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15 मार्च 2011

होली तो अब हो ली !

कई सालों से दिल्ली में ही होली मन रही है। पिछले सोलह  वर्षों से जब से दिल्ली में हूँ ,शायद एक -दो बार ही होली में गाँव जाना  हुआ है।काफ़ी दिनों बाद अबकी बार सोचा था कि बेटे को गाँव की होली दिखाकर लाऊँगा ,पर अंतिम समय में टिकट रद्द करवाना पड़ गया. वह  उदास हो गया है,पर का करें ! दिल्ली आकर तो लगता है सारे त्यौहार ही ठप पड़ गए हैं। बचपन में
  
साभार -गूगल बाबा
जब गाँव में रहना होता था तो हर त्यौहार का एक अलग ही उल्लास था। होली और दिवाली में तो बच्चे अपने मन की खूब करते थे और बड़े भी
उसमें शामिल होते थे।

होली की बात चल रही है तो इसी की बात करते हैं। हमें याद आता है कि होलिका-दहन में शाम को सारे लोग गाँव के बाहर इकठ्ठा होते थे,और वहाँ हम सब अपने साथ गोबर से बने हुए 'बल्ले' ले जाते थे । इन 'बल्लों' के बारे में भी दिलचस्प बात यह है कि होली से क़रीब पन्द्रह दिन पहले से सबके यहाँ 'बल्ले' बनते थे ,जिनकी आक्रतियों में कई तरह के जानवर व खिलौने होते थे । इन्हीं सूखे बल्लों को बच्चे रस्सियों में बाँध लेते थे तथा यह ध्यान रखा जाता था कि एक रस्सी में पाँच बल्ले ज़रूर हों!

होलिका-दहन में गाँव से एक पंडितजी होते थे और जब वो 'बल्लों' के ढेर में आग लगाते तो सारे लोग उधर अपनी पीठ कर लेते थे। इस तरह जब पूरी तरह आग लग जाती तो लोग उसमें से अपना-अपना हिस्सा (जलते हुए बल्लों के टुकड़े) लेते और उसे घर लाया जाता। घर की बड़ी-बूढ़ी उसी आग से पूजा के लिए आँगन में होली जलाती और इसके बाद प्रसाद बाँटा जाता।

अगले दिन धुलेंडी होती थी और इसके लिए गाँव में कई टोलियाँ तैयार होती, जो गाँव के पास ही एक मन्दिर के पास इकट्ठा होती थीं । रास्ते में हम-लोग विचित्र प्रकार की वेश-भूषा बनाकर लोगों को डराते व उनपर कीचड़ डालते या लोगों को कोयले से रंग देते।
दोपहर बाद गाँव में फ़ाग की शुरुआत होती और यह सिलसिला तीन दिन तक चलता था । फ़ाग की मंडली हर घर के दरवाजे जाती थी और गृह-स्वामी यथा-शक्ति खातिरदारी करते थे। इस खातिरदारी में 'गुड़-भंगा' ,गन्ने का रस,गुझिया ,पेड़े व घिसी हुई शकर और पान शामिल था।

तीन दिनों तक गाँव के लोग फ़ाग का आनंद लेते जिसमें कई लोग तो इतने मस्त हो जाते कि पूछो मत। तब की होली में अपुन की भी सक्रिय भागीदारी होती थी,जबकि अब दिल्ली में 'फ्लैट' के अन्दर ही धुलेंडी के दिन रहना पड़ता है। वाकई में अब होली कितनी रंग-हीन हो गयी है!अब गाँव में भी न वे फगुहार रहे,न वे भौजाइयाँ और ना ही जोश-ओ-ख़रोश !बस,यहीं पैकेट-बंद गुझिया(कुसुली) खा लेते हैं,थोड़ा गुलाल लगा-लगवा लेते हैं,इस तरह होली हो लेती है !

हाँ,उस समय के फाग की एक पंक्ति ,जो हर दरवाजे पर गाई जाती थी,अभी तक याद है...''सदा अनंद रहै यहि द्वारा,मोहन ख्यालैं होरी..."

