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26 अप्रैल 2012

उभार की सनक या बिकने की ललक !

आज  हर क्षेत्र में हो रहे नैतिक-मूल्यों के ह्रास का परिणाम  अब  समाज को ख़बरदार  करने वालों पर भी दिखने लगा है।देश की जानी-मानी पत्रिका इंडिया टुडे  के ताज़ा अंक में स्त्रियों के वक्ष-उभार को लेकर नकली चिंता जताई गई है,जबकि इस बहाने पत्रिका ने 'प्लेबॉय' और 'डेबोनेयर' को भी मात देते हुए मुखपृष्ठ पर एक बेहद भड़काऊ और अश्लील चित्र छापा है.पत्रिका के अंदर क्या है अब यह बात गौड़ हो गई है,उसका कंटेंट चाहे बहुत शोधात्मक हो पर यह सब बिना ऐसे चित्र को दिखाए भी किया जा सकता था.इस पत्रिका ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों संस्करणों में यह निंदनीय कृत्य किया है !

'उभार की सनक' नाम से आवरण-कथा छापना और जानबूझकर आपत्तिजनक चित्र लगाना पत्रिका के मुख्य उद्देश्यों को उद्घाटित करता है.संपादक महोदय इसे कहानी की मजबूरी बता कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं पर क्या किसी बलात्कार या अन्य अपराध की खबर को बिना सजीव-चित्र दिए नहीं बताया या समझाया जा सकता है? यह प्रकरण बताता है कि पत्रिका अपनी गिरती हुई साख को इस तरह के हथकंडों से बचाना चाहती है.अगर उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं है तो क्या इस तरह की उल-जलूल हरकत करके उस साख को बचाया जा सकता है ? ज़्यादा समय नहीं बीता  जब इसी पत्रिका के एक महान  संपादक को राजनीतिक गलियारों में सौदेबाजी के लिए जाना गया था.अब उनका अन्यत्र पुनर्वास भी हो गया है ,जिससे पता चलता है कि पत्रकारिता में भी राजनीति का रोग लग गया है.वर्तमान कार्यकारी संपादक यहाँ आने के पहले कई तरह के सामाजिक सरोकारों के प्रति चिंतित दिखाई देते थे,पर उस समूह में वे भी अच्छी तरह से रच-बस और खप गए हैं !

 इस पत्रिका को चलाने वाला एक ख्याति-प्राप्त मीडिया-समूह है.सबसे तेज चैनल भी उसके पास है,जिसमें अंध-विश्वासों से तालुक रखती कथाएं बिना किसी हिचक के चलती रहती हैं.बाबा से विज्ञापन लेकर उसे खबरों में दिखाना और बाद में उसी बाबा के खिलाफ ख़बरें दिखाना यानी दोनों तरफ बाज़ी अपनी.इस काम में तकरीबन सभी लगे हुए हैं.'इंडिया टुडे' की ताज़ा स्टोरी बताती है कि उसे केवल अपने व्यावसायिक हितों की चिंता है और इस आंड़ में चाहे पूरी स्त्री जाति शर्मसार हो,उसे कोई मतलब नहीं है.

इस पत्रिका में भले ही हम किसी गंभीर कहानी को पढ़ रहे हों,तब भी छोटे बच्चे ऐसे चित्रों वाली पत्रिका के बारे में क्या सोचेंगे? क्या हम ऐसी पत्रिका को बिना किसी संकोच और शर्म के पढ़ सकते हैं ? हाँ,यदि ऐसी बातें आये दिन होती रहीं तो निश्चित ही शर्म-संकोच इतिहास की चीज़ हो जायेगी.इलेक्ट्रोनिक-मीडिया में पहले से ही अश्लील विज्ञापन आते रहते हैं पर वे थोड़ी देर में चले जाते हैं,इसके उलट प्रिंट-मीडिया में ऐसे चित्र देर तक और गहरा प्रभाव डालते हैं.इस तरह का कृत्य करके पत्रिका ने स्पष्ट कर दिया है कि उसे किसी भी मुद्दे की गंभीरता से कोई लेना-देना नहीं है,उसे हर हाल में बस बिकना है ! इस काम में वह मॉडल भी बराबर की जिम्मेदार है जो दुर्भाग्य से ग्लैमर और पैसों के लिए अपनी देह का नग्न-प्रदर्शन कर रही है !

98 टिप्‍पणियां:

  1. बेचने के चोंचले हैं सब...न सनक...न चिन्ता।

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  2. बेहद ईमानदारी से उठाया गया विषय ।

    ड्राइंग-रूम की शोभा

    अब बेडरूम तक सीमित ।।

    विश्लेषक का आभार ।।

    भौंडी हरकत कर रहे, सुविधा-भोगी लोग ।
    गुणवत्ता को छोड़कर, निकृष्ट अधम प्रयोग ।

    निकृष्ट अधम प्रयोग, देख व्यापारिक खतरा ।
    दें अश्लील दलील, पृष्ट पर पल-पल पसरा ।

    कब बाबा का भक्त, बने कब सत्ता-लौंडी ।
    प्रामाणिकता ख़त्म, करे अब हरकत भौंडी ।।

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  3. napaatula laekh haen aap kaa aur is prakaar kaa vidroh jaari rehna chahiyae .

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    1. आभार रचना जी!
      हर सामाजिक-मुद्दा एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए ज़रूरी है !

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  4. निंदनीय तो है . लेकिन विरोध से कुछ नहीं होने वाला .
    स्वयं न खरीदें , यही कर सकते हैं .
    बाकि तो --- कहाँ कहाँ से गुजर गए .

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  5. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ||

    सादर

    charchamanch.blogspot.com

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  6. क्‍या कीजै, चलिए आपने लिंक से काम निपटा लिया.

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    1. ..हमने एक मुद्दा उठाया है,अगर इस पर कोई सार्थक-परिणाम निकले तभी फायदा !
      आपका आभार !

