाह होती है. पुरस्कार और तिरस्कार देने वाले इस दोगले समाज को ज़ोरदार चाँटा भी लगाती है. वह बेबाक होकर कहती है कि जिस विषय को लेकर फिल्म की प्रशंसा होती है,ईनाम दिए जाते हैं,लोग अकेले में लुत्फ़ उठाते हैं,उसी किरदार को  यथार्थ-जिंदगी में वे अछूत समझते हैं.उसका मूल मन्त्र होता है कि लोग सिनेमा देखने आते हैं तो सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए और  वह फिल्म और असल ज़िन्दगी में वही करती है तो गलत कैसे है ?उससे दोहरी जिंदगी नहीं जी जाती.जबकि इसके उलट जो लोग दिन और रात में  अपने किरदार बदल लेते हैं,वे चरित्रवान और इज्ज़तदार कैसे?


विद्या बालन से माफ़ी सहित 
'सिल्क' अपने वास्तविक जीवन को परदे पर उतारती है,यह कहना ज्यादा सही होगा,बनिस्पत इसके कि वह 'फ़िल्मी-जीवन' को अपनी 'रियल-लाइफ' में !पर,इस बीच इस ग्लैमर और बनावटी दुनिया में उसका खोल उतर जाता है,वह धीरे-धीरे अकेले पड़ जाती है,तब भी वह बदलने को तैयार नहीं होती.वह मर्दवादी समाज के फ्रेम में जब तक फिट बैठती है,मर्द के लिए वह एक साधन होती है.उसने अपने होने की वज़ह और महत्ता को अपने तईं उपयोग भी किया है.इसके लिए वह कहीं से भी दोषी नहीं है.


जिस झूठे ग्लैमर और बनावटी जिंदगी के पीछे 'सिल्क' भाग रही थी,उसका अंत तो वैसा होना ही था.अगर इस कथानक को सुखांत कर दिया जाता तो यह पूरा कथानक 'फ़िल्मी' हो जाता. वास्तविकता में 'सिल्क' के साथ ऐसा हुआ और इसलिए यह महज़ एक चित्रकथा न होकर हमारे समाज का सच्चा कथानक है.जिस तरह उसने अपनी तेज़ रफ़्तार जिंदगी में सब कुछ पाया और खो भी दिया ,वह भी कोई नई घटना नहीं है.


वास्तव में फिल्म में लगातार मर्दवादी और भूखे चेहरों पर 'सिल्क' दनादन तमाचे जड़ रही थी और उसका कृत्य कहीं से भी मुँह-छिपाऊ नहीं लगा.हम पुरुषों की मानसिकता और सोच अपने तईं और स्त्री के तईं बिलकुल अलग होती है.हम अपने व्यक्तिगत जीवन में उसे बतौर आदर्श कल्पित करते हैं और मौज,मज़े के लिए दूसरे हैं न.क्या मनोरंजन करने वाले ऐसे लोग दूसरी दुनिया से आयेंगे ? हमने उसके तमाचे को कई बार महसूस किया और फिल्म के अंत में वह सारा जोश,कुत्सित भावना हवा हो चुकी थी,हम जी भरकर रो भी नहीं  पा  रहे थे क्योंकि 'सिल्क' जैसी स्त्रियों के लिए झूठी,दोहरी मर्दवादी सोच ज़िम्मेदार जो है. हमें अपने से ही 'घिन' सी आने लगी.क्या ऐसा ही हमारा मर्द-समाज है जो सोचता कुछ है,लिखता कुछ है,दीखता कुछ है,करता कुछ है ?

मेरे लिए 'डर्टी पिक्चर' गन्दी और मनोरंजक नहीं रही,इस फिल्म ने हमारा,आपका बहुत कुछ उघाड़ दिया है !

19 दिसंबर 2011

ये है अपना बैसवाड़ा !

