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21 मई 2012

मित्रता और गाँधीजी !

निराला जी की जीवनी पढ़े कुछ अरसा ही बीता है और अब महात्मा गाँधी की आत्मकथा को बांचने बैठा हूँ.गाँधी को या उनके विचारों को जानने के लिए ज़रूरी था कि उनके जीवन के बारे में जाना जाय.पिछले साल राजघाट गए थे,तब वहीँ से 'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा ' पुस्तक ले आये थे.यह नवजीवन प्रकाशन ,अहमदाबाद से प्रकाशित है और मूल्य मात्र तीस रूपये है.ब्लॉगिंग और फेसबुक से कुछ समय निकालकर इसे पढ़ना शुरू किया है और शुरुआत में ही कई  बातें प्रभावित कर रही हैं.

अभी इसका थोड़ा ही हिस्सा पढ़ पाया है पर गाँधीजी के शुरूआती जीवन की सोच और उस पर उनका स्वयं का निष्कर्ष बड़ा रुचिकर है.चाहे विद्यालय की घटनाएँ हों या कस्तूरबा के साथ उनकी ज़ोर-जबरदस्ती,गाँधी ने खुले मन से सब स्वीकारा है.गलती न होते हुए भी शिक्षक द्वारा उन्हें सजा देना और उस सजा को सहन कर लेना संकेत देता है कि गाँधीजी को ठंडेपन और धीरज से लड़ने का मन्त्र बचपन से ही मिला था.

सबसे रोचक किस्सा है कि गाँधीजी  अपने एक मित्र को सही राह दिखाने के लिए खुद गर्त में गिर जाते हैं और वहीँ उन्हें मित्रता की असल परिभाषा मालूम होती है ! इस प्रकरण पर उनके विचार उल्लेखनीय हैं:

सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिए.जिसे सुधारना है उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती.मित्रता में अद्वैत-भाव होता है.संसार में ऐसी मित्रता क्वचित ही पाई जाती है.मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती है.मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते.अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत कम अवकाश(गुंजाइश) रहता है.मेरी राय है कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट है क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता है.गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता है.जो आत्मा की,ईश्वर की मित्रता चाहता है,उसे एकाकी रहना चाहिए अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिए.

यह सब बातें गाँधीजी को पहले नहीं सूझीं.मित्रता करके और उसमें गहरे पैठकर ,कसौटी पर कसकर और ठोकर खाकर ही वह इतना सब जान पाए.मैं तो इतना ही जान पाया हूँ कि आप जिसके मित्र हैं ,उसके भले के लिए जो आपको लगता है,वही आप कहते हैं,केवल उसको अच्छा लगने भर  के लिए नहीं.परिस्थिति या समीकरण बदलने से यदि हमारी मित्रता प्रभावित होती है तो यह मित्रता नहीं गुणाभाग और एक तरह से स्वार्थ है.इसलिए निष्काम भाव से और सिद्धांतों व उसूलों को बिना ताक पर रखे यदि हम मित्र बनें रह सकते हैं,तभी मित्रता की सार्थकता है !

56 टिप्‍पणियां:

  1. गांधी जी ने अपनी आत्मा कथा बहुत ईमानदारी और सच्चाई के साथ लिखी है......

    सादर.

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  2. इन्सान बहुत सी बातें उम्र के साथ सीखता है । गाँधी जी भी अपवाद नहीं थे ।
    अच्छा उपयोग कर रहे हैं समय का ।

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    1. दराल साहब ,
      अब डर सिर्फ एक है कि ,कहीं ये बंदा गांधी जी की तरह ब्रह्मचर्य पे प्रयोग ना करने लग जाये :)

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    2. चिंता न कीजिये अली साब,हम केवल पढ़ रहे हैं,सीख तो अपने से ही रहे हैं !

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    3. अली सा , ब्रह्मचर्य का पालन करें तो सही है . लेकिन गाँधी जी की तरह ब्रह्मचर्य को मिस इन्टरप्रेट करेंगे तो दिक्कत होगी . :)

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    4. ठीक है डॉक्टर साहब,ध्यान रखेंगे !

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  3. निष्काम भाव से और सिद्धांतों व उसूलों को बिना ताक पर रखे यदि हम मित्र बनें रह सकते हैं,तभी मित्रता की सार्थकता है !

    .....बहुत सच कहा है...बहुत सार्थक प्रस्तुति...

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  4. अवगुणी का मित्र बनकर उसके अवगुण दूर करने के प्रयास पूरी तरह जोखिम भरे है। गांधी जी ने सही कहा- "ऐसी घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट है क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता है.गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता है."
    गांधी जी ने स्वानुभव से यह यथार्थ पाया, इसका अर्थ यह भी नहीं कि सभी को इस अनुभव से गुजरना ही चाहिए। वस्तुअतः हमें तो गांधी के अनुभव से सीख कर ऐसी गलतियाँ नहीं दोहरानी चाहिए।

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  5. मुझे कई बार लगता है कि‍ पढ़ना फि‍र शुरू करना चाहि‍ये

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  6. क्‍या हम गांधीजी के विचारों को हिंदी ब्‍लॉगिंग के उत्‍थान के लिए आत्‍मसात नहीं कर सकते। अगर ऐसा हो जाए तो वह दिन सबसे शुभ दिन होगा।

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  7. निष्काम भाव से और सिद्धांतों व उसूलों को बिना ताक पर रखे यदि हम मित्र बनें रह सकते हैं,तभी मित्रता की सार्थकता है !,,,,,,सच कहा है गांधी जी ने,.....

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  8. एक विचारोत्तेजक आलेख। गांधी जी का व्यक्तित्व सदैव प्रेरक रहा है।

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    1. आप तो गाँधीजी पर लगातार काम कर रहे हैं,आभार !

