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19 दिसंबर 2011

ये है अपना बैसवाड़ा !

बैसवारा ( बैसवाड़ा )  में रहने के बावजूद इसके बारे में कई धारणाओं और प्रवृत्तियों से अनभिज्ञ रहा हूँ.वहाँ जन्म लेने से स्वभावगत विशेषताएं भले आ गईं हों पर हमेशा यह जिज्ञासा बनी रही कि आखिर इसका इतिहास ,इसकी संस्कृति क्या है? इस बैसवारे ने हर क्षेत्र में अपना अद्भुत योगदान दिया है.जहाँ आज़ादी के आन्दोलन में चंद्र शेखर आज़ाद,राणा बेनी माधव,राजा राव राम बक्स सिंह  आदि अगुआ रहे,वहीँ मुंशीगंज का किसान-आन्दोलन भी खूब सुर्ख़ियों में रहा.साहित्य का तो प्रचुर भंडार रहा बैसवारा. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी,महाकवि निराला,भाषाविद व आलोचक डॉ.राम विलास शर्मा,भाषा-विज्ञानी पंडित रघुनन्दन प्रसाद शर्मा ,हसरत मोहानी का नाम तो हिंदी साहित्याकाश में दर्ज है ही ,शिवमंगल सिंह 'सुमन' और मुनव्वर राणा जैसे कवि भी अपना परचम  लहरा चुके हैं. इसी बैसवारे के बारे में कुछ तथ्य डॉ. राम विलास शर्मा जी ने निरालाजी की जीवनी "निराला की शक्ति-साधना' में उद्घाटित किया है,वह उल्लेखनीय है:

अवध का पछाहीं भाग  बैसवाड़ा कहलाता है.उन्नाव और रायबरेली  जिलों के लगभग डेढ़ हज़ार वर्गमील के इस इलाके में बसी हुई जनता अपनी बोली ,अपनी लोक-संस्कृति ,अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं पर बड़ा अभिमान करती है.यहाँ के लोग अपने जीवट और हेकड़ी के  लिए विख्यात हैं.भारतेंदु ने  बैसवाड़े  की यात्रा के बाद लिखा था  कि यहाँ का हर आदमी अपने को भीम और अर्जुन समझता है.इनकी भाषा ही कुछ ऐसी है कि लोग सीधे स्वभाव बात कर रहे हों तो अजनबी को लगेगा कि लड़ रहे हैं.ब्रजभाषा का  गुण मिठास है,बैसवाड़ी का पौरुष.  बैसवाड़े  का शायद  ही कोई घर हो,खासकर बाम्हन-ठाकुर का,जिसमें कोई फौज में सिपाही,हवलदार या सूबेदार न रहा हो !


बैसवाड़ा के अतीत की चर्चा करते हुए आगे ज़िक्र है....चौपाल में  आल्हा जमने पर आधा गाँव इकठ्ठा हो जाता ;नौटंकी देखने दूर-दूर के गाँवों से मनचले जवान टूट पड़ते.ताजियों में हिन्दू भी शरीक होते थे.अवधी में जब मुसलमान  मर्सिये गाते थे,तब सुनने वाले धर्म की बात भूलकर काव्य-रस में डूब जाते थे.


दिवाली की रात खेतों में दिए जलाकर किसान 'धरती माता जागो' की पुकार लगाते. कतकी के पर्व पर सैंकडों  बैलगाडियां घुंघुरू  बजाती गंगा की ओर दौड़ चलतीं.किसान होली में नए अन्न की बालें भूनते ,अलैया-बलैया गाँव की सीमा के  बाहर भगाते,ढोल-मंजीरे के साथ फाग गाते हुए निकलते.


गंगा,लोन,सई नदियों से सींची हुई  बैसवाड़े  की धरती उपजाऊ है. यहाँ की घनी अमराइयों में कोसों तक बौर महक उठते हैं,चाँदनी रात में सफ़ेद धरती पर चुपचाप रसभरे महुए टपकते हैं,कोल्हू में ईख पेरी जाती है,कड़ाह में रस  खौलता है,चीपी,पतोई,राब की अलग-अलग मिठास की चर्चा होती है,तालों में कहीं लाल-सफ़ेद कमाल,रात में खिली हुई कोकाबेली,भीगी हुई सनई  की  गंध,ज्वार के पेड़ों में लिपटी हुई कचेलियों का सोंधापन,जाऊ और गेहूँ के खेतों में शांत ,बहता हुआ ,पुर से निकला हुआ,कुएं का पानी-कोई आश्चर्य नहीं कि यहाँ के लोगों को अपनी धरती से बड़ा प्यार है जिसे वे अकसर  तब समझते हैं  जब उन्हें बैसवाड़े  से दूर कहीं रहना होता है !