बैसवारा ( बैसवाड़ा )  में रहने के बावजूद इसके बारे में कई धारणाओं और प्रवृत्तियों से अनभिज्ञ रहा हूँ.वहाँ जन्म लेने से स्वभावगत विशेषताएं भले आ गईं हों पर हमेशा यह जिज्ञासा बनी रही कि आखिर इसका इतिहास ,इसकी संस्कृति क्या है? इस बैसवारे ने हर क्षेत्र में अपना अद्भुत योगदान दिया है.जहाँ आज़ादी के आन्दोलन में चंद्र शेखर आज़ाद,राणा बेनी माधव,राजा राव राम बक्स सिंह  आदि अगुआ रहे,वहीँ मुंशीगंज का किसान-आन्दोलन भी खूब सुर्ख़ियों में रहा.साहित्य का तो प्रचुर भंडार रहा बैसवारा. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी,महाकवि निराला,भाषाविद व आलोचक डॉ.राम विलास शर्मा,भाषा-विज्ञानी पंडित रघुनन्दन प्रसाद शर्मा ,हसरत मोहानी का नाम तो हिंदी साहित्याकाश में दर्ज है ही ,शिवमंगल सिंह 'सुमन' और मुनव्वर राणा जैसे कवि भी अपना परचम  लहरा चुके हैं. इसी बैसवारे के बारे में कुछ तथ्य डॉ. राम विलास शर्मा जी ने निरालाजी की जीवनी "निराला की शक्ति-साधना' में उद्घाटित किया है,वह उल्लेखनीय है:

अवध का पछाहीं भाग  बैसवाड़ा कहलाता है.उन्नाव और रायबरेली  जिलों के लगभग डेढ़ हज़ार वर्गमील के इस इलाके में बसी हुई जनता अपनी बोली ,अपनी लोक-संस्कृति ,अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं पर बड़ा अभिमान करती है.यहाँ के लोग अपने जीवट और हेकड़ी के  लिए विख्यात हैं.भारतेंदु ने  बैसवाड़े  की यात्रा के बाद लिखा था  कि यहाँ का हर आदमी अपने को भीम और अर्जुन समझता है.इनकी भाषा ही कुछ ऐसी है कि लोग सीधे स्वभाव बात कर रहे हों तो अजनबी को लगेगा कि लड़ रहे हैं.ब्रजभाषा का  गुण मिठास है,बैसवाड़ी का पौरुष.  बैसवाड़े  का शायद  ही कोई घर हो,खासकर बाम्हन-ठाकुर का,जिसमें कोई फौज में सिपाही,हवलदार या सूबेदार न रहा हो !


बैसवाड़ा के अतीत की चर्चा करते हुए आगे ज़िक्र है....चौपाल में  आल्हा जमने पर आधा गाँव इकठ्ठा हो जाता ;नौटंकी देखने दूर-दूर के गाँवों से मनचले जवान टूट पड़ते.ताजियों में हिन्दू भी शरीक होते थे.अवधी में जब मुसलमान  मर्सिये गाते थे,तब सुनने वाले धर्म की बात भूलकर काव्य-रस में डूब जाते थे.


दिवाली की रात खेतों में दिए जलाकर किसान 'धरती माता जागो' की पुकार लगाते. कतकी के पर्व पर सैंकडों  बैलगाडियां घुंघुरू  बजाती गंगा की ओर दौड़ चलतीं.किसान होली में नए अन्न की बालें भूनते ,अलैया-बलैया गाँव की सीमा के  बाहर भगाते,ढोल-मंजीरे के साथ फाग गाते हुए निकलते.


गंगा,लोन,सई नदियों से सींची हुई  बैसवाड़े  की धरती उपजाऊ है. यहाँ की घनी अमराइयों में कोसों तक बौर महक उठते हैं,चाँदनी रात में सफ़ेद धरती पर चुपचाप रसभरे महुए टपकते हैं,कोल्हू में ईख पेरी जाती है,कड़ाह में रस  खौलता है,चीपी,पतोई,राब की अलग-अलग मिठास की चर्चा होती है,तालों में कहीं लाल-सफ़ेद कमाल,रात में खिली हुई कोकाबेली,भीगी हुई सनई  की  गंध,ज्वार के पेड़ों में लिपटी हुई कचेलियों का सोंधापन,जाऊ और गेहूँ के खेतों में शांत ,बहता हुआ ,पुर से निकला हुआ,कुएं का पानी-कोई आश्चर्य नहीं कि यहाँ के लोगों को अपनी धरती से बड़ा प्यार है जिसे वे अकसर  तब समझते हैं  जब उन्हें बैसवाड़े  से दूर कहीं रहना होता है !


