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27 जून 2013

लिखने का माध्यम और सरोकार !


 
कई बार यह बहस उठती है कि अभिव्यक्ति के लिए कौन-सा माध्यम उचित है या सबसे उत्तम है,पर मेरी समझ से मूल प्रश्न यह होना ही नहीं चाहिए। हर माध्यम की अपनी सम्प्रेषणता होती है और पहुँच भी। बदलते समय और नई तकनीक के साथ इसमें भी उत्तरोत्तर बदलाव हो रहा है। यह सहज और स्वाभाविक प्रकिया है। इससे,पहले वाले या परम्परागत माध्यमों की उपयोगिता या प्रासंगिकता खत्म नहीं हो जाती। यह व्यक्तिगत रूप से इसका उपयोग करने वाले पर निर्भर है कि उसे किस माध्यम में सहजता और सहूलियत होती है। माध्यमों के बदलने से लिखने वाले के सरोकार नहीं बदल जाते। इसलिए लेखक के सरोकार हर माध्यम से जुड़े होते हैं। इसलिए लेखक के लिखे पर या कंटेंट पर बहस तो ठीक लगती है पर माध्यम के साथ उसके सरोकारों पर सवाल उठाना उचित और तर्कपूर्ण नहीं है।
कुछ लोग फेसबुक ,ट्विटर या ब्लॉगिंग को आपस में गड्डमड्ड कर देते हैं। उनके अनुसार ये तीनों माध्यम एक जैसा उद्देश्य पूरा करते हैं,पर सच तो यह है कि तीनों एक-दूसरे के विकल्प नहीं हैं। ये आपस में अच्छे पूरक बन सकते हैं। एक छोटी मगर महत्वपूर्ण बात को जल्द से जल्द पूरी दुनिया में ट्विटर के द्वारा अधिक सुगमता से फैलाया जा सकता है। किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा-परिचर्चा के लिए,बहस-मुबाहिसे के लिए फेसबुक सबसे अच्छा माध्यम है,पर यह इसकी उम्र इस लिहाज़ से कम है क्योंकि अगले अपडेट के साथ ही यह संवाद बिला-सा जाता है । ब्लॉग पर हम अपनी बात पूर्ण रूप से व सहज ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। इसमें आपसी संवाद की भी गुंजाइश होती है और इस पर कहा-लिखा गया ढूँढना भी मुश्किल नहीं होता।
इन तीनों माध्यमों से आगे का माध्यम प्रिंट-मीडिया है। यह इन तीनों का विकल्प नहीं है क्योंकि यह इनसे पहले भी था और इनके बाद भी है। तमाम इलेक्ट्रोनिक और इन्टरनेटीय विकल्प होने के बावजूद प्रिंट मीडिया की पठनीयता लगातार बढ़ी है। ऐसा नहीं है कि सोशल साईट पर लिखने वाले और प्रिंट मीडिया में लिखने वालों के सरोकार अलग होते हैं। सबका उद्देश्य यह होता है कि उसके द्वारा प्रेषित सूचना अधिकाधिक लोगों तक पहुँचे और विश्वसनीय तरीके से भी। प्रिंट मीडिया विश्वसनीयता के मामले में अभी औरों से काफ़ी आगे है। अखबार और पत्रिका में छपा हुआ पाठक को अधिक विश्वसनीय लगता है क्योंकि अंतरजाल में जबरदस्त ‘पाइरेसी’ के चलते कई लोग शंकित रहते हैं। किसी के लिए भी उसका प्रिंट में छपना स्वाभाविक रूप से आकर्षित करता है। साथ ही यदि अर्थ-लाभ भी हो रहा है तो इसमें हर्ज़ भी क्या है ? ज़रूरी बात यह है कि लेखक जो लिख रहा है,उससे समाज को,देश को कुछ मिल रहा है कि नहीं।
लेखक के सरोकारों पर सवाल उठाना गलत नहीं है,जब यह लगे कि उसका लेखन किसी भी तरह मानवीय सरोकारों से बहुत दूर है। कोई भी व्यक्ति आत्म-मुग्धता के लिए या ‘स्वान्तः सुखाय’ लिखता है,तो अनुचित नहीं है पर यदि उसके लिखे से सामाजिक या मानवीय सरोकार पूर्ण होते हैं,तो वही टिकाऊ साहित्य बन जाता है। हर माध्यम में कुछ लोगों के सीमित सरोकार भी होते हैं,इनमें कोई लाल,केसरिया तो कोई हरा झंडा थामे रहता है। ऐसे लोगों को उस व्यक्ति के लेखन से बड़ी तकलीफ पहुँचती है,जो उसके एजेंडे को पूरा नहीं करता। यदि पाठक अपना एजेंडा तय करने के लिए स्वतंत्र हैं तो लेखक क्यों नहीं ? कहने-लिखने का माध्यम कुछ भी हो सकता है,इससे लेखक की निष्ठा या उसके सरोकार पर संदेह करना अनुचित है।

