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20 दिसंबर 2011

सिल्क जो डर्टी नहीं है !

अपन ने कभी किसी फिल्म की समीक्षा नहीं की और न इस उद्देश्य के साथ कोई फिल्म देखी,पर 'डर्टी पिक्चर' का मामला बिलकुल अलग है.इसकी समीक्षा ही करनी थी तो थियेटर में आने के बाद ही देख आता.हाँ,इसके प्रोमोज में 'ऊ ला ला ,ऊ ला ला' गाने को देखकर हमारा बुढ़ियाता  हुआ मरदाना मन ज़रूर इसे देखने को लेकर मचल रहा था.मन के किसी कोने में दबी हुई अतृप्त इच्छाएं बाहर निकले को बेचैन थीं.हमें साथ भी मिल गया दो और हमसे थोड़ा बुज़ुर्ग होते दोस्तों का,सो हम तीनों ख़ुशी-ख़ुशी सिनेमा-हाल में मनोरंजन करने घुस गए !


फिल्म चलने लगी तो शुरू में हमें वही दिखने लगा जो हम सोचकर गए थे,पर जल्द ही लगा कि सिनेमा ने वास्तविक जिंदगी के ट्रैक को पकड़ लिया है. 'सिल्क' एक आम भारतीय सोच के साथ अपने सपने को यथार्थ रूप में परिणित करने में लग जाती है.उसका यह सपना किसी से छुपा नहीं होता और वह आम फार्मूले को अपनाकर फ़िल्मी-ट्रैक पर सरपट दौड़ने लगती है.इस दरम्यान उसने कभी अपनी जिंदगी में दोहरापन नहीं लाने दिया.इस वज़ह से शुरू में उसने अपने पारिवारिक रिश्तों को खोया और बाद में फ़िल्मी या बनावटी रिश्तों को भी.


उसके जिस अंग-प्रदर्शन के चलते उसे सफलता मिली,पुरस्कार मिले,पहचान मिली उसी ने तिरस्कार और पाखंड
का अनुभव भी कराया. सबसे बड़ी बात कि 'सिल्क' अपने द्वारा किये जा रहे काम के अंजाम से बेपरवाह होती है. पुरस्कार और तिरस्कार देने वाले इस दोगले समाज को ज़ोरदार चाँटा भी लगाती है. वह बेबाक होकर कहती है कि जिस विषय को लेकर फिल्म की प्रशंसा होती है,ईनाम दिए जाते हैं,लोग अकेले में लुत्फ़ उठाते हैं,उसी किरदार को  यथार्थ-जिंदगी में वे अछूत समझते हैं.उसका मूल मन्त्र होता है कि लोग सिनेमा देखने आते हैं तो सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए और  वह फिल्म और असल ज़िन्दगी में वही करती है तो गलत कैसे है ?उससे दोहरी जिंदगी नहीं जी जाती.जबकि इसके उलट जो लोग दिन और रात में  अपने किरदार बदल लेते हैं,वे चरित्रवान और इज्ज़तदार कैसे?


विद्या बालन से माफ़ी सहित 
'सिल्क' अपने वास्तविक जीवन को परदे पर उतारती है,यह कहना ज्यादा सही होगा,बनिस्पत इसके कि वह 'फ़िल्मी-जीवन' को अपनी 'रियल-लाइफ' में !पर,इस बीच इस ग्लैमर और बनावटी दुनिया में उसका खोल उतर जाता है,वह धीरे-धीरे अकेले पड़ जाती है,तब भी वह बदलने को तैयार नहीं होती.वह मर्दवादी समाज के फ्रेम में जब तक फिट बैठती है,मर्द के लिए वह एक साधन होती है.उसने अपने होने की वज़ह और महत्ता को अपने तईं उपयोग भी किया है.इसके लिए वह कहीं से भी दोषी नहीं है.


जिस झूठे ग्लैमर और बनावटी जिंदगी के पीछे 'सिल्क' भाग रही थी,उसका अंत तो वैसा होना ही था.अगर इस कथानक को सुखांत कर दिया जाता तो यह पूरा कथानक 'फ़िल्मी' हो जाता. वास्तविकता में 'सिल्क' के साथ ऐसा हुआ और इसलिए यह महज़ एक चित्रकथा न होकर हमारे समाज का सच्चा कथानक है.जिस तरह उसने अपनी तेज़ रफ़्तार जिंदगी में सब कुछ पाया और खो भी दिया ,वह भी कोई नई घटना नहीं है.