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  7. नग्नता दिखाकर पैसा कमाने का आसान तरीका,...
    उपाय सिर्फ,हम सब इसका विरोध करे,और ऐसी पत्रिकाओं को न खरीदें,...

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    1. ...उन्हें न पढ़ने से भी ज़्यादा मसला हल नहीं होगा.विरोध तो हम कर ही रहे हैं !

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  8. माट्साब!!
    बहुत पुरानी बात याद आ गयी.. शमशाद बेगम पार्श्व गायन में तब बिलकुल नयी थीं और एक संभ्रांत परिवार से आती थीं.. उन्हें पहला गाना मिला "मेरे जोबना का देखो उभार".. यह गीत उस समय के हिसाब से बहुत उत्तेजक भी था और परिपाटी के विरुद्ध भी.. उन्होंने नयी गायिका होते हुए भी मना कर दिया!!
    आज जब "हेट स्टोरी" के पोस्टर हर प्रमुख मेट्रो स्टेशन के प्रवेश द्वार पर लगे हैं और सेंसर बोर्ड ५९ कट के बाद भी 'द डर्टी पिक्चर' का प्रदर्शन रोक देता है.. जब इतने दोहरे मानदंड हों तो इस तरह के मीडिया हाउस और इनकी फूहड़ स्ट्रेटजी की बात ही बेकार है!!
    आपने इस मुद्दे पर संवेदनशीलता दिखाई, इसके लिए धन्यवाद!!

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    1. सलिलजी....नई पीढ़ी को इस नग्नता का आदी बनाया जा रहा है ,आधुनिकता के नाम पर ! हमें खराब इसीलिए लगता है कि हमने 'वो' दौर भी देखा है,शायद इसी लिए 'मोस्ट बैकवर्ड' कहे जाते हैं !

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  9. आज सुबह हिंदुस्तान में एक खबर पढ़ी थी...नौकरानी को अगर घूरा तो खैर नहीं। सरकार नये सत्र में कार्य स्थल पर यौन हिंसा रोकने संबंधी कोई विधेयक लाने जा रही है। दूसरी ओर फिल्मों में अश्लीलता की बाढ़ सी आ गई है। चोर से कहो चोरी करो, साव से कहो सावधान रहो..! का दोहरा राजनैतिक मापदंड!!

    अब जिसके भरोसे नैया पार करने की आश लगाये बैठी है जनता, वह मीडिया भी चर्चा के नाम पर हिंसा व अनाचार को बढ़ावा देने वाली खबरें छाप रही है..!! मीडिया का दोहरा आर्थिक मापदंड!!

    आम मध्यम वर्गीय जनता आखिर करे तो क्या करे? जीये तो कैसे जीये? आखिर इसका पूरा दंश तो उसी को भोगना है!

    संवेदनाओं को हिलोड़ती बढ़िया पोस्ट है । एक काम और अच्छा किया..लिंक दिया पर तश्वीर ब्लॉग पर नहीं छापी। इसके लिए भी आपको धन्यवाद देता हूँ।

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    1. सिर्फ घूरने पर पाबंदी लगाई गई है। सिर्फ घूरना जुर्म हो गया है। घूरने वाले नौकरानियों के इर्द गिर्द घूमने से परहेज करें। हौसले वाले का स्‍वागत सदा की तरह होता रहेगा।

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    2. देवेन्द्र जी इस विश्लेषण के लिए आभार आपका !

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  10. पहले कवर पृष्ठ का लिंक दीजिये तब कुछ कह सकूंगा -अन्यथा इस तरह की नपुंसक बौद्धिकता की जुगाली की आदत मुझे नहीं है !

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  11. ओहोहो चित्र का लिंक तो है -यह तो बहुत खूबसूरत है -आप लोग कहाँ कहाँ से पकड़ के लाये गए हैं महाराज
    मुंह में राम बदन पर रामनामी और कर्म गुह्य निषिद्ध -यह देश ऐसे ही दोहरे मानसिकता वालों से भरा पड़ा है
    किसे अपीज कर रहे हैं -इतने सुन्दर श्लील चित्र को गन्दा बताकर किसे इम्प्रेस कर रहे हैं?
    लगता है आप लोगों के दिमाग का आपरेशन करना पड़ेगा और सौन्दर्यानुभूति के शुष्क क्षेत्र को स्पंदित करना होगा!
    बने रहिये भारतीय द्वैध दुविधा और भोथरी नैतिकता के लम्बरदार ....

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    1. गुरूजी,आपने इस मुद्दे को हमारी नज़र से नहीं देखा.हमने पत्रिका की नीयत पर सवाल उठाया है .हम यह भी जानते हैं कि इससे भी बेहूदे चित्र रोज़ हम टीवी चैनल और समाचार पत्रों में देखते हैं,पर क्या बार-बार दिखाने से कोई गलत बात सही हो जायेगी ? यहाँ मुख्य मसला यह था कि इस चित्र को मुखपृष्ठ पर जानबूझकर डाला गया.अंदर के पन्नों में ऐसी सामग्री के लिए हम सामान्य हो गए हैं.यह ग्लैमर या फैशन की पत्रिका नहीं है इसलिए इससे ऐसा करना अनपेक्षित था.

      बहरहाल,आपके अपने विचार हैं.हमारी आपत्ति का आधार सांस्कृतिक,सामाजिक और नैतिक है,इसलिए हम इस पर कायम हैं ! !

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    2. @बने रहिये भारतीय द्वैध दुविधा और भोथरी नैतिकता के लम्बरदार ....

