अचानक शिक्षा एक गरम विषय हो गया है.एक आध्यात्मिक गुरु के तथाकथित बयान के बाद प्रबुद्ध वर्ग,मीडिया और सरकार जैसे सोते से जागी हो.ऐसा लगता है इसके पहले शिक्षा कोई मुद्दा था ही नहीं.सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इस सबमें असल मुद्दा कहीं पीछे चला गया है.मीडिया की सनसनी में समाज का बड़ा तबका तो साथ हो ही लेता है,सरकार की भी तन्द्रा टूटती-सी दिखती है.ज़रुरत तो यह है कि केवल पैसे बहाने के बजाय आउटपुट देखा जाए !
सरकारी विद्यालयों में आज अराजकता की सी स्थिति देखने को मिलती है.हो सकता है कि इस विषय को ग़लत तरीक़े से कह दिया गया हो पर इससे क्या इन विद्यालयों में गुणवत्ता और वहाँ के वातावरण में क्रान्तिकारी बदलाव अपने-आप हो जायेगा ? कोई अल्प-बुद्धि का ही मनुष्य होगा जो यह कहेगा कि आज के सरकारी विद्यालय नक्सलियों की नर्सरी बन गए हैं.बहुत सारे लोग इन्हीं विद्यालयों से निकलकर देश के शीर्ष पदों पर काबिज़ हैं और वैज्ञानिक या इंजीनियर बने हुए हैं. इसके उलट राजनीति के क्षेत्र में आज भी पब्लिक स्कूलों से पढ़े हुए लोगों की भरमार है.साथ ही पब्लिक-स्कूल आज भी आम आदमी के दायरे से बाहर हैं.वे वहाँ कमाई कर रहे हैं तो सरकारी-विद्यालयों में भी ठेकेदार-प्रणाली अपना रंग दिखा रही है.सरकार अपनी तरफ से बजट का बहुत-बड़ा हिस्सा शिक्षा पर खर्च कर रही है,पर असल में मिल क्या रहा है ?
मुख्य मुद्दा तो आज विद्यालयों में हो रही शिक्षण से इतर हो रही गतिविधियां, आर्थिक अनियमितताओं में संलिप्त शिक्षा-अधिकारियों और नेताओं के घालमेल का होना चाहिए.इसके चलते विद्यालयों में शैक्षणिक माहौल की कमी और छात्रों में घोर अनुशासनहीनता कायम है.छात्र असहिष्णु,हिंसक और उद्दंड हो गए हैं.यह सब अचानक नहीं हुआ है.हमारे नीति-निर्धारक नीतियाँ तो अच्छी बनाते हैं पर वे यथार्थ के धरातल पर वे कितना सही बैठ रही हैं,इसको नज़रंदाज़ कर दिया जाता है.छात्रों में मोबाइल ,सिगरेट और शराब का चलन बढ़ रहा है.कई बार ये साधन शिक्षण-कक्ष तक आ जाते हैं.कुछ कानूनों के चलते शिक्षक उन्हें डाँटने तक से परहेज करते हैं और छात्र उनकी इस लाचारी का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं.
इस हिंसक और गैर-अनुशासित छवि के चलते छात्रों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.उनकी अवस्था ऐसी नहीं होती कि वे इन चीज़ों के दुष्परिणाम भाँप सकें.हमारे समाज में किसी को फुर्सत नहीं कि आखिर इन छात्रों को विद्यालयों से क्या सीख मिल रही है ? चूंकि ऐसे हालात सरकारी विद्यालयों में ही अधिक हैं और इनमें पढ़ने वाले छात्रों के अधिकतर अभिभावकों की पृष्ठभूमि ऐसी नहीं है कि वे इस सबमें दख़ल दे सकें,इसलिए सब कुछ राम-भरोसे चल रहा है.यहाँ यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ये विद्यालय शुरू से ऐसे ही नहीं थे.इस समय हालत ज्यादा ख़राब हैं,तभी आये दिन किशोर छात्र अपने साथियों पर या अध्यापकों पर हमला बोल देते हैं.
अगर ऐसी हिंसा,असहिष्णुता और अनुशासनहीनता व संस्थानिक -भ्रष्टाचार के साए में छात्र रहेंगे तो किस नैतिकता ,चरित्र या राष्ट्र-निर्माण की उम्मीद हम कर सकते हैं ?