वास्तव में फिल्म में लगातार मर्दवादी और भूखे चेहरों पर 'सिल्क' दनादन तमाचे जड़ रही थी और उसका कृत्य कहीं से भी मुँह-छिपाऊ नहीं लगा.हम पुरुषों की मानसिकता और सोच अपने तईं और स्त्री के तईं बिलकुल अलग होती है.हम अपने व्यक्तिगत जीवन में उसे बतौर आदर्श कल्पित करते हैं और मौज,मज़े के लिए दूसरे हैं न.क्या मनोरंजन करने वाले ऐसे लोग दूसरी दुनिया से आयेंगे ? हमने उसके तमाचे को कई बार महसूस किया और फिल्म के अंत में वह सारा जोश,कुत्सित भावना हवा हो चुकी थी,हम जी भरकर रो भी नहीं  पा  रहे थे क्योंकि 'सिल्क' जैसी स्त्रियों के लिए झूठी,दोहरी मर्दवादी सोच ज़िम्मेदार जो है. हमें अपने से ही 'घिन' सी आने लगी.क्या ऐसा ही हमारा मर्द-समाज है जो सोचता कुछ है,लिखता कुछ है,दीखता कुछ है,करता कुछ है ?

मेरे लिए 'डर्टी पिक्चर' गन्दी और मनोरंजक नहीं रही,इस फिल्म ने हमारा,आपका बहुत कुछ उघाड़ दिया है !

32 टिप्‍पणियां:

  1. आपके लिखे वक्तव्य से लग रहा है की ये पिक्चर दर्शक को जो दिखाना चाहती थी उसमें सफल रही है ... ऐसी समीक्षा कहीं और नहीं पढ़ी ... सच को स्वीकारते हुए .. आभार

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  2. दिक्कत ये है कि फिल्म अब तक देखी नहीं है पर अलग अलग समीक्षायें पढकर कमेन्ट करने की नौबत है क्या यह सही होगा कि कमेन्ट किया जाये ?

    आपकी और अरविन्द जी की समीक्षा में एक चीज कामन लगी ,वो ये कि आप दोनों इस फिल्म को देखने के लिए उकसा रहे हैं :)

    उन दिनों जब सिल्क स्मिता मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री में आई थी , मुझे स्मरण है कि मैं उसे समझौतापरस्त ऐक्ट्रेस के तौर पर चीन्हता था और वह इर्द गिर्द के समाज के अनेकों उद्धरणों में से एक ही लगती थी !

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  3. अपनी धुन कर लेने का एक पागलपन सा,
    थी पत्थर की राहें छिलता कोमल मन था,

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  4. @ अली साब

    जिस तरह फिल्म के प्रोमोज हमें देखने के लिए उकसाते हैं,पर वास्तव में देखने पर ही पाता चलता है कि उसका मुख्य सन्देश क्या है !मैंने उकसाने के लिए कतई नहीं लिखा है !

    रही बात सिल्क की समझौतापरस्ती की ,बेशक उसने महत्वाकांक्षा पाली ,मगर क्या उसका यही अपराध था?उसने माध्यम वही चुना जो उसके पास था,और वही उसके पतन का कारण भी बना.यहाँ सवाल है कि'गोश्त' खाकर 'हर-हर गंगे' बोलने वाले बरी क्यों हो जाते हैं ?

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  5. @ हम पुरुषों की मानसिकता और सोच अपने तईं और स्त्री के तईं बिलकुल अलग होती है!
    स्वीकारोक्ति की यह ईमानदारी मंत्रमुग्ध कर रही है!

    फिल्म देखी नहीं , देखने की इच्छा भी नहीं! जिन्हें कहानी /मूल समस्या से मतलब है उन्हें फिल्म देखने की इतनी अधिक आवश्यता है भी नहीं !

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  6. @ प्रवीण पाण्डेय

    जिस राह पर सिल्क चली वह गलत थी,पर उन जैसों को राह पर चलने से जिनका मनोरंजन होता है,उनका क्या ?

    कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिन लोगों की वजह से स्त्री गन्दी होती है या उसमें गंदगी आती है,वे साफ़-सुथरे बने रहते हैं !

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  7. @ वाणी गीत
    यह फिल्म दर-असल मनोरंजन के लिए कतई नहीं है,यह फिल्म के बजाय रिअलिटी है.
    मर्दवादी,उन्मादी और स्त्री को महज़ मौज,मजे के लिए सोचने वालों को ज़रूर यह आइना देखना चाहिए !

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  8. फिल्म देख कर लौटने के बाद अपुन की भी हालत बिलकुल यही थी ...फिल्म की सहज परिणति उसे जिन्दगी के बेहद करीब की एक यथार्थ क्लासिक बनाती है ,,,
    अब इससे भी उम्दा कोई समीक्षा हो सकती है क्या ?

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  9. आरम्भ के दृश्य के बावजूद यह फिल्म भड़काऊ नहीं है । असलियत पर आधारित यह फिल्म समाज को आईना दिखाती है हमारी दोहरी मानसिकता का ।
    अंत तो दुखद होना ही था ।
    अच्छी और सच्ची समीक्षा की है अपने ।

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  10. अच्छी और सच्ची समीक्षा की है अपने ।

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  11. मुझे इस फिल्म का एक डायलोग जिसमें वो फ़िल्मी पत्रकार कहती है सिल्क को ... "सिल्क बस ऐसी ही रहना ... बदलना नहीं ... सोचना नहीं" बहुत जोरदार लगा ... बाकी समाज को स्पष्ट आइना दिखाती है यर फिल्म ... यथार्थ के बेहद करीब ...

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  12. मैंने भी देखि यह फिल्म,कुछ दृश्य अनावश्यक ठे.उन्हें छोड़ दें तो........ अपने देह पर कोड बरसाती सिल्क के अभिनय के प्रति जूनून को दर्शाता यह दृश्य फिल्म जगत के लोगों को नही दिखा.दिखी तो उसकी मादक देह.बुड्ढे नायक के साथ समझोता ....वहाँ भी उसने देह को हथियार बनाया.सुनते आए हैं कि इस हथियार का उपयोग बरसों से अभिनेत्रियां करती आ रही है.एक मुकाम हासिल हो जाने के बाद कोई उनसे 'इस'सीढी के बारे मे नही पूछता,शायद इसीलिए सिल्क ने भी यही किया.चतुर अभिनेत्रियां इस सीढी को हटा लेती हैं बाद मे शायद.
    डूबते सूरज को कोई सलाम नही करता.वो डूब गई इसीलिए उसके सारे काम अपराध हो गये.सफल रहती तो.......शायद किसी संभ्रात परिवार की बहु बन चुकी होती.अंतिम दृश्य मे सूर्ख लाल साडी मे लिपट कर मौत के आगोश मे चुपचाप उसके चले जाना......... उसमे छुपी एक भारतीय नारी,पत्नी बनने की इच्छा का जीवित होना दर्शाता है.सबसे बड़ी बात.........सिल्क के रूप मे अभिनय करती विद्या बालन से कहीं घृणा नही होती.परदे पर सिर्फ सिल्क ही को देखती रही मैं. वैसे...... असहज महसूस करती रही मैं.ऐसा और इतना विभत्स सच देखने का साहस नही मुझ मे.क्या करूं?
    ऐसिच हूँ मैं तो ...पर देह का दुरूपयोग करते लोगों का अंत मैंने दर्दनाक ही देखा है.शायद मैं गलत हौऊ.

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  13. फ़िल्म तो नही देखी मगर समीक्षा पढकर सारा कथानक समझ आ गया है और आज के हमारे समाज का वीभत्स सच्चा रूप भी…………शायद हम सभी जानते हैं सच्चाई मगर स्वीकारना नही चाहते।

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  14. @ इन्दुजी
    आप ठीक कह रही हैं....गलत नहीं !

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  15. फिल्म भड़काऊ या उत्तेजक कम है। गम्भीर अधिक।

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  16. आदरणीय राहुल जी की टीप मेल में !