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  9. गाँधी जी के बारे में कुछ भी कहना कम ही है...एक दो बार पढ़ चूका हूँ उनकी आत्मकथा....आप के जरिये दोहरा लिए कुछ अंश....

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  10. अनुभव की कसौटी पर कसी बातें सदा अर्थपूर्ण ही होती हैं..... इसीलिए गांधीजी के विचार सदैव प्रासंगिक लगते हैं

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  11. लगता है हमें भी दोबारा बांचनी पडेगी पहले तो लडकपने में पढ पढा गए थे । अब शायद बेहतर समझ में आएगी । आपकी पोस्ट भी बांचते रहेंगे

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  12. @ मित्र एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते ... तो मित्र में दूसरे मित्र के अच्छे गुणों के आने की सम्भावना भी तो बनती है .
    @निष्काम भाव से और सिद्धांतों व उसूलों को बिना ताक पर रखे यदि हम मित्र बनें रह सकते हैं,तभी मित्रता की सार्थकता है !
    गाँधी जी ने अपने विचारों को अपने अनुभव से जाना मगर वे सबके लिए उपयोगी हो सकते हैं !

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  13. मुझे लगा कि आप इसे स्कूल के दिनों में पढ़ चुके होंगे :)

    वैसे मित्रता पर इन दिनों कुछ ज्यादा ही भावुक हुए जा रहे हैं आप :)

    खैर डाक्टर दराल से सहमत !

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    1. क्या करूँ अली साब...? मैं ज़रा ज़्यादा ही गंभीर हो जाता हूँ संबंधों को लेकर !

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  14. आमंत्रित सादर करे, मित्रों चर्चा मंच |

    करे निवेदन आपसे, समय दीजिये रंच ||

    --

    बुधवारीय चर्चा मंच |

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  15. ऐसे ईमानदार मित्र हों तो उन्हें कभी खोना नहीं चाहिए ... गांधी जी का जीवन दर्शन अपनी अलग पहचान रखता है .. और समय समय पर मार्गदर्शन भी करता है ..

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  16. मित्रता पर आपके और गांधी जी दोनों के विचार पढने का सौभाग्य मिला -आभार!

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  17. मित्रता के लिये गांधी जी के पास कहां चले गये? मित्रता के लिये तो रामचन्द्र शुक्ल जी की शरण में जाइये जो कहते हैं:
    "विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऎसा मित्र मिल जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।" विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों मे हमें दृढ़ करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेगे, हमारे सत्य , पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता से उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुण्ता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमतला होती है। ऎसी ही मित्रता करने का प्रयत्न पुरूष को करना चाहिए।

    इसके अलावा हमारा कहना रहा है:
    वह व्यक्ति बड़ा अभागा होता है जिसे टोकने वाला कोई (मित्र) नहीं होता।

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    1. ..इससे कहीं ज़्यादा तुलसी बाबा कह गए हैं,वह भी पढ़ा है.बकिया आप सुकुलजी को रिकमंड किये हैं,धन्निबाद !

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  18. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल क निबंध मित्रता यहां बांच सकते हैं
    http://karmnasha.blogspot.in/2008/08/blog-post_03.html

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    1. कुछ समय पहले हमने मित्रता पर दिल से लिखा था...वह भी देखिये !
      http://www.santoshtrivedi.com/2011/02/blog-post_19.html

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  19. सब जगह अच्छे बुरे लोग हैं, हमें मित्रता यही देखकर करनी चाहिए, यह बड़ा संजीदा मसला है इसलिए भरोसे का बन्दा ही सही होता है और कम भूमिका इश्वर की नहीं होती.
    'अब मोहिं भा भरोसु हनुमंता.
    बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता..'
    बाकी सुकुल जी सुकुल के निबंध का जिक्र कर ही गए हैं :)

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    1. मित्रता पर तुलसी बाबा ने अलग से बहुत कहा है. आभार अमरेन्द्र भाई !

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  20. मेरे ख्याल से लेख का आशय मित्रता के विरूद्ध नहीं है बल्कि किसी को सुधारने के लक्ष्य से की गई मित्रता के जोखिमों पर है।
    कहते है न कि "काजल की कोठरी में कैसा भी सयाना घुसे काली कजरारी एक रेख निश्चित ही लगनी है।"
    क्योंकि अवगुणी का सारा ध्यान किसी भी आदर्श के लाखों सद्गुणों को छोडकर किसी एक अवगुण पर केन्द्रित हो जाएगा। ऐसे मित्र के साथ मंथन करते हुए कब उसके मनोरंजक तर्को से प्रभावित हो जाएंगे पता भी न चलेगा। किसी शराबी के तर्कों को जाने तो यह बात अधिक साफ हो जाती है।
    कहने को तो कह सकते है कि क्या हमारा मनोबल मजबूत नहीं है या स्वयं पर भरोसा नहीं है जो किसी की संगत मात्र से अवगुण लग जाएगा? किन्तु यह अट्ल सच्चाई है कि पतन सहज है, संयम और सावधानी कठोर पुरूषार्थ है पानी ढलान की ओर स्वतः बह जाएगा, मुस्किल उसे उचाई की और ले जाना है।

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    1. बहुत विस्तार से समझाया और समझा है आपने...आभार !

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  21. सच है, जिसको सुधारना है उससे मित्रता संभव नहीं।

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  22. ऐसे लोग कहां हैं जिनसे मित्रता किया जाए । धन्यवाद ।

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  23. बहुत कुछ सिखाता है गांधी जी का जीवन चरित!! उनके कट्टर आलोचक भी उनके इन गुणों से अछूते नहीं हैं!!

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    1. सलिल जी...अब गाँधीजी केवल औज़ार बन गए हैं नेताओं के !

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