सरकारी विद्यालयों में आज अराजकता की सी स्थिति देखने को मिलती है.हो सकता है कि इस विषय को ग़लत तरीक़े से कह दिया गया हो पर इससे क्या इन विद्यालयों में गुणवत्ता और वहाँ के वातावरण में क्रान्तिकारी बदलाव अपने-आप हो जायेगा ? कोई अल्प-बुद्धि का ही मनुष्य होगा जो यह कहेगा कि आज के सरकारी विद्यालय नक्सलियों की नर्सरी बन गए हैं.बहुत सारे लोग इन्हीं विद्यालयों से निकलकर देश के शीर्ष पदों पर काबिज़ हैं और वैज्ञानिक या इंजीनियर बने हुए हैं. इसके उलट राजनीति के क्षेत्र में आज भी पब्लिक स्कूलों से पढ़े हुए लोगों की भरमार है.साथ ही पब्लिक-स्कूल आज भी आम आदमी के दायरे से बाहर हैं.वे वहाँ कमाई कर रहे हैं तो सरकारी-विद्यालयों में भी ठेकेदार-प्रणाली अपना रंग दिखा रही है.सरकार अपनी तरफ से बजट का बहुत-बड़ा हिस्सा शिक्षा पर खर्च कर रही है,पर असल में मिल क्या रहा है ?
मुख्य मुद्दा तो आज विद्यालयों में हो रही शिक्षण से इतर हो रही गतिविधियां, आर्थिक अनियमितताओं में संलिप्त शिक्षा-अधिकारियों और नेताओं के घालमेल का होना चाहिए.इसके चलते विद्यालयों में शैक्षणिक माहौल की कमी और छात्रों में घोर अनुशासनहीनता कायम है.छात्र असहिष्णु,हिंसक और उद्दंड हो गए हैं.यह सब अचानक नहीं हुआ है.हमारे नीति-निर्धारक नीतियाँ तो अच्छी बनाते हैं पर वे यथार्थ के धरातल पर वे कितना सही बैठ रही हैं,इसको नज़रंदाज़ कर दिया जाता है.छात्रों में मोबाइल ,सिगरेट और शराब का चलन बढ़ रहा है.कई बार ये साधन शिक्षण-कक्ष तक आ जाते हैं.कुछ कानूनों के चलते शिक्षक उन्हें डाँटने तक से परहेज करते हैं और छात्र उनकी इस लाचारी का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं.
इस हिंसक और गैर-अनुशासित छवि के चलते छात्रों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.उनकी अवस्था ऐसी नहीं होती कि वे इन चीज़ों के दुष्परिणाम भाँप सकें.हमारे समाज में किसी को फुर्सत नहीं कि आखिर इन छात्रों को विद्यालयों से क्या सीख मिल रही है ? चूंकि ऐसे हालात सरकारी विद्यालयों में ही अधिक हैं और इनमें पढ़ने वाले छात्रों के अधिकतर अभिभावकों की पृष्ठभूमि ऐसी नहीं है कि वे इस सबमें दख़ल दे सकें,इसलिए सब कुछ राम-भरोसे चल रहा है.यहाँ यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ये विद्यालय शुरू से ऐसे ही नहीं थे.इस समय हालत ज्यादा ख़राब हैं,तभी आये दिन किशोर छात्र अपने साथियों पर या अध्यापकों पर हमला बोल देते हैं.
अगर ऐसी हिंसा,असहिष्णुता और अनुशासनहीनता व संस्थानिक -भ्रष्टाचार के साए में छात्र रहेंगे तो किस नैतिकता ,चरित्र या राष्ट्र-निर्माण की उम्मीद हम कर सकते हैं ?
बहुत बढ़िया लेख |
जवाब देंहटाएंतथाकथित श्री सिड़ी के मुंह पर तमाचा ||
उड़ते बम विस्फोट से, सरकारी इस्कूल ।
हटाएंश्री सिड़ी अनभिग्य है, बना रहा या फूल ।
बना रहा या फूल, धूल आँखों में झोंके ।
कारण जाने मूल, छुरी बच्चों के भोंके ।
दोनों नक्सल पुलिस, गाँव के पीछे पड़ते ।
बड़े बढे ही भक्त, तभी तो ज्यादा उड़ते ।।
संतोष जी , खाये पिये अघाये (सु)पुरुष जो ना कह दें :)
जवाब देंहटाएंa good presentation trivedi ji
जवाब देंहटाएंसरकारी स्कूलों को बस आज से तीस वर्ष पहले की गरिमा ही वापस मिल जाये।
जवाब देंहटाएंMUSKIL HI NAHI NA-MUMKIN HAI.....