    कमेंट बाक्‍स टिप्‍पणी स्‍वीकार नहीं कर रहा है, सो यहां-
    फिल्‍म का एक महत्‍वपूर्ण पहलू यह भी है, जो आपने रेखांकित किया है.
    वैसे सिल्‍क का चरित्र उस तरह कुशलता से नहीं गढ़ा गया है, जितना नसीर का.

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  17. मुझे इसका अंत अच्छा नहीं लगा। मैं सिल्क को जीतते हुए देखना चाहता था। मगर हाय! वास्तविकता तो वास्तविकता है जिसे हम नकार नहीं सकते। विद्या बालन का गज़ब का अभिनय और बेहतरीन डॉयलॉग इस फिल्म की जान हैं। डॉयलॉग में छुपे करारे कटाक्ष को कोई इतनी सहजता से अभिनीत भी कर सकता है..! देखने के बाद भी सपना ही लगता है।

    एक प्रश्न/कटाक्ष इस पोस्ट पर आपके फोटो चयन पर...आशा है आप झेल लेंगे..

    आपको विद्या के चढ़ान का फोटू चिपकाना ही क्यों भाया...उस वक्त का भी तो लगा सकते थे जब वह जहर खा कर सोई हुई थी ? सिल्क का इतना दुखद अंत देखने के बाद भी!

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  18. चिट्ठाचर्चा से यहाँ पहुंची...इतनी इमानदारी से की गयी समीक्षा मैंने कभीं नहीं पढ़ी...इस फिल्म की तो एकदम नहीं. अच्छा लगा कि किसी को वो भी नज़र आया जो शायद निर्देशक दिखाना चाहता है...फिल्म देख कर मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा था. अंत के सीन पर तो आँखें भर आयीं थी...सिल्क का मरना एकदम अच्छा नहीं लगा मुझे...पर जिंदगी ऐसी ही है. वो किरदार बहुत दिन तक आपको परेशान करता है...मैं भी किसी दिन उसपर लिखूंगी...किसी दिन लिख भी पाऊं शायद.

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  19. देवेन्द्र जी !

    यह फोटू महज़ एक चित्र की तरह नहीं लगाया मैंने.इसमें दिख रहे मर्दवादी चेहरे और एक स्त्री की उन्हें किसी भी कीमत पर मनोरंजन कराने की मजबूरी साफ़ दिखती है.इस फिल्म का सन्देश मनोरंजन तो है ही नहीं,केवल पोस्टर देखकर थोड़ा भ्रम तो हो सकता है !

    और हाँ,विद्या बालन के माध्यम से यह सब प्रकटन हुआ है,इसलिए उनसे माफ़ी भी !

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  20. पूजा उपाध्याय जी,
    आपने इस मुद्दे को समझा,आभार.इसे जिनको समझना है यदि वे समझ लें,सन्देश ले सकें तभी सार्थकता होगी !

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  21. film ki sameeksha padhkar film dekhna chahti hoon.uske baad hi apni raay bata sakti hoon.sameeksha aapne bahut achchi ki hai.

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  22. बहुत अच्छी समीक्षा कि है आपने मैंने भी इस फ़िल्म पर समीक्षा कि थी समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी उस पाओस्त के साथ-साथ बाकी पोस्ट पर भी आपका हार्दिक स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/12/dirty-picthure.html

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  23. सटीक और बेबाक समीक्षा आभार

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  24. smaj ka vibhtsa pahlu.hae jise garmjoshi se dikhaya jata hae marmik v vicharniya post ..........

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  25. आपकी समीक्षा फिल्म के प्रति आकर्षण बढाती है. अब देखना पड़ेगा.

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  26. ...तब तो फिल्म अपने उद्देश्य में सफल है !

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  27. film abhi tak dekhi nahin par sach ko sweekar karne ki aapki imandari aur film sameeksha achchi lagi.

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  28. फिल्म की अच्छी समीक्षा की है आपने.
    मौका मिलने पर देखने का प्रयास करूँगा.

    संगीता जी की हलचल से इस पोस्ट पर आया हूँ.

    आने वाले नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    मेरी पोस्ट 'हनुमान लीला भाग-२' पर आईयेगा.

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  29. apki baat se main purn rup se sahmat hun .........mujhe bhi silk ka dard hi mahsus hua....

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