      पंडित जी,

      जिसे आप भारतीय सज्जन की द्वैध दुविधा समझ रहे है वस्तुतः वह दुविधाग्रस्त है नहीं। अमुमन भारतीय सज्जन चारित्रिक संस्कृति के बचाव और सार्थक आधुनिक विकास का समन्वय करने के लिए संघर्षरत है। वह सभी तरह के खुल्लेपन को आधुनिक विकास नहीं मानता, वह मानव के शान्तिप्रिय संतुष्टिप्रदाता विकास को सार्थक आधुनिक विकास मानता है। चरित्र और जीवनमूल्यों की गुणवत्ता उस आधुनिक विकास में योगदान देगी न कि द्वैध या विरोधाभास पैदा करेगी। भारतीय संस्कृति उस समय का इन्तजार कर रही है विश्व की विकसित सभ्यता तृष्णाओं के भंवरजाल से थक हार कर चरित्र और नैतिक जीवनमूल्यों के ट्रेंड पर आ जाए और भारत आधुनिक विचार या फैशन के नाम उसे अपनाए। तब तक मूल सांस्कृतिक सिद्धांत अगर बचे रह जाय तो भारतीयों के लिए सर्वाधिक सफल मार्ग होगा। और निर्थक पम्परा या रूढ़ियाँ कहकर त्याग दिया तो उस विकास के मार्ग को पश्चिम से ही शतप्रतिशत आयात करना होगा। ऐसी दशा में हम तक मानवीय विकास की अवधारणा भी अशुद्ध रूप में पहुँचे। और उसे परिशुद्ध करने के साधन और सिद्धांत हम पूरी तरह भूल चुके हों। इसलिए यह द्वैध नहीं समन्वय का संघर्ष है।

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  12. इस पोस्ट में व्यक्त आपके विचार से पूर्णतया सहमत। आजकल तो विज्ञापन भी देखने लायक न होते जा रहे हैं। एक दाढ़ी बनाने के ब्लेड में यह प्रचार किया जा रहा है कि आप इस ब्लेड से दाढ़ी बनाएं तो आपको किस मिलेगा। और लिप-लॉकिंग किस कई बार उस छोटे से विज्ञापन में दिखाए जा रहे हैं।

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    1. टीवी तो पहले से ही बेहूदा विज्ञापन दिखा रहा है,यहाँ तक कि ख़बरों में भी.
      ..अब बच्चों के आगे हमें झेंप आती है.प्रिंट-मीडिया को इससे बचना चाहिए !

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  13. उभार ही तो बिकता है।
    हल्‍का वैसे भी कौन खरीदता है।
    भार का ही बाजार है।
    बाकी सब बेजार है।
    भारी सिर्फ पैसा है
    दाम है
    महंगा सिर्फ बादाम है।

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  14. संतोष जी बेचने के लिए लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं.. संतुलित पोस्ट..पहले तो अख़बार का सप्लीमेंट पन्ना को बच्चों से दूर रखता था अब पत्रिका भी...

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  15. अब इस पत्रिका को खरीदकर घर ले जाने से पहले कई बार उलट-पुलटकर देखना पड़ता है।
    बच्चे आजकल प्रश्न बहुत पूछते हैं?

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    1. सिद्धार्थ जी, अभी गनीमत है कि बच्चे सवाल पूछते हैं.ऐसा ही आलम रहा तो वे भी माँ-बाप के सामने बिना शर्म-संकोच के हो जायेंगे.आखिर कहीं तो कोई लक्ष्मण-रेखा हो !

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  16. बिना लिंक या तस्वीर दिए पोस्ट का लिखा जाना यह साबित करता है कि आप इस तरह के दुष्प्रचारों के सहयोगी नहीं है ...साधुवाद !

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  17. तालिबानी सोच का नमूना.
    मज़मून लिखने से कुछ होगा नहीं सिवाय इश्तेहार के.
    आपने मैग्ज़ीन को फ़ायदा पहुंचाया.
    नुक्सान पहुंचाना आपके बस में नहीं है.

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  18. सुना है पत्रिका में स्त्री-पुरुष दोनों की ही सौंदर्य के प्रति बढ़ती ललक के विषय में लिखा गया है. उस पर कोई आपत्ति नहीं. आपत्ति इस बात पर है कि पत्रिका के मुखपृष्ठ पर स्त्री-वक्ष की तस्वीर क्यों प्रकाशित की गई? जाहिर है कि ये भी स्त्री-सौंदर्य के बाजारीकरण की रणनीति का एक हिस्सा है. जिसके तहत बाज़ार में वही दिखाया जाता है, जो कि पुरुष देखना चाहते हैं.
    किसी कमर्शियल विज्ञापन की बात अलग है. ये पत्रिका एक ज़िम्मेदार प्रकाशन समूह की है.

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    1. मुक्तिजी ,यह पत्रिका 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' और 'धर्मयुग' के विकल्प में यह सब कर रही है.उसे सामाजिक सरोकार से कोई मतलब नहीं और न ही उसे किसी की संवेदनाओं की चिंता है.यहाँ उसके विषय या कंटेंट पर आपत्ति कम उसकी फूहड़ता पर ज़्यादा है !

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  19. त्रिवेदी जी,
    आप इतना क्यूँ घबरा रहे हैं...धीरे-धीरे आपको भी आदत हो जायेगी..
    ये हमारे-आपके चीखने चिल्लाने से बन्द होने वाला अब नहीं है...बात हाथ से निकल चुकी है...अब भारत भी individualistic society बनने कि दिशा में अग्रसर है...आज का नौजवान अपने जीवन कि बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में लेना चाहता है...आप अपने बच्चे से अब नहीं कह सकते ये काम मत करो, वो काम करो...वो आपसे कह देगा This is none of your business...सभ्यता-संस्कृति जैसी चीज़ें अब हमारी पीढ़ी तक की ही बात है, बाद में ये किताबों में मिलेगी.....आने वाले दिनों में शरीर, शादी इनका सिर्फ़ इस्तेमाल होगा..यही भविष्य है...
    कमीना शब्द अब उतना बुरा नहीं लगता, डेटिंग को हमने अपना लिया, लिव-इन रिलेशन की आदत हो ही जा रही है, तो ये भी आप झेल जायेंगे...बस कुछ दिनों की ही बात है...
    और फिर आपका यह कहना कि ऐसी तस्वीर कवर पर क्यूँ है अन्दर होती तो बुरा नहीं लगता...ही इस बात का पक्ष लेता हुआ लगता है...आपको तस्वीर से शिकायत नहीं है, वो कहाँ है इससे शिकायत है....
    हाँ नहीं तो..!!