सच मानिए ,यह सब पढ़कर ,जानकर आज बैसवाड़े से दूर रहकर भी उतना ही सच्चा और अपना लगता है.यहाँ की स्वभावगत विशेषताओं को उजागर करने  के लिए रामविलास जी का विशेष आभार.निराला के ऊपर इस  बैसवाड़े का क्या असर पड़ा,इस बारे में फिर कभी !

16 दिसंबर 2011

सबके अपने रंग !!

आज कुछ ऐसा लिखें 
ये कलम तोड़ दें हम !
बहती हुई धारा का  ,ये 
रुख  मोड़  दें हम !
शेर की मांद में  घुसकर ,
जबड़ों  को  ही तोड़ दें हम  !


जब तलक बचते रहेंगे,
राह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते  रहेंगे  !
राह की खाई को  पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम  !


दिन  सुहाने आ गए ,
वे फिर भरमाने आ गए,
तम्बुओं से  वे निकलकर 
सर झुकाने आ गए ,
अबकी नहीं मानेंगे  हम,
सांप को यूँ  छोड़ दें हम ?




...और चलते-चलते एकठो निठल्ला-चिंतन  !




झील जो सूखी भर आई ,
नन्हें-मुन्नों  की है  माई,
अब नहीं चिंतित हैं  मुन्ने,
गोद में ही सो रहेंगे,
इस ठिठुरती ठण्ड में 
बस रजाई ओढ़ लें हम !


.......और ये देखिये अपने निठल्लू अली मियाँ ! क्या फरमाते हैं !


भूरे सूखे रेत कणों से अटी पड़ी है झील
अपने कर्मो के दर्रों से फटी पड़ी है झील :)

राग द्वेष के दावानल में झुलस रही है झील
हालत ये रोशन किरणों से करती आहत फील :)

एक बूंद लज्जा का पानी गर पाती वो
भीषण मनो ताप मुक्त हो जाती वो :)


बिलबिल करती दर्द पे अपने आहें भरती
होती अक्ल ठिकाने ,असमय क्यों मरती :)




12 दिसंबर 2011

लेखक बड़ा या ब्लॉगर ?


 बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक रहा है.बाज़ार  या मेले जाता तो कोई खाने की चीज़ न लेकर एक-दो किताबें ज़रूर धर लेता ! किताबों या पत्रिकाओं की दुकान पर जाना निश्चित था.साहित्यिक पुस्तकों का पढ़ना अब भले ही कम हो गया हो,पर समाचार पत्रों  (एक दिन में कई-कई ) का क्रेज बदस्तूर जारी है !लिखने की हुडक भी तब से लगातार जारी है,पर पहले डायरियों में,फिर अख़बारों,पत्रिकाओं में 'संपादक के नाम पत्र' लिखकर अपनी छपास की प्यास बुझा लेते थे.अब जब से यह ब्लॉगिंग का प्लेटफॉर्म  मिला है,न कोई छपने-छपाने की आशंका,काट-छाँट का डर और न हर्रा-और फिटकरी की खोज ! विचार जब उबलने शुरू हो गए ,की-बोर्ड पकड़कर खटर-पटर करने लग गए !


