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3 जनवरी 2009

माया मिली न राम !

बीता साल पूरी दुनिया के लिए भारी रहा ,सब ज़गह मंदी की मार पड़ी और कई कंपनियों का बोरिया-बिस्तर तक बंधगया पर भारत की एक राष्टीय पार्टी भाजपा के लिए तो 2008 जाते-जाते ऐसे ज़ख्म दे गया है जिन्हें वह ठीक से सहला भी नहीं पा रही है। पहले तो विधानसभा चुनावों ने ऐसा परिणाम दिया कि उसके 'मिशन-2009' के अभियान में ही पलीता लग गया। इन नतीजों ने पी एम इन वेटिंग आडवाणी जी के दिल की धड़कन बढ़ा दी है क्योंकि आने वाला समय अच्छे संकेत नहीं दे रहा है। उस पर कोढ़ में खाज यह हुआ कि पार्टी के मुख्यालय से भाई लोगों ने 'गाढ़ी - कमाई' से ढाई करोड़ रकम साफ़ कर दी! अब इस हालत में पार्टी खुलेआम कुछ भी कहने से बच रही है ,यहाँ तक कि वह इसके विषय में पुलिस-रिपोर्ट करने से बच रही है । जानकारों का मानना है कि अगर रिपोर्ट की गयी तो कई अप्रिय सवाल भी पूछे जायेंगे, मसलन इतना पैसा कहाँ से आया,इसका कहीं लेखा-जोखा है कि नहीं,वगैरह-वगैरह।
अब जबकि लोकसभा चुनाव सर पर हैं ,पार्टी को कुछ सूझ नहीं रहा है कि ऐसे में क्या किया जाए और उसके लिएये मुसीबतें ख़ुद उसके ही लोगों द्वारा दी गयी हैं । आज के हालात में न तो उसके हाथ सत्ता लगी है और जो जमा-पूँजी थी वह भी चली गयी । कहाँ तो अडवाणी जी मनमोहन सिंह को सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री कहकर उनका मज़ाक उड़ा रहे थे और कहाँ तो आज वे ख़ुद ही मज़ाक बने हुए हैं। उधर मनमोहन हैं कि 'सिंह इज़ किंग ' की धुन बजाये जा रहे हैं। अभी भी बहुत से लोगों को भाजपा से सहानुभूति है और उनके लिए यही कहना है कि इस 'सहानुभूति'
को अभी बचाए रखें , बहुत ज़ल्द पार्टी को इसकी और ज़रूरत पड़ने वाली है!


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