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    1. अदा जी,
      आपने ज़मीनी हकीकत बयान की है. मैं जानता हूँ कि मेरे लिखे से कोई क्रन्तिकारी बदलाव नहीं आना है,पर कुछ ऐसा है जो खटकता है और वही अब तक बचा हुआ है.नई पीढ़ी इन मूल्यों को जानती ही नहीं तो अवमूल्यन का खतरा भी नहीं रहेगा.

      ..अंदर के पन्नों के आदी हम भी हो चुके हैं इसलिए वहाँ उसकी उपस्थिति खराब लगते हुए भी उतना नहीं खटकती ! आने वाली पीढ़ी को कोई फर्क पड़ेगा ही नहीं,इसीलिए अब वैवाहिक-सम्बन्ध भी उतने टिकाऊ नहीं रह गए हैं,लिव-इन रिलेशन-शिप के ज़माने में...हाँ,नहीं तो !

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  20. आज एक आइटम सोंग देखा, 'चीनी' मालूम नहीं किस फिल्म का है और क्या गा रहे थे वो लोग ...बालिका के वस्त्र विन्यास देख कर, आज शर्म नहीं आई...मैं बस गनीमत मनाती रही...शुक्र है लड़की ने कुछ तो पहन लिया वरना क्या होता ...भगवान् जाने...
    सच में मैं उस लड़की का अहसान मानती हूँ, जिसने हमारी लाज रख ली...अपनी वो रखे न रखे उसकी मर्ज़ी..

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    1. अदा जी !
      मुझे याद है कि जब मेरा बेटा तीनेक साल का था तो टीवी देखते समय ऐसे दृश्य आने पर झेंप जाता था या नज़रें घुमा लेता था,पर आठ साल का होते-होते अब टकटकी लगाकर देखता है.उसे सब सामान्य-सा लगता है !

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  21. नि:संदेह पहला अधिकार उस लड़की का है जिसने कवर पेज बनना स्वीकार किया होगा ! कारण उसे पता होंगे और नैतिकता के तकाजे भी ! यह भी निश्चित जानिये कि लड़की नाबालिग नहीं है और अपना भला बुरा समझती है ! आपकी तर्ज़ वाली नैतिकता आप उसपर थोप नहीं सकते !

    विश्वास कीजिये इंटरनेट में सबसे ज्यादा हिट पोर्न साइट्स पर पड़ती हैं और इन साइट्स को खोजने वाली अंगुलियां भी हमारी आपकी हैं ! देह के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है यह हमारी बेसिक इंस्टिंक्ट है ! हम अपनी इंस्टिक्ट से दो तरह से पैसा कमा सकते हैं एक या तो देह बेचकर याफिर देह की फोटो बेचकर ! दूसरा विकल्प पहले विकल्प से हर सूरत बेहतर है ! बाजार में पत्रिका और उसकी माडल दानपुण्य के लिए तो अवतरित नहीं हुए हैं ! उनके अपने व्यावसायिक हित हैं , अपने निर्णय हैं ! आपको नहीं देखना मत देखिये !

    वर्षों पहले एक फ़िल्मी नायिका ने बाडी पेंट करवाया था तो उससे क्या फर्क पड़ा ? कितने लोग प्रेरित होकर बाडी पेंट कराने लगे ? कौन से समाज का पराभव हो गया ? नौटंकी हम देखते हैं / मुज़रा हम देखते हैं / कोठे पर हम जाते हैं / वेश्यागामी / बलात्कारी भी हम ही हैं ! खजुराहो से आपत्ति हमें नहीं तो फिर मैग्जीन और उसकी माडल का अपने व्यावसायिक हित साधने का अधिकार हम क्यों छीनना चाहते हैं ! अगर माडल से बलात यह सब करवाया गया हो तो बेशक मैं आपके नज़रिए के साथ हूं ! वर्ना पोर्न साइट्स की हिट्स याद रखिये जोकि हम ही हैं !

    अपने दिल पे हाथ रखिये , हिट्स से मुंह मोड़िये , बेसिक इंस्टिंक्ट के ग्राहक मत बनिये , समस्या का समाधान बिल्कुल वैसा ही हो जाएगा जैसा आप कि चाहते हैं :)

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    1. अली साब !
      आपने जीतते उदाहरण दिए हैं ,तकरीबन सब अपनी जगह दुरुस्त हैं पर फिर भी ऐसे कृत्यों को वैधता नहीं दी जा सकती हाँ,बार-बार झूठ बोलने से वह सच हो जाता है,ऐसा गोयबल्स भी मानता था !

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  22. agar koi bhi chahtaa haen ki uskii agli peedhi naetik banae to usko khud naetik hona hogaa , dikhna nahin

    chitr jaruri nahin haen ki kisi model kaa hi ho yae ab art work hotaa haen jo adobe photoshop par koi bhi artist banaa saktaa haen is liyae yae kehna नि:संदेह पहला अधिकार उस लड़की का है जिसने कवर पेज बनना स्वीकार किया होगा ! कारण उसे पता होंगे और नैतिकता के तकाजे भी ! यह भी निश्चित जानिये कि लड़की नाबालिग नहीं है और अपना भला बुरा समझती है ! आपकी तर्ज़ वाली नैतिकता आप उसपर थोप नहीं सकते !bahut sahii nahin haen

    taknik sae yae sab print media mae hotaa haen . bahut sae chitr fake hotae haen jo aap ko illusion daetae haen

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    1. रचना जी,
      टीवी पर जीती-जागती मॉडल भी क्या आर्ट-वर्क का नमूना हैं ? इसी तरह एक-आध अपवाद को छोड़कर अधिकतर मामलों में मॉडल (स्त्री या पुरुष) जानते हुए भी अंग-प्रदर्शन करते हैं और इसकी तरफदारी किसी लिहाज़ से ठीक नहीं है !