ब्लॉगिंग के क्षेत्र में आकर हम 'लेखक' कहलाने का भी अवर्णनीय आनंद उठाने लगे पर क्या एक ब्लॉगर एक लेखक भी है ,इस विषय में ज़रूर मेरी कुछ मान्यताएं अब बन गयी हैं लेखक जब लिखता है उसे गंभीरता और साहित्यिक -स्पर्श देता  है, लिखने के बाद उस पर किसी प्रतिक्रिया की दीर्घकालीन अपेक्षा रखता है ,उसकी प्रतिक्रिया देर से आती है तो उसका प्रभाव भी चिरकालीन या सदा-सर्वदा रहता है,उसके लेखन से उसके सहृदयता की पहचान मुश्किल होती है,लेखक अपने पाठक से सीधे संवाद की स्थिति में नहीं रह पाता,ऐसे में उसका लेखन एकपक्षीय होता है.लेखक के पाठक ज़्यादातर सिर्फ पाठक होते हैं ,लेखक नहीं ! इसलिए उसका पढ़ा जाना पारस्परिक आदान-प्रदान नहीं होता !


लेखक लगातार अच्छा  लिखने से ही महान बन पाता है, इस वज़ह से उसमें अहंकार का इलहाम भी नहीं आ पाता  या देर से आता है.लेखक तथ्यपूर्ण लिखने का अधिकतम प्रयास करता है क्योंकि उसके एक बार लिख लेने के बाद संशोधन की गुंजाइश सुगम नहीं होती.लेखक का विस्तार व्यापक होता है और वह भी बिना किसी नेटवर्क के ! पाठक के लिए लेखक एक सेलेब्रिटी हो जाता है.उसके लिखे का अर्थ होता है और वह अर्थ भी पाता है !लेखकों के भी गुट होते हैं पर इनसे पाठकों का ज़्यादा लेना-देना नहीं होता ! ये गुट उन्हें पुरस्कार दिलाने के काम भले आते हैं !


एक ब्लॉगर जब चाहे ,जितना चाहे लिख सकता है. एक नहीं दर्जनों ब्लॉग बना सकता है,भले ही उनमें लिखना कम या निरर्थक-सा रहे.साहित्यिक-स्वाद भी मिल सकता है पर गंभीर और उत्तम कोटि का साहित्य ढूँढना मुश्किल-सा है.निरा साहित्य पढ़ने के लिए नामी-गिरामी और स्थापित लेखक (मुंशी प्रेमचंद,निराला,प्रसाद आदि )कहीं बिला थोड़ी गए हैं.ब्लॉगिंग  हलके-फुल्के लेखन और मनोरंजन का भरपूर जरिया है .इसी आड़ में कई लोग अपनी निरर्थक-भड़ास भी उडेलने लगते हैं,पर उन्हें न पढ़ने का विकल्प तो है ही ! यदि आप टीपों की संख्यात्मकता के प्रति संवेदनशील नहीं हैं तो कुछ अच्छे और  साहित्यिक ब्लॉग भी मिल जायेंगे !


ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी खूबी यह है कि आप इसके ज़रिये अपने पाठकों (जो स्वयं ब्लॉगर होते हैं) से सीधा जुड़े होते हैं. अपने लिखे पर उसकी त्वरित-प्रतिक्रिया ले-दे सकते हैं.हालाँकि ,ज़्यादातर मामलों में यह संवाद दो-तरफ़ा होता है.यदि कहीं आप टीपते हैं ,तभी प्रति-टिप्पणी की  सम्भावना अधिक  होती है.थोड़ी-बहुत नकारात्मकता के बाद भी यह संवाद-शैली इसको दस्तावेजी-लेखन से बेहतर बनाती है.


ब्लॉगिंग का एक स्याह-पक्ष यह भी है कि थोड़ा-सा गरुआ जाने पर आप की आत्मीयता और सहृदयता की पोल भी खुल जाती है.यदि आप आत्म-श्लाघा नामक बीमारी से प्रेरित हो गए तो आप कई लोगों के प्रेरक भी नहीं रह पाते. जहाँ लेखक केवल लिखकर प्रेरणा देता है,वहीँ इस विधा में लिखना और टीपना दोनों आवश्यक हो जाते हैं. कुछ लोग अपने को लिखने से भी बड़ा मानने लगते हैं जबकि कोई भी लिक्खाड़ उतना ही आदर्शवादी,सहृदय होता है जितना वह अपने लेखन में दर्शाता है. इस तरह ब्लॉगर को मानवीय संवेदना-युक्त  होना ज़्यादा आवश्यक है,क्योंकि उसकी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता  संख्यात्मकता पर अधिक आधारित हो सकती है,गुणवत्ता पर कम !


