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23 अक्तूबर 2012

चींटी और हाथी !

हाथी चींटी से कहे,तू ना समझे मोहि
मेरे पांवों के तले,मौत मिलेगी तोहि

चींटी बोली नम्र हो,मद से मस्त न होय
वंशहीन रावण हुआ,कंस न पाया रोय

मरने से बेख़ौफ़ हूँ ,चलती अपनी चाल
हर पल जीती ज़िन्दगी,नहीं बजाती गाल ।।

छोटी-सी काया मिली,इच्छाएँ भी न्यून
छोटे-से आकाश में,खुशियाँ फैलें दून

पेट तुम्हारा है बड़ा,धरती घेरे खूब
परजीवी बन चर रहा,इसकी-उसकी दूब


सावधान लघु से रहो,सदा उठाये सूंड़
चींटी मारेगी तुझे,तू अज्ञानी,मूढ़
 

19 अक्तूबर 2012

नई प्रार्थना !

हे दुर्गा  !
कभी उनका भी करो मर्दन
फाड़ दो छाती जो चौड़ी है दंभ से
पी रहे दिन-रात लहू हम सभी का
बनकर रक्तबीज
जो बढ़ रहे हर रोज़
क्या तुम भी इन्हें देखकर सहम गई हो ?

हे काली !
कभी आओ बन के कहर
कलियुग के असुरों पर ,
टूट पड़ो अचानक
भर लो अपना खप्पर
दिखा दो कि संज्ञाशून्य नहीं हो तुम
या किस प्रलय की प्रतीक्षा है ?

हे शंकर !
बजा दो डमरू
इन बहरे कानों पर
दिखा दो तांडव
कर दो रक्त-रंजित आसुरी-राज
मचा दो प्रलय
बेध दो त्रिशूल से
इनके दर्पयुक्त  माथे
बन जाओ शिव
या ऐसे ही मारे जायेंगे तुम्हारे भक्त ?

हे साईं  !
कभी उन पर दया मत करो
जो चढाते हैं तुम पर करोड़ों
बनाते हैं मोटा माल
और हड़पते हैं दूसरों का हिस्सा
अपना हाथ हटा लो
ऐसे न बांटो बख्शीश
तुम्हें देकर रिश्वत
वे पा रहे हैं अभयदान
तुम्हारा भक्त आज क्यों है सवाली ?

 

14 अक्तूबर 2012

सवालों के जवाब !

सोचता हूँ जब भी उसके बारे में
आ जाते हैं नए सवाल,
जवाब ढूँढने के लिए फ़िर से
उसकी ही ओर ताकता हूँ |
उसके साथ मेरा
वैसे कोई बंधन नहीं है,
फ़िर भी न जाने
किस जोड़ ने हमें बाँधा हुआ है ?
ऐसा भी नहीं है
कि उसके सवालों के जवाब
नहीं हैं मेरे पास ,
पर कुछ सवालों को मैं
रखना चाहता हूँ अनुत्तरित |
ऐसे सवालों के उत्तर
समय के साथ
मिल जायेंगे उसे
और मुझे भी मेरा अपना |

11 अक्तूबर 2012

प्रार्थना !

हे प्रभु मुझको पार लगा दो,इस जीवन के सागर से |
मैं तो कब से आस लगाये बैठा हूँ,नट नागर से ||

तेरी ही महिमा से जग का
होता है सञ्चालन,
ऊँच-नीच का भेद भुलाकर
करते सबका पालन,

कर दो कृपा-दृष्टि ऐ भगवन !अभयस्वरुपी वर से |
हे प्रभु मुझको पार लगा दो ,इस जीवन के सागर से || 

सारे जग में खेल है तेरा
तू है कुशल मदारी,
खाली झोली भर दो मेरी
हे भोले-भंडारी,

मुक्ति दिला दो हे प्रलयंकर!इस शरीर-नश्वर से |
हे प्रभु मुझको पार लगा दो,इस जीवन के सागर से ||


रचनाकाल:०८/०९/१९९०,फतेहपुर
 

4 अक्तूबर 2012

हम सयाने हो गए !

बचपन में
आँगन से लेकर दुआर तक
दौड़ते थे साथ-साथ बड़ी बहन के,
दहलीज़ और डेहरी को
हमारे छोटे-छोटे पाँव
लांघते थे बेखटके
करते थे अठखेलियाँ
खेलते थे लुका-छिपी
दरवाजे की ओट में !

बहन जब पाथती थी गोबर
रहते थे साथ-साथ
वो बनाती थी कंडे
हम बिगाड़ते थे उनको
होली के आस-पास
हम दोनों मिलकर
बनाते थे होरी-बल्ला
गोबर में उकेरते
मछली,तितली,सूरज और चाँद 
आंगन में बनती रंगोली
बहन लीपती थी चौरा
और हम खोद डालते थे नहा !

सयानी बहन का 
दहलीज़ व डेहरी से
बाहर का सफ़र
अच्छा नहीं रहा ,
निकल गई वह घर से
हो गई पराई हमेशा के लिए, 
डेहरी को मैं समझता रहा 
उसका वास्तविक वारिस 
पर मैं भी तो नहीं रह पाया उसके पास 
रोजगार की तलाश में छोड़ आया
दहलीज़,डेहरी और खमसार  को
बना लिया आशियाना
दस बाई दस के बैरक को

छूट गए सारे रिश्ते
चंद कागज के पुलिंदों की खातिर
नहीं बचा पाए 
वो ऊँचा रोशनदान  
कमरे की खुली खिड़की
आँगन से लगा दालान
याद आती हैं हर रात
अम्मा की कहानियां
और अलस्सुबह
पिता की झिड़की !

अब बहन और हम
दोनों सयाने हो गए
अपनी धरती और अपनों से
दूर-दूर बो गए !