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    2. @ रचना जी ,
      मेरी जानकारी के मुताबिक़ यह जीती जागती ऐक्ट्रेस रिहाना का फोटो है ! यह आपकी कल्पना की तकनीक पर आधारित फर्जी चित्र नहीं है !

      नई पीढ़ी पपेट नहीं है जो कथित रूप से मेरी नैतिकता के इशारों पे पलने / चलने वाली है ! हर जन समूह और हर काल खंड के अपने नैतिक मानदंड होते हैं इसलिए दूसरों के अधिकारों का हनन और उन पर अपने ब्रांड की नैतिकता आरोपित करने की ख्वाहिश नहीं पालते हम !

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    3. maene tarafdaari nahin kii haen kabhie bhi nahin
      aese chitr tayaar bhi kiyae jaa saktae maene aesaa kehaa haen
      aur taknik maeri kalpna mae nahin haen yae adobe photoshop mae haen

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    4. aur meri jigyasaa haen ki kyaa yae model bhartiyae muul ki haen ???

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    5. देशी लोग विदेशों में काम नहीं करते जो ऐक्ट्रेस का विदेशी होना सवाल हुआ ?
      देशी होना शर्त हो तो पूनम पाण्डेय का हूबहू चित्रण वहीं मौजूद है !

      एडोब फोटोशाप की जानकारी इस बंदे को भी है ! आपने माडल को कल्पना बताने के लिए जो कल्पना लगाई बस इसी लिए कहा और कोई आशय नहीं !

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    6. maaf kijiyega..theek se paste nahi ho paayi tippani..dobaara daal rahi hun...

      ज़रूरी नहीं कि आप नीतिवान हैं तो आपकी आने वाली पीढ़ी भी नीतिवान होगी ही ...ह्रिरन्यशिपू का बेटा प्रहलाद हो सकता है और विश्रावा का पुत्र रावण...
      चित्र फोटोशोप से बना हो या फोटोग्राफ हो...मतलब होना चाहिए इसका मकसद क्या है...
      फिर ये भारतीय मूल मॉडल हो या पश्चिमी मूल की इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.....
      छापना वाला कौन है और टार्गेट औडिएंस कौन है ये मायने रखता है...
      फिर ये भी नज़र नज़र की बात है...शकुंतला कि पेंटिंग्स जितनी भी बनायीं गईं हैं...देहयष्टि और भंगिमा में इनको दर्शाया जाता है...लेकिन हम उन तस्वीरों को देख कर अच्चाभित नहीं होते...परन्तु इन तस्वीरों को दिखाने का मकसद ही बाजारवाद है...और हमारी इस बारे में विवेचना उनके मकसद की सफलता...

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  23. माना कि उनके व्यवसायिक हित है, और वे उनके अधिकार है।
    माना कि मोडल को अपने व्यस्क निर्णय का अधिकार है।
    माना कि सौन्दर्यानुभूति से गुदगुदी पाकर मदमस्त रहने का सभी को अधिकार है।
    माना कि मानव के आधारभूत दैहिक आकृषण स्वभाव का दोहन करने का हर किसी को अधिकार है।
    यह भी कि नैतिक रहने का जोर हम किसी पर डाल नहीं सकते।

    लेकिन इस सबके बीच क्या समाज का कोई अधिकार नहीं?
    नैतिकता के काल खंड के अपने नैतिक मानदंड होते हैं, लेकिन जो लोग पतनोमुख मानदंडो से बचे रहना चाहते है उनके कोई अधिकार नहीं? क्योंकि यह सब सार्वजनिक होता है, विरोध करना लाजिमि है क्योंकि प्रभाव उस वर्ग पर भी पडता है जिन्हें अपने नैतिकमूल्यों में गिरावट वाला मानदंड पसंद नहीं,क्या उनहें बचाव का भी अधिकार नहीं? बडी सहजता से कह दिया जाता है जिन्हें नहीं देखना न देखे!! चारों और से सार्वजनिक प्रचार प्रसार और जिन्हें बचना उनका दुर्भाग? जीवन में ऐसी बेसिक तृष्णाओं के अलावा भी बहुत गम्भीर काम है, भीषण प्रचार प्रसार से अपने तक आने वाले इस अनियंत्रित अश्लील आकृमण से सुरक्षा का उपाय क्या मात्र यही है कि जिन्हें बचना है वे बच कर दिखाए??? तर्क बडा कुटिल है। यह तो ऐसे हुआ जैसे हम तो मशीनगन चारो ओर चलाएँगे गोली से जिन्हें बचना है बिना भागे या बिना विरोध के बच लें!!
    यह सही है कि देह आकर्षण स्वभाविक और प्राकृतिक है, मन काम्य भावनाओं से आनन्दित होता है किन्तु मन को उत्तेजित करने की भावनाएं भी मृगतृष्णा समान है, पहले जब भरपूर वस्त्रों के बाद भी स्पन्दन हो जाता था, आज छोटे वस्त्रों में देखने के बाद भी कोई फर्क ही नहीं पडता, अन्त तक जाते जाते सबकुछ सामान्य हो जाएगा। किन्तु आकर्षण सामान्य नहीं रह पाएगा, फिर तो मन को आन्दोलित करने के लिए अश्लीलता के क्रूर शिखर पर पहुंच कर भी आनन्द से महरूम रहेंगे। जीवनमूल्यों के पतन का यह ट्रेंड है। गर्त को नैतिकता के अपने मानदंड मान कर कैसे किनारे रहें?
    इसलिए अधिकार उनका भी है जो शान्तचित से सतुष्ट जीवन बिता लेना चाहते है।
    अश्लीलता और अनैतिकता अगर सार्वजनिक हो रही है तो उसका विरोध होना ही चाहिए। संतोष जी आपकी चिंताओं से मैं सहमत हूं और आपके विरोध का समर्थन करता हूँ

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    1. सुज्ञ जी,
      जिस बात को मैं साफ़-साफ़ नहीं कह पाया ,उसे आपने सतर्क और बेलाग तरीके से कह दिया है.अब भी क्या मुद्दे को स्पष्ट करने की ज़रूरत है ?

