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7 अक्तूबर 2010

नेताओं का रोज़गार !

पिछले सप्ताह ही देश में भारी तनाव के बीच राम-मंदिर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला आया,जिसके बाद अप्रत्याशित शांति देखी गई.कहा गया कि अबकी बार सब पक्षों को यह फ़ैसला स्वीकार्य होगा,लेकिन जैसे ही राजनीति का  एक 'पैकेज' मिला ,फिज़ा बदलते  देर   नहीं  लगी.

दर-असल ,राम-मंदिर का मुद्दा राजनीतिकों द्वारा परवान चढ़ाया गया था और उसका इस तरह अंत होना उन्हें कैसे रास आता  ? जिस 'मलाई' की अपेक्षा वे इस प्रकरण से रखते थे,जब वह हाथ  नहीं लगी तो  उन्होंने अपना असली 'रंग' दिखा दिया! भई, वे यहाँ 'संतई' करने और 'राम-भजन' के लिए थोड़े न  आए हैं!मुलायम की टीस "इस फैसले से मुसलमान अपने को ठगा महसूस कर रहा है", वास्तव में ज़ायज  है.नेताजी राजनीतिक हाशिये  की तरफ़ जा चुके हैं और उनको अपने अखिलेश को भी अभी स्थापित करना है,तो वह तो उसके लिए रोज़गार ही ढूंढ रहे हैं .इस प्रक्रिया में ये मुआ देश,मंदिर और अवाम कहाँ से बीच में आ गई !

यह बेरोज़गारी का दर्द अकेले मुलायम का नहीं है.अपने आडवाणी जी भी तो कब से आस लगाए बैठे हैं?जो फ़सल(रथ-यात्रा चलाकर) उन्होंने बोई थी,उसे दूसरा कैसे काट ले जाए सो वहाँ भी हलचल शुरू हो चुकी है. रही बात बसपा   व काँग्रेस  की तो उन्होंने भी अपनी-अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है.

अर्थात,हमारे आपके लिए यह आस्था , विश्वास  या  क़ानून  का मसला  हो सकता है  पर नेताओं के लिए विशुद्ध व्यावसायिक है और उनके 'पेट' से जुड़ा' ,राजनैतिक-रोज़गार का मामला है.इसलिए,जो लोग समझते थे कि इस फ़ैसले से सांप्रदायिक-सौहार्द क़ायम हो जायेगा तो यह उनकी और शायद न्यायालय की भी भूल है.आने वाले दिनों में कई 'मुलायम' पैदा हो जायेंगे !
और,सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम इसे भोगेंगे !

6 टिप्‍पणियां:

  1. @प्रवीण त्रिवेदी यही तो हमारी त्रासदी है कि हमने अपने-अपने राम गढ़ लिए है !

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  2. अब इस प्रकरण से मलाई निकलने वाली नहीं।

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  3. @प्रवीण पाण्डेय यही तो आज के नेताओं की कला है कि वे कहीं से भी मलाई ढूँढ निकालते हैं !

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  4. काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती .

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  5. @विवेक सिंह राजनीति की यही ख़ासियत है कि वह अपने 'मुलम्मे' में जिसे लपेटता है वह मुश्किल से छूटता है.

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