इस तरह ब्लॉग-लेखन आपसी संवाद का जरिया ज्यादा है,साहित्य भूख मिटाने का कम.अब ब्लॉगिंग की धमक प्रिंट-मीडिया ने भी महसूसी है,लगभग हर समाचार-पत्र नियमित रूप से ब्लॉग-पोस्टें छाप रहे हैं. इसलिए इधर ब्लॉग-लेखन में भी गंभीरता आई है.लेकिन एक ब्लॉगर को लेखक समझ लेना भरम ही है और जितनी जल्दी यह भरम मिट जाय ,ब्लॉगिंग सुखद ,आत्मीय और पारिवारिक लगेगी !


9 दिसंबर 2011

चार क्षणिकाएँ !

(१ )

भ्रष्टाचार 
मुँह बाए खड़ा है,
हमारी उखड़ती  साँसों को गिनता,
जान के पीछे पड़ा है,
सब्र के आगे अड़ा है !!
साभार:गूगल बाबा 


(२)


नेता 
अब ऐसा विषय है,
सोचने में भी प्रलय है,
कह दिया कुछ जो इन्हें ,
सुकून का अंतिम  समय है,
हर तरफ पहरे हमारे 
और पहरों में भी भय है !!


(३ )


राजनीति
सबकी चहेती,
सबको इसी से प्यार है,
जो गुलाटी मार ले,
वह बची सरकार है !
देश है अब 'सेल ' पर ,
इससे न  सरोकार है ,
व्यापारी को दरकार है,
उसी की पैरोकार है !




(४ )

एक बूढ़े से
क्रांति की उम्मीद में हम
लगातार उसको ताक रहे हैं,
अँधेरी कोठरी में चंद जुगनू लिए 
हम झांक रहे हैं .
रोशनी जब चीरकर घुस आएगी ,
इस अँधेरे की तभी,
सचमुच में शामत आएगी !!






5 दिसंबर 2011

कुछ कह नहीं पाता !

कुछ लिख नहीं पाता ,कुछ कह नहीं पाता,
इस माहौल  में भी  तो,  मैं रह नहीं पाता ! १!


हम  तुमको न समझे थे ,तो कोई बात नहीं,
तुम्हीं हमको बता देते ,मैं कह नहीं पाता !२ !


एक-एक करके सारी , रुचियाँ बदल गईं ,

कभी चल नहीं पाता,मैं  रुक नहीं पाता !३ !


तुम्हारे खून की हर बूँद हमको चाहिए,
खिलाफ़  उठती  आवाजें,मैं सह नहीं पाता !४ !


रोशनी की हर किरन ,मेरे इशारों पर,
आँधी की आहट को,मैं सुन नहीं पाता !५  !


इस वक़्त को बाँधा हुआ है हाथ से,
सोते हुए  ये सोचता हूँ,मैं जग नहीं पाता !६ !





ये देखिये,अपने अली साहब का अलग रंग....पैरोडी के रूप में !




ali ने कहा…





शायरे उल्फत हूं मैं ,जब इश्क फरमाता हूं मैं !
लिख नहीं पाता कभी खामोश रह जाता हूं मैं :)

मैं तुम्हें समझी नहीं ये कह निकल लेती हो तुम !
क्या बताऊँ किस कदर खुद ही पे झुंझलाता हूं मैं :)

देख कर बदली हुई रूचियां तुम्हारी खीज कर !
शोक में रहता कभी पत्नी को हड़काता हूं मैं :)

तुमको हमारे खून की हर बूँद क्योंकर चाहिए !
तेरे कूंचे में पिटा ,तुझपे मिटा जाता हूं मैं :)

तुमसे पहले रौशनी और उससे पहले थी किरन !
अब तुम्हारा हुस्न है , अंधा हुआ जाता हूं मैं :)