      आपकी टीप इस पोस्ट से भी गहरा प्रभाव रखती है,आभार !

      हटाएं
    2. mera virodh shuru sae hi rahaa haen bas usake saath mae yae bhi kehtee rahee hun ki kewal naari ko / model ko in sab visangatiyon / ashleeltaa ityadi kae liyae jimmedaar naa maane

      हटाएं
    3. प्रिय सुज्ञ जी ,
      आपके विरोध का अधिकार सही तो फिर विरोध का विरोध गलत कैसे ? तर्क आपको कुटिल लगते हैं ये भी कमाल है ! फिर तो बहस ही खत्म :)

      आप जिसे गर्त कहें , जिसे मृगतृष्णा कहें , अश्लील कहें , वही सही , है ना :)

      आप जिन्हें आलोचित कर रहे हैं समाज उनका भी उतना ही है जितना आपका , ना रत्ती कम ना रत्ती ज्यादा !

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    4. सम्माननीय अली सा,

      आपने शायद मेरी बात को गलत लिया है।

      मैनें विरोध के विरोध को कहीं भी गलत नहीं ठहराया है। मैनें तो दूसरे पक्ष के भी अधिकार की बात की है जबकि आपके कथन से एक पक्षीय हुए जा रहा था। कुछ तर्कों को मैने कुटिल अवश्य कहा है क्योंकि उसका आशय यही निकल कर आ रहा था कि नैतिकताएं जिस ओर जा रही है वे ठीक है और जिन्हें इस प्रचार-प्रसार से चिंता हो रही है उनके द्वारा किया जा रहा विरोध अन्य पर अपनी नैतिकता के मापदंड थोपना है। जबकि विरोध का सीधा सा अर्थ बचावपेक्षी है। और अधिकार की बात की गई इसी लिए समाज पर प्रभाव और समाज के अधिकारों की बात की गई। जन समुदाय समूह ही समाज कहलाता है और मैने कहीं भी 'मेरा समाज' नहीं कहा। समाज शब्द में 'समस्त समाज' लेना चाहिए। बेशक समाज उसकी हर इकाई का समान है, और अवमूल्यन का असर भी सम्पूर्ण समाज झेलता है। सार्वजनिकता के मद्देनजर उसकी सामुहिकता पर पडने वाले असर का क्या? और पूछा था उसके सामुहिक अधिकार का क्या?

      तर्क सार्थक और गम्य हो तो बहस में आनन्द आता है, चर्चा जारी रहनी चाहिए :)

      आपके जिस तर्क नें मुझे सोचने पर विवश किया वह यह है-----

      "नौटंकी हम देखते हैं / मुज़रा हम देखते हैं / कोठे पर हम जाते हैं / वेश्यागामी / बलात्कारी भी हम ही हैं ! खजुराहो से आपत्ति हमें नहीं तो फिर मैग्जीन और उसकी माडल का अपने व्यावसायिक हित साधने का अधिकार हम क्यों छीनना चाहते हैं !"

      -आपने मॉडल, मैग्जीन, खजुराहो, के अधिकार संरक्षण के साथ ही कोठा, वेश्या और बलात्कारी सभी के प्रस्तुतिकरण अधिकारों को समान गिना है। ऐसे सार्वजनिक प्रदर्शन प्रस्तुतिकरण या प्रकाशन जितने मेरे लिए गर्तगामी है उतने ही उनके लिए भी जिनके विचारों को आलोचित कर रहा हूँ और हम सभी के समाज के लिए भी, ना रत्ती कम ना रत्ती ज्यादा !
      जारी…………

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    5. सम्माननीय अली सा,

      निसंदेह हमारी संस्कृति में सौन्दर्य, काम आदि से कोई घृणा नहीं की गई है। लेकिन उसे कभी जीवन के प्रधान लक्ष्य की तरह केन्द्रित नहीं किया गया। और न इतना जन सामान्य में प्रचारित प्रसारित किया गया। जैसा कि आज के युग में हो रहा है। और अन्ततः सामान्य स्वीकार किया जा रहा है। क्या खजुराहो हमारी प्रधान संस्कृति थी? उस समय के करोडों मन्दिरों में कोणार्क खजुराहो आदि का प्रतिशत कितना है? कितनी गणिकाएं सार्वजनिक प्रदर्शन करती थी? कितना बडा वर्ग कौनसा वर्ग इस प्रदर्शन से प्रभावित होता था। और आज स्थिति क्या है? नैतिक मूल्य उत्कर्षगामी है या पतनगामी आप ही निश्चय करें। अगर आप यह मानते है कि नैतिकता के मानदंड उतरोत्तर उत्कृष्ट हुए जा रहे है तो मैं क्षमापूर्वक स्वीकार करूँगा कि 'गर्त' कहना अनुचित था।

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    6. प्रिय सुज्ञ जी,
      नौटंकी देखना खुद को आरोपित करने वाला तर्क है ! मतलब यह कि हम करें तो कोई बात नहीं और दूसरा करे तो पाप ?

      जो बंदे खजुराहो के खुलेपन पे आपत्ति नहीं करते उन्हें मैग्जीन और माडल पे आपत्ति क्यों करना चाहिये ?

      पूजा भट्ट ने बाडी पेंट करवाया मैग्जीन में छपा भी क्या बिगड़ गया उससे समाज का ?

      पूजा भट्ट के बाडी पेंट की तुलना में यह चित्र कहां ठहरता है ?