सच मानिए ,यह सब पढ़कर ,जानकर आज बैसवाड़े से दूर रहकर भी उतना ही सच्चा और अपना लगता है.यहाँ की स्वभावगत विशेषताओं को उजागर करने  के लिए रामविलास जी का विशेष आभार.निराला के ऊपर इस  बैसवाड़े का क्या असर पड़ा,इस बारे में फिर कभी !

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत संजीव चित्रण किया है आपने बैसवाड़े का.
    अच्छी जानकारियाँ मिलीं आपकी इस पोस्ट से.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,संतोष भाई.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग कि नई पोस्ट पर आईयेगा.

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  2. इस अपौरुषेय पिछवाड़े से मैं नितांत अनभिज्ञ इसलिए गच्चा खा गया ..अब संभल रहे हैं:)

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  3. baisvade se sambandhit rochak tathon ko is post ke madhyam se sajha kar aane ham sabhi ko iske vishay me keemti jankari preshit ki hai .aabhar

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  4. जानकारी मिली धन्यवाद ...अच्छा है आपके पड़ोसी होने का हमें गर्व है !

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  5. आप अपनी जड़ से अलग नहीं हुए हैं ... ....
    हार्दिक शुभकामनायें आपको !

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  6. बढ़िया है भाई आपका बैसवाडा । हमें तो अपने हरियाणे जैसा लागा । :)

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  7. कॉलेज के दिनों में प्रोफ़ेसर डॉ. प्रमोद जब निराला को पढ़ाते थे तो कहते थे कि उन पर उन्नाव-रायबरेली के बैसवाड़ा का प्रभाव पड़ा, और वही उनकी कविता में आया।
    तब तो कुछ खास समझ में नहीं आता था। आज उस के बारे में बहुत कुछ जाना।

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  8. यह निरालापन हर ओर देखने को मिलता है। बहुत रोचक जानकारी दी आपने।

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  9. बहुत ही रोचक पोस्ट लगाई है आपने।

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  10. कहीं सतीश भाई ये तो नहीं कह रहे कि आप अब भी जड़वत हैं :)

    बैसबाड़ा की धरती बड़ी संस्कृति समृद्ध है और हमें गर्व है कि उनकी इस समृद्धि का कारण हम हैं ! अब देखिये ना आपकी चौपाल में हमारे आल्हा ने आके आपको क्या से क्या बना दिया :)

    हम पहले समझते थे कि बैस ठाकुरों की वज़ह से बैसवारा कहलाया फिर समझे कि वैश्य (बनियों) के बसने कारण ऐसा हुआ होगा पर इससे आगे कुछ नहीं समझे :)

    हमारे आदर्श नायकों / साहित्यकारों को आप लोकलाइज्ड कर रहे हैं संतोष जी , ये अच्छी बात नहीं है :)

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  11. अली साब

    @हम पहले समझते थे कि बैस ठाकुरों की वज़ह से बैसवारा कहलाया

    आप ठीक समझे थे,बैस राजपूतों की ज़ोरदार रिहाइश है यहाँ पर इसलिए इस क्षेत्र को बैसवारा कहा जाता है.

    @हमारे आदर्श नायकों / साहित्यकारों को आप लोकलाइज्ड कर रहे हैं

    दर-असल वे तो ग्लोबलाइज्ड हो रहे हैं...!

    कुछ और नाम छूट गए हैं...प्रसिद्द आलोचक आचार्य नन्द दुलारे बाजपेई,नवनीत के संपादक गिरिजा शंकर त्रिवेदी और कवि डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया !

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  12. सुंदर वर्णन , अच्छा लगा आपकी पोस्ट पढ़कर .

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  13. भाई जी ,हम कहीं भी रहें, जब तक अपनी जड़ों से जुड़ें हैं तभी तक जिंदा हैं वर्ना जिंदा तो रहेंगे लेकिन जिंदगी से कोसों दूर.....

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  14. बैसवारा पर पढ़ना अच्छा लगा,बैसवारे का हिदी साहित्य में योगदान अतुल्य है। बैसवारा पर यदि लिखा जाय तो पूरा का पूरा हिंदी साहित्य वहीं सिमट आएगा।

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  15. आपने अपने क्षेत्र का परिचय बड़े अच्छे प्रकार से कराया। भारतेंदु जी की बात पसन्द आयी।

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