8 मार्च 2011

महिला-दिवस का दुःख !

आज अंतरराष्ट्रिय महिला-दिवस था.दो दिन पहले से अख़बारों और बाज़ार के माध्यम से बड़ी चर्चा हो रही थी.ऐसा लग रहा था कि इस दफ़ा ज़रूर कुछ नया होगा.यह भी  प्रचारित हो रहा था कि वास्तव में आज नारी शक्ति का डंका बज रहा है.

मैंने  भी सुबह अपने कुछ मित्रों को इसकी औपचारिक बधाई दी,हालाँकि मैं इन 'एक-दिवसीय' प्रयोजनों से इत्तेफ़ाक नहीं रखता हूँ .इसके बाद किसी काम से बाहर निकल गया.जहाँ गया था ,वहाँ प्रतीक्षालय में बैठ गया और सामने टीवी पर  न्यूज़-चैनेल में ख़बरें फट पड़ रही थीं . ग्यारह बजे होंगे ,लगभग एक साथ दो ख़बरें ब्रेक हुईं. पहली ख़बर राजधानी  दिल्ली से आई जिसमें बताया गया कि कॉलेज की एक छात्रा को गोली मार दी गई है,जिसकी बाद में अस्पताल में मौत हो गई और दूसरी ख़बर आर्थिक राजधानी मुंबई से थी जिसमें एक महिला  ने दो बच्चों समेत अठारहवीं मंजिल से कूदकर अपनी जान गवां दी.

सच मानिए,महिला-दिवस पर महिलाओं के लिए कितने 'हसीन तोहफ़े' थे ये ! ये दोनों घटनाएं चैनेल वालों के लिए ख़बर का सबब हो सकती हैं और सरकारों के लिए कानून-व्यवस्था का मामला,पर हमारे समाज के लिए इनमें गहरा सन्देश छिपा है.जहाँ पहली घटना एक किशोरी के सपनों की असमय मौत है,कथित 'प्रेम-प्रसंग' का मामला हो सकता हैं वहीँ दूसरी ओर एक भरे-पूरे परिवार का ,घर-गृहस्थी का उजड़ जाना है. 

दोनों मामलों की तह में जाने पर हो सकता है कुछ नई बातें सामने आयें पर इतना तो तय है कि हमारा समाज आज जिस दिशा की ओर भाग रहा है,उसके ऐसे ही दुखद परिणाम निकलने हैं.जहाँ आज प्रेम को महज 'पाने' तक का उपक्रम मान लिया गया है,वहीँ हमारी जीवन शैली भौतिकवादिता की ओर उन्मुख होकर पूरे परिवार के अवसाद का कारण बनती है.

उस नव-यौवना का क्या दोष था जिसने अभी पूरी तरह सपने भी नहीं देखे थे और उसका  सीना छलनी कर दिया गया, उस महिला का क्या दोष था जो अपने परिवार का उत्सर्ग करने पर मज़बूर हो गई ? सबसे ह्रदय-विदारक सवाल उन अबोध बच्चों के बारे में है जिन्हें पता ही नहीं लगा कि वे उस माँ के द्वारा मारे जा रहे हैं जो उनकी  जन्मदात्री और पालनहार थी !हो सकता है इन सवालों के ज़वाब मिल भी जाएँ पर उन सबको न्याय किसी भी सूरत में नहीं मिल सकता !

बहर-हाल ,महिला-दिवस बड़े जोर-शोर से मनाया गया,कुछ ऊँची कुर्सियों पर बैठी महिलाओं के आसन और ऊँचे किये गए,सेलिब्रिटीस ने एक-दूसरे को जमकर कोन्ग्रैट्स और सेलेब्रेट किया.सरकार ने कानून-व्यवस्था और दुरुस्त करने की बात की,बाज़ार ने अपना सामान बेचा,पर हाय ,उन  जैसे निर्दोषों को हमारी,आपकी संवेदना के अलावा कुछ नहीं हासिल होगा.मेरा मन बड़ा उद्विग्न है,आप ही कुछ सुझाएँ !