      सबसे स्तब्धकारी यह आलेख जिसे कथा कंटेंट के साथ चित्र के औचित्य के तर्क की परवाह नहीं ! बल्कि उसके उल्लेख से ही इंकार !

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    7. @ आप जिसे गर्त कहें , जिसे मृगतृष्णा कहें , अश्लील कहें , वही सही , है ना :)

      सम्माननीय अली सा,
      नहीं, माननीय मैं कहुँ वह सही नहीं, मैं तो चिंतन का एक विचार मात्र हूँ। और अपने दृष्टिकोण के आयामों को स्पष्ट कर समझने और समझाने का प्रयास कर रहा हूँ। अपनी बात कहने के लिए इन शब्दों का सहारा लिए बिना छूटकारा ही नहीं था। यह शब्द मंथन से पहले ही घृणा उपजाने के उद्देश्य से नहीं किए गए। मांग होने से वस्तु कीमती या आदरणीय नहीं हो जाती, यहां मूल्यों का अधोगमन है अतः 'गर्त' कहना ही सार्थक है।

      'मृगतृष्णा' तो स्वयं सिद्ध है अंगप्रदर्शन करते जाओ, करते जाओं जिज्ञासावृति की तृष्णा शान्त नहीं होती। हां पिछले अंगप्रदर्शन के प्रति सम्वेदनाएं नासूर बन जाती है पर सौन्दर्यपान से आवेगपान बन जाने के बाद भी पिपासा का शमन नहीं होता। जैसे जैसे अनावृत दृश्य आम होते है सम्वेदनाएँ शिथिल होती जाती है और जानने की जिज्ञासा-तृष्णा प्रबल। यह मृगतृष्णा नहीं तो क्या हौ?
      यही उभार बच्चे को दूध पिलाने के लिए अनावृत होते तो श्लील कहता जबकि माताएं ऐसे में भी सावधानी बरतती है। कामेच्छा जगाने के लिए ही दृश्यमान या प्रसंस्करण करना अश्लील नहीं तो क्या है?
      बाकि विद्वानों के सार्थक विचारों को हृदयगम करने को तत्पर!!

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    8. प्रिय सुज्ञ जी,
      यह सही है कि संवाद में शब्दों का चयन आपने जाने गये अर्थ के अनुसार ही किया जाता है किन्तु यही तर्क दूसरी पार्टी का भी हो सकता है !

      बहुत पहले राजकपूर ने मंदाकिनी नाम की अविवाहित युवती को मातृत्व की श्लीलता की ओट से प्रस्तुत करके सेंसर बोर्ड का सामना किया था ! क्या उसका निहित उद्देश्य व्यवसायिक नहीं था ? क्या आप कहेंगे की मंदाकिनी ने अश्लीलता फैलाई थी ?

      इसलिए कहता हूं कि चित्र को उसके सन्दर्भ से काट कर अश्लील कहना उचित नहीं है ! व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि अश्लीलता और श्लीलता नारी देह में नहीं हमारे मन में होती है ! इसलिए नारी देह से ज्यादा अपनी वासनाओं संबोधित करने की आवश्यकता है ! यहां जहां मैं रहता हूं गरीबों की बस्तियां है पहनने के लिए ब्लाउज होना विलासिता है कुछ फुट कपडे का एक टुकड़ा पूरे शरीर को कैसे ढकता होगा ? जवां होती लड़कियों को क्या तब भी अश्लीलता फैलाने वाला , गर्त में ले जाने वाला कहा जाएगा ? अंग प्रदर्शन करने वाला कहा जायेगा ? इसलिए फिर से कहता हूं सन्दर्भ काट के चित्र को अश्लील कह देना अनुचित है !


      मुझे लग रहा है कि मेरी टिप्पणियाँ स्पैम हो रही हैं इसलिए खेद सहित !

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    9. @ नौटंकी देखना खुद को आरोपित करने वाला तर्क है ! मतलब यह कि हम करें तो कोई बात नहीं और दूसरा करे तो पाप ?

      @ जो बंदे खजुराहो के खुलेपन पे आपत्ति नहीं करते उन्हें मैग्जीन और माडल पे आपत्ति क्यों करना चाहिये ?
      सम्माननीय अली सा,

      >>सबसे पहले तो हमें कोई पता नहीं वे कौन है जो स्वयं अश्लीलता का सेवन करते है पर दूसरे करे तो आपत्ति करते है। इस चर्चा में तो हमारे समक्ष ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं।
      ऐसे लोगों की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता किन्तु ऐसे दोगलों की संख्या सीमित ही होती है। फिर भी डबल स्टैनडर्ड लोगों की विध्यमानता के आधार पर कोई भी बुराई अच्छाई में नहीं बदल जाती, उसी तरह उनके बल पर कि वे प्रयोग करते है, अश्लीलता श्लीलता नहीं मानी जानी चाहिए।
      खजुराहो के खुलेपन और मैग्जीन प्रकाशन की तुलना तथ्यपूर्ण नहीं है। खजुराहो समग्र समाज में प्रसारित नहीं होता, अव्यस्क बच्चों को उससे दूर भी रख सकते है। विचलित करने में असमर्थ प्रस्तर आकृतियां है। जबकि मैग्जीन प्रसार पाता है आज के युग में तो लाख प्रयत्न के बाद भी उससे बच पाना सम्भव नहीं। प्रभाव के कारण आपत्तिजनक है।

      लेकिन ऐसा क्यों होता है कि किसी अनुचित का विरोध किया जाय तो सामने दूसरे अनुचित प्रचलन खडे किए जाय? होना तो यह चाहिए कि एक के बाद एक एक कर सभी अनुचित का विरोध किया जाय।

      @ पूजा भट्ट ने बाडी पेंट करवाया मैग्जीन में छपा भी क्या बिगड़ गया उससे समाज का ?
      अली सा,
      समाज के बिगाड को नापने का कोई बैरोमिटर नहीं है। ऐसा भी नहीं कि पूजा भट्ट ने बाडी पेंट करवाया तो रातों रात लाखों लोग ने बाडी पेंट ही करवाए। लेकिन धीरे धीरे लोगों में आती उछ्रंखलता और मनमानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसे कार्य निष्प्रभावी तो नहीं ही होते।

