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22 फ़रवरी 2013

गज़ल

न चराग रहे घर में,
न सुकूँ बचा शहर में !

मोहब्बत आई, गई हुई
नफ़रत रुके जिगर में !

हमने करी वफ़ा पर
आए नहीं नज़र में !

अपना मक़ाम तय है
अब भी हैं वे सफ़र में !

ज़िंदगी देती नहीं कुछ
सीख देती है डगर में !

हम दर्द को लेते छुपा,
जी रहे सबके ज़हर में ! 



 

21 टिप्‍पणियां:

  1. अजमाते हैं हर विधा, मन में ना संतोष |
    प्रस्तुतियां लगभग मिली, सच सटीक निर्दोष |
    सच सटीक निर्दोष, शेर सब जबरदस्त हैं |
    चीर फाड़ में व्यस्त, भाव खा रहे मस्त हैं |
    रविकर को है गर्व, मित्र सच्चा जो पाते |
    समय काल आपात, मित्र को हैं अजमाते ||

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    1. ...मगर ज़्यादा आजमाना ठीक है क्या ??

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    2. मित्र को आजमाने की जरुरत नहीं-
      वे अजमाए हुवे ही होते हैं -
      सादर

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  2. बड़ी प्यारी गज़ल है त्रिवेदी जी, हम होते तो शायद यूँ लिखते

    हमने करी वफ़ा पर
    आये नहीं नज़र वे !
    हमने खिलाई कुल्फी
    देखे नहीं कभी वे !

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  3. डॉ अरविन्द मिश्र का कमेन्ट अपेक्षित है , अन्यथा अधूरी रहेगी यह गज़ल :))

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  4. वाह, छायी धुंध को बड़ा ही स्पष्ट बयां कर दिया।

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  5. शब्‍दों और भावों में डूबने से बचे रहना
    मित्रता से बढ़कर नहीं है कोई गहना

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  6. उम्दा भाव के साथ अच्छी गजल,,,गजलकार बनने के लिए बधाई ,,,संतोष जी,,

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  7. हम दर्द को लेते छुपा,
    जी रहे सबके ज़हर में !

    कि जी रहे किस भरम में !!

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  8. हमने करी वफ़ा पर
    आए नहीं नज़र में !

    बहुत खूब ... फिर भी वफ़ा करते रहें ... कभी तो नज़रें करम होंगी ....
    हर शेर लाजवाब है ....

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  9. ज़िंदगी देती नहीं कुछ
    सीख देती है डगर में !

    एक एक शेर लाज़वाब है. बहुत सुंदर. शुक्रिया.

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