16 जून 2013

ओ मेरे पिता !

ओ मेरे पिता
तुमने हर दुःख सहा
माँ से भी ना कहा
कंधे पर लादकर
बोझ मेरा सहा।
घोड़ा बने,
संग खेले मेरे,
मैंने मारी दुलत्ती
सब खिलौने मेरे।
मुझको मेला घुमाया
हर कुसंग से बचाया
दिल के अंदर भरे प्यार को
सारे जग से छुपाया।
मुझमें उम्मीद दी
रोशनी दी हमें,
मेरे अस्तित्व को
एक पहचान दी।
खुद को मिटाकर
पसीना बहाकर
मुझे माँ से मिलाया
संस्कृत किया,
स्वयं को तपाकर  
ज़हर सब पिया
मुझको अमृत दिया।
 
पिता ओ पिता !
तुम नहीं हो अलग।
रूप बदला भले
पर मुझमें तेरी झलक।
चाहे जो कुछ करूँ
नहीं तुमसे उरिन,
यह जीवन तुम्हारा
है तुम बिन कठिन।
ओ मेरे पिता !

15 जून 2013

'तार' से बेतार होना !

'नई दुनिया' में १५/०६/२०१३ को प्रकाशित ! 


जब से हमने यह सुना है कि थोड़े ही दिनों में तारयानी टेलीग्राम का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा,दिल भारी हो रहा है।वैसे तो इस तारसे हमारे तार बहुत पहले ही टूट चुके थे,फ़िर भी उसका ऐसे जाना खल रहा है।पहले फिक्स फ़ोन और फ़िर मोबाइल फ़ोन के वज़ूद में आने के बाद से ही तारका चलन समाप्त-प्राय सा हो गया है ।नए ज़माने की तकनीक से मीलों दूर बैठे हम आमने-सामने बात कर सकते हैं पर शायद अब जीवन उतना सहज नहीं रह गया है।आज हम चौबीसों घंटे एक-दूसरे से तकनीक के माध्यम से जुड़े रहते हैं, जिससे कई फायदे हैं तो नुकसान भी ।नई तकनीक का सकारात्मक पहलू यह है कि हम अपने प्रियजनों से हर समय रूबरू रहते हैं वहीँ इसका नकारात्मक पक्ष यह भी देखने में आया है जब वेबकैम के सामने कोई प्रेमी अपनी मौत का सीधा प्रसारण कर देता है।