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    10. सम्माननीय अली सा,

      फैशन दिखावा और भावनाओं में उछाल लाने के मक़सद से नग्न होने और अभावों के कारण अनावृत होने की तुलना भी न्यायसंगत नहीं है। आदिवासी और गरीब बस्ती के लोग नग्नता प्रसारित करने के लिए आवरण रहित नहीं होते। वैसे तो नगा साधु और दिगम्बर जैन साधु भी नग्न रहते है लेकिन उन सहित अभावी लोगों का मक़सद कोमल भावनाएँ भडकाने का नहीं होता।
      मंदाकिनी के मातृत्व की ओट में जो कि कहानी के आधार पर दिखाना कोई जरूरी नहीं था निश्चित ही स्व राजकपूर नें दर्शकों की कोमल भावनाएं छंछेडने की मंशा से ही वह सीन डाला था।
      @ इसलिए कहता हूं कि चित्र को उसके सन्दर्भ से काट कर अश्लील कहना उचित नहीं है !

      -यहां चित्र 'सन्दर्भ से काट' कर नहीं उलट सन्दर्भ के साथ और भी अश्लील बन जाता है। क्योंकि मंशा है आकर्षित करने या प्रदर्शनार्थ उभारों को सुडौल बनाना और फैशनपरस्ती की 'सनक' और पत्रिका का उद्देश्य इस सनक पर जागृत करना भी होता तो उसी सनक को दर्शाने की सनक?

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  24. पोस्ट और टिप्पणियां रोचक हैं।
    इस मसले पर गुरु-चेले के विचार अलग-अलग हैं। :)

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    1. ...और आपने अपना कोई बयान दर्ज़ नहीं कराया है,इसी बहाने !

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    2. हमने टिपियाया न- पोस्ट और टिप्पणियां रोचक हैं।

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  25. jahan sirf paisa kamana hi mukhya uddeshya ban gaya ho vahan aur ho bhi kya sakta hai..naitikta ab sirf kuch gini chuni kitabon tak simit rah jayegi...aur agar naitikta sikhane vali kitabon ke cover poage bhi aise banne lage to bhi koi aashcharya ki baat nhi...

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  26. बात तो आप की सोलह आना सही है भाई जी ,

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  27. सम्मान्य अली साब और सुज्ञ जी,
    आप दोनों के महा-विमर्श ने इस पोस्ट को एक नया आयाम दिया है,कुछ ग्रंथियों को खोला है तो कुछ को जकडा है,फिर भी,इस पूरे विमर्श के लिए आप दोनों का साधुवाद.
    अन्य सभी महानुभाव भी धन्यवाद के पात्र हैं !

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  28. सही कहा,।देश की जानी-मानी पत्रिका का जब यह हाल है ,पर इनके बेचने के इस तरीके का पुरजोर विरोध भी होना चाहिये,देश की महिला संगठन क्यों मौन है ?

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  29. उत्तर
    1. दो बार मेरी लंबी लंबी टिप्पणी यह ब्लॉग ठुकरा चुका है अब टाइप करने की हिम्मत नहीं है !

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    2. पाण्डेय जी.....हम तो वैसे ही हैं.अब ये गूगल बाबा हैं जिनकी 'किरपा' से अली साब महरूम हो गए !

      अरविन्द मिश्र जी और अली सा ने वाकई हमारी जिंदगी बदल दी है !

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    3. पाण्डेय जी आप ही कहिये कि संतोष जी की जिंदगी बदलने के लिए हम कैसे जिम्मेदार हुये ? ये तो सरासर इल्जाम है ! बहुत बड़ी साजिश है ! भला हर आदमी अपने सुकर्मो / कुकर्मों और धतकरमों के लिए खुदई जिम्मेदार होता है कि नहीं :)

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  30. संतोष जी अब तो आपके संतोष की सीमा भी अतिक्रमित हो जानी चाहिए ..आपके लघु ब्लागरी जीवन की यह हिट पोस्ट होने जा रही है ..इन दिनों आपके ग्रह नक्षत्र चंगे हैं -यह पहली हिट पोस्ट और कल ही आपकी पहले ब्लॉगर मीट कौमार्य का विमोचन -भाई आप तो टेक आफ कर गए ..बड़ी ईर्ष्या हो रही है बाई गाड! :)

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    उत्तर
    1. यह सब आपकी संगत का असर है.पक्का-लंगोट होते हुए भी आखिर कौमार्य-भंग हो ही गया !

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  31. लोग पैसे के लि‍ए कहीं भी लेटने को तैयार बैठे हैं

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  32. चिंतन के नाम पे व्योपार बढाने का चलन सब कों समझ आता है आज ...

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    1. व्यापार तो ठीक है पर समाज पर गलत असर पड़े ऐसा व्यापार खतरनाक है !

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  33. उत्तर
    1. लेख के मर्म से असहमत तो हैं पाबला जी पर लेखक के दर्द से...?

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  34. ये हमें अमिताभ की फ़िल्म का डायलॉग क्यों सुनाई पड़ रहा है भई!?

    :-)

    इंडिया टुडे के नये अंक की 20 कॉपियां सैनिकों में बाँट देना
    किरपा शुरू हो जाएगी

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    1. ...मगर बाकी सैनिकों ने कौन-सा गुनाह किया है बाबा ...?

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    2. जादा किरपा आनी भी ठीक नहीं ना :-)

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  35. गजब की चर्चा है भाई ..अदभुद!


    मेरा मानना है की सुज्ञ जी को इस विषय पर अपने बहू मूल्य विचार पोस्ट के रूप में भी रखने चाहिए
    हमेशा की तरह बहुत बेहतर ढंग से अपनी बात रखी है ....जितनी तारीफ की जाए कम है

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