पृष्ठ

19 दिसंबर 2012

अराजकता का जिम्मेदार कौन ?


 
जब से दिल्ली में चलती बस में बलात्कार की वारदात हुई है,संसद से लेकर सड़क पर खूब उबाल दिख रहा है। सड़क पर तो आम आदमी इस तरह के वाकयों के बार-बार होने से परेशान होकर निकल पड़ा और संसद में हमारे प्रतिनिधि तार्किक चिंताएं दिखाने में पीछे नहीं रहे। सड़क पर महिलाओं का गुस्सा क्षोभ,अपमान और व्यवस्था की निष्क्रियता से सातवें आसमान पर था। आम महिला की इस चिंता को समझना बिलकुल कठिन नहीं है। संसद के अंदर बैठे हुए हमारे कई प्रतिनिधि इसकी जघन्य भर्त्सना कर चुके हैं। कोई अपराधियों को फाँसी की सजा से कम पर मानने को तैयार नहीं तो कोई पुलिस-आयुक्त को हटाने पर आमादा है तो कोई इस बेबसी पर आँसू बहा रहा है । आखिर,ये जन-प्रतिनिधि किससे यह सब माँग कर रहे हैं जबकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस व्यवस्था के यही लोग जिम्मेदार और गुनाहगार हैं !

बलात्कार जैसी घटनाएँ सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का मामला हैं। हमारे समाज में जब तक यह धारणा नहीं मज़बूत होगी कि किसी भी दुष्कृत्य के लिए अभियुक्त को जल्द और निश्चित रूप से उसके परिणाम भुगतने होंगे,तब तक ऐसी घटनाओं पर पचास बार फाँसी देने या गोली मार देने की सज़ा का प्रावधान महज़ कागजी ही रहेगा। आज यह धारणा पुख्ता हो चुकी है कि कोई  ,कहीं भी किसी महिला को छेड़ दे,उसे ज़बरिया उठा ले और यहाँ तक कि हवस पूरी करके मार भी दे तो कोर्ट-कचहरी में कुछ नहीं होना है। अव्वल तो कई मामले थाने या न्यायालय तक आते ही नहीं और यदि आए भी तो उनमें से अधिकांश सबूतों के अभाव में न्याय की दहलीज पर ही दम तोड़ देते हैं। इसलिए कई बार इन मामलों की शिकायत भी नहीं की जाती।

संसद में कई महिला-प्रतिनिधियों की चिंताएं सच्ची जान पड़ती हैं पर आखिर में कानून-व्यवस्था को लागू करना-करवाना आम जनता की जिम्मेदारी तो नहीं है। कानून अभी भी इतने कमज़ोर नहीं हैं पर मुख्य बात इन्हें लागू करने की है। जब हमारी राजनीतिक-व्यवस्था भ्रष्टाचार और अपने-अपने सत्तारोहण पर जुटी हुई हो,ऐसे में नौकरशाही या पुलिस-प्रशासन क्यों पीछे रहे ?हमारे प्रतिनिधि इस तरह की घटनाओं की सीधी जिम्मेदारी पुलिस-प्रशासन पर डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं पर क्या सबसे बड़े जिम्मेदार वे स्वयं नहीं हैं?सरकार गरीबों को कैश-सब्सिडी का झुनझुना पकड़ाकर आत्म-मुग्ध हो रही है और उसकी लुटती हुई आबरू की कोई कीमत नहीं है.यह आम जनता के साथ मजाक नहीं तो क्या है ?हास्यास्पद तो यह है कि कानून-व्यवस्था तहस-नहस होने पर सरकार और हमारे प्रतिनिधि ही चिंताएं भी ज़ाहिर कर देते हैं. आखिर जनता ने सत्ता की लगाम जिनको सौंपी है तो किसी भी प्रकार की अराजकता  होने पर वे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं ?

आज पूरे देश में कानून का कोई खौफ नहीं है। जिसको जो मन में आ रहा है,कर रहा है। संसद में हमला करके,हत्याएं-बलात्कार करके,सरे-आम उगाही करके भी अगर कोई सुरक्षित रह सकता है तो ऐसे जंगलराज में कोई क्यों डरे ?हम पूरी तरह से अराजक-राज में रह रहे हैं। अब ज़रूरत केवल कानून के राज को स्थापित करने की है,संसद में भाषणबाज़ी करने की नहीं। ऐसा न हो पाने पर वहाँ फफक-फफककर रोना महज़ घडियाली आँसू बहाने से ज़्यादा कुछ नहीं है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपका कहना सही है ... पर जब तक लोग पूरी तरह आक्रोश के साथ जागते नहीं ... इन हुक्मरानों को झंझोड़ते नहीं ... इनके कानों पे जूं नहीं रेंगने वाली ...

    जवाब देंहटाएं
  2. उँगली उँगली काटके
    हाथ पैर छाँटके
    एक आँख फोड़के
    बंद करे अजायब घर में
    न कि फाँसी पर लटकायें
    मुक्ति दे दें अपराधियों को ।

    जवाब देंहटाएं
  3. अराजकता का जिम्मेवार कौन ..??

    हम, तुम और कौन ???

    जवाब देंहटाएं
  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  5. दुष्कृत्य के लिए अभियुक्त को जल्द से जल्द फैसला सुना कर सजा देनी चाहिए,,,,न्याय प्रक्रिया में देरी के कारण अभियुक्त बच निकलते है,,,,

    recent post: वजूद,

    जवाब देंहटाएं
  6. सही है.. जरूरत कानून के राज को स्थापित करने की है।

    जवाब देंहटाएं
  7. बेख़ौफ़ अपराधी खुलेआम वारदातों को अंजाम दे रहे हैं और वह भी देश की राजधानी में -यह तो हद है!

    जवाब देंहटाएं
  8. जनप्रतिनिधि कहेंगे कि हम तो मात्र पांच सौ पचास हैं। हम तो कानून बना सकते हैं बस्स।

    जवाब देंहटाएं
  9. आज दैनिक जनसत्‍ता में आपका यह आलेख मु्द्रित हुआ है। बधाई।

    जवाब देंहटाएं