हटाएंPRANAM.
सरकारी विधालयों की हालत भी सरकारी अस्पतालों जैसी ही है .
जवाब देंहटाएंबहुत गैप है पब्लिक और सरकारी स्कूलों में .
ज्यादातर सरकारी अध्यापकों ने इतनी लापरवाही दिखाई है सिर्फ़ बच्चों को पढाने में, वेतन लेने में नहीं कि जिस कारण अब सच सुनना पढ रहा है। सच हमेशा कडुवा होता ही है।
जवाब देंहटाएंhmmm......vicharneey
जवाब देंहटाएंकथन के निहितार्थ को समझने का प्रयास कर रहा हूँ!
जवाब देंहटाएंमगर यह सही है कि हमें शिक्षा वह नहीं दे रही है जो अभीष्ट था!
मित्र ! अध्यात्म का आकर वैश्विक होता है ,संकुचित नहीं ,उसकी आड़ में राजनीती का प्रणय विकृत होता है ,समाज अराजक हो रहा है उसके परिष्करण की आवश्यकता है , शिक्षा से जुड़े जन पूंजीवाद की तरफ उन्मुख हैं / तो क्या बचता है ? आम आदमी केहिस्से में,रविशंकर का ग्लैमर भरा पूंजीवादी-अध्यात्म जब सापेक्षता का सूत्र लगाता है , तब भूल जाता है की मैकाले की शिक्षा में और भारतीय शिक्षा में अंतर क्या है / ९०% भारतीय जन का आधार ,सरकारी शिक्षालय रहे हैं ,क्या वे नक्सलवादी हैं ? क्या भारतीय शिक्षाविदों का मानसिक स्तर नक्सलवादी है ? या शिक्षा पुरोधाओं का झुकाव नक्सलियों की तरफ है ? या उनके प्रवचन को सही मन लिया जाये तो हमारा ८०-९० % भारतीय नक्सलवादी हैं?धार्मिक विद्यालयों में कट्टरता की पराकाष्ठा है ,उनके प्रति तथाकथित धर्मगुरु का क्या ख्याल है ?.अपने समाज को ही हेय दृष्टि से देखने वाला क्या दिशा दे सकता है ,अंदाजा लगाया जा सकता है / सामयिक आलेख को बधाई जी /
जवाब देंहटाएंअब सरकार अपनी सफाई में कुछ कहे.....
जवाब देंहटाएंइलज़ाम को झुठलाये....
सादर.
सार्थक विश्लेषण!!
जवाब देंहटाएंsarthak post.badhai.हे!माँ मेरे जिले के नेता को सी .एम् .बना दो.
जवाब देंहटाएंआज सबसे उपेक्षित यही क्षेत्र है। और गुरु लोग के प्रवचन ...
जवाब देंहटाएंभगवान भला करे।
समस्या है लेकिन अगर ये स्कूल भी न रहे तो कौन आसरा बनेगा साधनहीन बच्चों का?
जवाब देंहटाएंये हालात भी हमारी प्रशासनिक उदासीनता ही लायी है ..... सार्थक विश्लेषण
जवाब देंहटाएंaajkal ke halat par sarthak post .......
हटाएंभाई जी , आपने समस्या की नब्ज पर ऊँगली रखकर सबको दिखा दिया है कि असली समस्या क्या है ! लोगों को इधर-उधर कि बातें छोड़कर असली बात पर ध्यान देना चाहिए !
जवाब देंहटाएंइस अवस्था की जिम्मेदार भी तो हमारी व्यवस्था ही है...सरकारी स्कूलों को दोष देने के बजाय उनके हालात में सुधार की कोशिश की जानी चाहिए..बहुत सुंदर और सार्थक विवेचन...
जवाब देंहटाएंgovernment needs to give more attention to schools
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