तारका आना कभी सहजता या सामान्य समाचार का प्रतीक नहीं रहा।पुराने समय में जब गाँव में डाकिया तारकी सूचना लाता तो प्रकटतः कुहराम-सा मच जाता।वह केवल इतना बताता कि फलां के नाम तारआया है और उसे डाकबाबू ने बुलाया है।परिवारीजन और आस-पड़ोस में यह खबर बड़ी तेजी से फैलती और लोग किसी अनिष्ट की आशंका करने लगते।थोड़ी देर बाद किसी प्रियजन की गंभीर बीमारी या मौत की खबर आती।शायद ही कभी यह तारकिसी की नौकरी या खुशखबरी की खबर लाया हो !एक पुरानी फिल्म में तारका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है,जब घर के लोग बिना पढ़े ही ,‘तारपाने के साथ रोना-धोना शुरू कर देते हैं।बाद में मास्टरजी तारपढ़कर बताते हैं कि घर का लड़का वकील बन गया है तो अचानक मातम खुशी में बदल जाता है।उस समय लोग अधिकतर तारका इस्तेमाल किसी अहैतुक घटना पर ही करते थे ,इसलिए जब भी तार’ की खबर आती,लोग किसी अनिष्ट की आशंका से घबड़ाने लगते।

उस दौर में तारने कभी सामान्य कुशल-क्षेम या प्यार-इज़हार की खबर नहीं दी।इस तरह इसकी छवि आतंकित-सी करती थी।अब दिन-रात बातें तो होती हैं पर खबर या सन्देश लायक कुछ नहीं बचा।मन में जो गुदगुदी चिट्ठी से या कभी-कभार फ़ोन से आती थी,वह इस संचारी-समय में गायब है।लगभग हर समय एक-दूसरे के संपर्क में रहने के कारण संवाद में हम सपाट और बेतकल्लुफ होते हैं और रोमांचहीन भी।इस असहज और अस्त-व्यस्त सी ज़िन्दगी में तारकी भूमिका अपने आप नगण्य हो गई।बेतार’(वायरलेस) के आने के साथ ही वह तारनिष्प्राण हो गया,जो स्वयं कभी किसी के निष्प्राणहोने की सूचना देने का मुख्य जरिया बना करता था।

तारका जाना महज एक साधन का जाना भर नहीं है।इससे बहुत से लोगों के सुख-दुःख जुड़े हुए थे।इसने कई पीढ़ियों को बदलते और रोते-कलपते देखा।यह कई घरों के उजड़ने का गवाह रहा तो वहीँ दूर-देश से प्रियतम की खबर का माध्यम भी बना।इस तरह तारभले ही कभी-कभी अपनी सेवा देता था,पर एक तसल्ली भी देता था कि अगर कुछ गड़बड़ होगा तो तारज़रूर आएगा।ऐसे में यह न आकर भी कुशल-क्षेम का बायस तो बनता ही था।यानी यह हमारे जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा बन गया था।

आज भले ही हम नए ज़माने के यंत्रों को हमेशा अपने साथ रखते हैं,फ़िर भी उनसे उस तरह का जुड़ाव नहीं हो पाया है,जैसा कि तारया चिट्ठीके मामले में होता था।चिट्ठीया पातीभी अब गुजरे जमाने की बात हो चली है,पर औपचारिक रूप से उनका अस्तित्व अभी खत्म नहीं हुआ है।तारका यूँ चले जाना भले नई पीढ़ी के लोगों को न अखरे पर जिनका इससे आत्मीय जुड़ाव रहा है,उनके लिए इसका निधनअपने ही किसी आत्मीय के जाने जैसा है।ऐसे में हमारा बेतारहोना दुखद नहीं तो क्या है ?
 

8 जून 2013

हो रहा 'भारत-निर्माण' ?


