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24 मार्च 2009

वरुण भाजपा के नए हथियार !

अब लगने लगा है कि अपना देश पूरी तरह से चुनावी बुखार की गिरफ़्त में आ चुका है। सत्ता की दौड़ में बने रहने के लिए सभी पार्टियाँ आखिरी वार में जुटी हैं लेकिन भाजपा का चुनावी अभियान बड़ा ही दिलचस्प है। पार्टी के 'पी.एम.' पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी लिए यह आखिरी समर है। इस अभियान की शुरुआत करते हुए नए व आधुनिक तरीके आजमाने का काम शुरू हुआ था पर चुनाव की औपचारिक घोषणा होते-होते पार्टी अपने परम्परागत हथियारों की शरण लेने को मजबूर हो रही है। इसकी खास वजह यही रही कि चुनाव में बहुमत की बात तो दूर उसके अपने सहयोगी दल किनारा करने लगे और पार्टी के अन्दर ही मतभेद शुरू हो गए । ऐसी दशा में आडवाणी जी को अपना 'सिंहासन' बहुत दूर भागता दिखायी दिया और अंत में वरुण गाँधी जैसे छोटे मोहरे को आगे करके हारी हुई बाज़ी को जीतने की कोशिश की गयी । वरुण ने पीलीभीत की सभा में जो कहा उसका जितना प्रचार-प्रसार और जितनी हील-हुज्ज़त हो उतना ही भाजपा से भागती-कुर्सी उसके पास आयेगी,ऐसा उन लोगों को लगता है जो भारतीय मतदाता का मानस ठीक तरह से नहीं जानते । वरुण के कहे हुए शब्दों को यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं है ,वे शब्द भाजपा को थाती और कमाई समझकर अपने पास रख लेने चाहिए क्योंकि चुनाव बाद आडवाणी जी को तसल्ली देने के लिए कुछ नहीं होगा तो वे ही काम आएंगे।
यह भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की विडम्बना ही है कि आप गैर-कानूनी ,गैर-मानवीय बात करके भी अपनी छाती चौड़ी कर सकते हो और यह सोचते हो कि कोई तुम्हारा क्या कर लेगा?
भाजपा ने तो अपना अन्तिम अस्त्र चला दिया है क्योंकि उसे भी पता है कि अगले चुनाव उसे बहुत सुखद परिणाम नहीं देने जा रहे हैं पर वह शायद यह भूल रही है कि आखिरी वार तो मतदाताओं के ही हाथ में है और बहुत दिनों तक उसे कोई बरगला नहीं सकता है।

16 मार्च 2009

पाकिस्तान में लोकतंत्र !

सोलह मार्च के 'लॉन्ग -मार्च' में पाकिस्तान की जनता के अलावा भारत की जनता और मीडिया की निगाहें लगी हुई थीं । शुक्र है कि इसका जो नतीज़ा फिलवक्त आया है वह लोकतंत्र की जीत के रूप में देखा जा रहा है। नवाज़ शरीफ ने वहां के अवाम की नब्ज़ टटोल ली थी और इसी जन-शक्ति के आगे ज़रदारी का कु-राज दम तोड़ गया। फौज़ी बगावत या किसी और तख्ता-पलट की आशंका के बीच पाकिस्तान के अन्दर में तब्दीली आयी है वह काबिले-गौर है पर वहां सत्ता बचाने और पाने का संघर्ष ख़त्म हो गया है, यह मानना बेवकूफ़ी होगी। आसिफ अली ज़रदारी ने बेनजीर की हत्या के बाद हुए चुनावों में स्वयं के लिए जनादेश नहीं पाया था,पर अपने अनुकूल समीकरण पाते ही उन्होंने राष्ट्रपति बनने की जितनी जल्द-बाजी दिखायी थी उसका तो हश्र ऐसा ही होना था।
पाकिस्तान धीरे-धीरे एक ऐसे अंध-कूप की तरह बढ़ता जा रहा है जहाँ गृह-युद्ध जैसे हालात से जूझना होगा। सेना,आई एस आई , तालिबान और कट्टरपंथियों के मुंह में जो खून लग चुका है,उसे साफ़ करने की हिम्मत वर्तमान परिदृश्य में दिखाई नहीं देती है ,अगर मियाँ शरीफ यह थोड़ा भरोसा जगा पाते हैं तो न केवल पाकिस्तान बल्कि पड़ोसी मुल्कों और सारी दुनिया के लिए अच्छा होगा।

10 मार्च 2009

आडवाणी और उनके मुखौटे !