जिस समय देश के सभी नेता आने वाले समय में लोकतंत्र और देश की सेवा के नाम पर होने वाले पांच-साला पाखंड की तैयारियों में व्यस्त हैं, वहीं देश की राजधानी दिल्ली से एक ऐसी खबर आती है, जिससे इन सबका कोई सरोकार नहीं है। राजधानी की अनधिकृत बस्ती में रहने वाले एक निम्नवर्गीय परिवार का मुखिया पत्नी और बच्चों की प्यास बुझाने के लिए दो किलोमीटर दूर से पानी लाते समय अपनी जान गंवा देता है। बीस लीटर पानी को अकेले ढोकर लाने में उसका दम ऐसा फूलता है कि घर के आंगन में पहुंचते ही वह खामोश हो जाता है। ऐसे में उसकी पत्नी और बच्चों पर क्या बीती होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पानी की प्यास ने एक परिवार की खुशी छीन ली। सरकार और व्यवस्था जनता के प्रति अपने सरोकारों के नाम पर जनता के साथ छल करने में व्यस्त है। ऐसा लगता है कि सरकार और सरोकार दोनों दो विपरीत ध्रुव की कहानी बनते जा रहे हैं। किसी भी जीव के लिए हवा और पानी बुनियादी और सबसे जरूरी चीजें हैं, पर आजादी के बाद से अब तक हमारी तमाम सरकारें यह भी सुनिश्चित कराने में विफल रही हैं। मीडिया की जिम्मेदारी बस इतनी रही कि  एकाध अखबारों के किसी कोने में इस खबर को छोटी-सी जगह मिल गई।उपर्युक्त घटना में पानी की अनुपलब्धता मौत का कारण बनी।

लेकिन क्या सचमुच पानी का इतना अभाव है कि एक इंसान को इसके लिए दूरदराज के इलाकों के साथ-साथ देश की राजधानी दिल्ली में भी कई-कई किलोमीटर सफर करना पड़े और इसी की वजह से जान गंवानी पड़े? कभी हर सौ-दो सौ मीटर पर सड़कों के किनारे लगे नल की टोंटी पानी की जरूरत के सवाल पर सरकार का चेहरे में मानवीयता के भी शामिल होने का सबूत हुआ करती थीं। आज घर में तो बीस लीटर के बोतलबंद पानी पर निर्भरता लगभग तय हो ही चुकी है, घर से सड़क पर निकल गए तो बिना जेब ढीली किए प्यास नहीं बुझा सकते। लेकिन प्रकृति के इस नैसर्गिक स्रोत को पूरी तरह दुकानदारी का मामला बना देने में खुद सरकार की कितनी बड़ी भूमिका है, क्या यह किसी से छिपी बात है? पानी के दुरुपयोग के बहाने व्यवस्था की काहिली का ठीकरा आम जनता के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। शहरों-महानगरों की बात छोड़ दें, कस्बाई इलाकों तक में जिस तरह बोतलों में बंद पानी बीस-पच्चीस रुपए लीटर खुलेआम बिक रहा है, वह कहां से आता है? धरती का सीना निचोड़ कर पानी निकालने और बोतलबंद पानी और पेप्सी या कोका कोला जैसे ठंडे पेयों का कारोबार करने वाले वे लोग कौन हैं जिनके लिए कभी पानी की कमी नहीं होती? यह सब किस सौदेबाजी की व्यवस्था के तहत चल रहा है?

सत्तापक्ष जहां नौ साला-जश्न मना कर आगे की तैयारी में जुटा है, वहीं मुख्य विपक्षी दल अपने लिए एक अदद नेता की तलाश में लगा हुआ है। किसी को इन ‘छोटी-मोटी बातों’ के लिए समय नहीं है। इसके उलट अखबारों और टीवी में हर दिन ‘भारत-निर्माण’ का बड़ा-सा ‘प्रमाण-पत्र’ आता है। इसके अलावा कोई सरकार कर भी क्या सकती है! जब इतना बड़ा ‘भारत-निर्माण’ हो रहा है तो किसी न किसी की बलि तो चढ़ेगी ही और इस काम के लिए आम आदमी से मुफीद कौन हो सकता है? उसके लिए रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतें तो दूर, पानी के भी लाले पड़ गए हैं। ऐसे में किसके भारत का निर्माण हो रहा है?
ये बात उन्हें समझ में नहीं आएंगी जो आइपीएल जैसे खेल-तमाशों में सट्टा, सुरा और सुंदरी के सम्मिलित मनोरंजन और और अय्याशियों से अघाए हुए लोग हैं। उनके जश्न मनाने के लिए अभी शैंपेन या शराब की कोई कमी नहीं है। आम आदमी महज पानी के लिए मरता है तो मर जाए, सत्ता और उससे जुड़े हुए लोग अभी जश्न के मूड में हैं।