अपने आडवाणी जी वाकई बहुत जल्दी में हैं। 'पी एम इन वेटिंग ' का खिताब पाने के बाद वे 'ओरिजनल' पी एम बनना चाहते हैं। इसके लिए वे युद्ध-स्तर पर काम कर रहे हैं। एक ओर जहाँ वे मनमोहन को सोनिया गाँधी की कठपुतली बनाकर मजाक उड़ा रहे हैं,वहीं दूसरी ओरउन्होंने चुनावी-मैदान में अपने मुखौटे उतार दिए हैं।
आडवाणी जी के मुखौटे उतारने के पीछे यह सोच हो सकती है कि अटल जी तो भाजपा के मुखौटे के रूप में विख्यात थे और वे पी एम भी बने,मनमोहन जी ,उनके अनुसार एक मुखौटे की ही तरह काम कर रहे हैं! फिर गुजरात में नरेन्द्र भाई मुखौटे लगवाकर दोबारा सत्ता पा सकते हैं तो यह 'फार्मूला' अपन पर भी फिट हो सकता है!
दर-असल जनता को और देश को आज मुखौटों की ही ज़रूरत है। अपने सही और वास्तविक रूप में न नेता जनता के सामने आ सकते हैं और न जनता ही उन्हें सर-माथे पर बिठा सकती है। इसलिए जब मुखौटों से ही काम चलता हो तो 'ओरिजनल लुक' कौन देखता है? अब राजनीति के साथ-साथ नेता भी एक 'उत्पाद' बन गया है और यह जनता की नियति है की वह 'कस्टमर' बनकर कष्ट से मरती रहे!
अब हमें तो पूरा यकीन हो गया है कि आडवाणी जी 'पी एम ' बनने जा रहे हैं आपको हो या न हो !

5 मार्च 2009

जय हो! जय हो!

काफ़ी दिनों बाद कांग्रेस के लिए एक ख़बर खुशी की आई है।'स्लम डॉग मिलियनेयर ' फ़िल्म हिट क्या हुई उसके बनाने वाले,उसमें काम करने वाले मालामाल तो हुए ही उसे देखने और उसका संगीत सुनने वाले भी मालामाल होने की राह पर हैं! फ़िल्म को आठ ऑस्कर पुरस्कार तो मिले ही ,रहमान,गुलज़ार,रसूल भी ने अपना झंडा खूब गाड़ा है। अब उन सबकी कामयाबी से प्रेरित होकर कांग्रेस पार्टी ने 'जय हो' के गाने के अधिकार खरीद लिए हैं। इस से उसे लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में जय पाने का अधिकार भी जनता से मिल गया है।
फ़िल्म अच्छी है,(चूंकि यह साबित हो चुका है) संगीत अच्छा है तो क्या उसे आधार बनाकर देश के युवाओं को सम्मोहित किया जा सकता है? जैसा कि बताया जाता है कि राहुल गाँधी के 'टारगेट' युवा हैं तो पार्टी ने ऐसे मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए एक 'मद-मस्त ' धुन का चुनाव किया है, जिसके ख़ुमार में देश का युवा बेसुध और मस्त हो जाय और उसे अपने रोज़गार और शिक्षा जैसे सवाल फ़ालतू लगें !
उम्मीद ही की जा सकती है कि इन चुनावों में जय पाने के बाद कांग्रेस पार्टी जनता की भी जय का अभियान चलाएगी और यह कि केवल अपनी जीत पाने भर के लिए उसने ग़रीबी को एक बिकाऊ 'आइटम' नहीं बनाया है।

4 मार्च 2009

मेरे पास उनका साथ है...

चुनाव आए हैं,
दलों ने अपने-अपने राग बनाए हैं.
फ़साना वही है,भले ही धुन नयी हो,
बहिनजी ने इस बीच कमाल किया है,
उत्तर प्रदेश को नया रूप दिया है।
हर बाहुबली और गुण्डे को
बसपा में शामिल किया है,
कुछ और नहीं उन्हें केवल सुधरने का मौका दिया है!
इसके अलावा प्रचार-अभियान भी बदला है,
'तिलक,तराजू,तलवार.....'को त्यागकर
नयी धुन में दिल मचला है।
अख़बार में पूरे पन्नों के विज्ञापन तो आ ही रहे हैं
टी वी में भी अच्छी धुन बज रही है ।
'मेरे पास उनका साथ है...'
यह उनके 'नए ' साथी कह रहे हैं या
बेचारी जनता कह रही है!