21 दिसंबर 2014

धर्म का अधर्म।

अब के बरस उनका यही फरमान है,
इंसान बस लूटा हुआ सामान है।
मुल्क ने झेली जलालत अब तलक,
वे जगाएँगे अलख,अरमान है।
भटके हुए सब लोग घर को लौट लें,
जो नहीं माने, असल शैतान है।
धर्म को अपने, फलक तक टाँग देंगे,
नौनिहालों की तड़पती जान है।
तामीर इस दुनिया को हमने ही किया,
जो फ़ना कर दे,वही इंसान है।

17 दिसंबर 2014

व्यंग्य-विमर्श की आत्म-कथा !

कल व्यंग्य से सम्बन्धित एक कार्यक्रम में जाना हुआ,जहाँ एक प्रकाशन संस्थान द्वारा सम्मान-समारोह था और उसके बाद ‘समकालीन व्यंग्य:प्रकृति एवं प्रवृत्ति’ विषय पर विचार-विमर्श।उम्मीद थी कि व्यंग्य पर कुछ सार्थक चर्चा सुनने को मिलेगी पर अफ़सोस की बात यह रही कि वहाँ जमकर सतही विमर्श हुआ और उन लोगों के द्वारा किया गया,जिनका हमारे मन में बेहद सम्मान है।चर्चा में व्यंग्य से अधिक अखबारी-व्यंग्यकार रहे और उनके लेखन को चलताऊ ढंग से नकार दिया गया।देश के चर्चित व्यंग्यकार ने व्यंग्य की प्रकृति तो ठीक से परिभाषित की पर आज की पीढ़ी द्वारा समकालीन विषयों पर व्यंग्य लिखकर फेसबुक पर चस्पा करने पर ही सवाल उठा दिये।यहाँ लिखे जाने वाले लेखों की गुणवत्ता पर कोई बात नहीं हुई, जबकि हमने स्वयं कई बार फेसबुक पर ही खूब और कचरा लिखे जाने पर बहसें की हैं।फेसबुक में लेख डालना कहाँ से गलत है जबकि यह विमर्श का सबसे आधुनिक प्लेटफ़ॉर्म है।यह भी कहा गया कि नई पीढ़ी कुछ पढ़ती नहीं है।तो क्या नई पीढ़ी केवल पुराना लिखा हुआ पढ़े या नवीनतम उपन्यासों या संग्रहों के छपने की प्रतीक्षा करे ? कुल मिलाकर सन्देश यह था कि अखबारी व्यंग्य न लिखने की चीज़ हैं और न ही पढने की।यानी असल व्यंग्यकार वही है जो एक उपन्यास लिखने के लिए दो-तीन साल के लिए भूमिगत हो जाए और वर्तमान समस्याओं को देखकर लिहाफ ओढ़ ले।

कार्यक्रम में एक पूर्व संपादक ने यह कहा कि आज देश में सबसे अधिक कवितायेँ लिखने वाले हैं और उसके बाद दूसरे नम्बर पर व्यंग्यकार ही हैं।व्यंग्यकारों की तो गिनती भी तकरीबन पाँच हज़ार बताई गई।यहाँ तक तो हमारी भी सहमति है।फेसबुक से ही पता चल जाता है कि हर व्यक्ति कवि और हर दूसरा व्यंग्यकार है पर यहाँ भी गुणवत्ता पर बात नहीं की गई।उनका दर्द था कि अख़बारों में बहुत ही घटिया लिखा जा रहा है,हालाँकि वे भी एकाध जगह लिख रहे हैं और वहां वाकई ज़्यादातर व्यंग्य के नाम पर उपहास ही छपता है।विमर्शकार का यह भी कहना था कि अखबारी-व्यंग्य ,जो अधिकतर राजनीति पर लिखा जाता है,जल्द ही अप्रासंगिक हो जाता है.तो क्या व्यंग्य को शाश्वत मानकर ही लिखा जाय ? इस बारे में परसाईं सही जवाब देते हैं कि व्यंग्य लेखन में कुछ भी शाश्वत समझकर लिखना ही मूर्खता है.समाज को दर्द आज है तो क्या उस बारे में दस साल बाद लिखा जाना ठीक होगा ?अखबारी-लेखन की वास्तविकता यह है कि कुछ सम्पादकों की व्यंग्य के बारे में अधकचरी समझ अधिक भारी है।विमर्श इस पर होना चाहिए कि घटिया आलेख क्यों छपते हैं ? यहाँ भाई-भतीजावाद और पुरानी जान-पहचान भी खूब सक्रिय है।मुख्य बात यह भी है कि व्यंग्य के वरिष्ठतम लोग नित्य-प्रति अख़बारों में छप रहे लेख पढ़ते भी हैं ? नई पीढ़ी पर इलज़ाम है कि वह नहीं पढ़ती तो क्या वे ऐसा करते हैं ? अगर वे पढ़ते होते तो तुलनात्मक ब्यौरे से आसानी होती।

शायद इसीलिए हर व्यंग्य-विमर्श शरद जोशी और परसाईं तक आकर ठिठक जाता है।आगे आने वाली पीढ़ी व्यंग्य-लेखन से कहीं अधिक गुटबंदी,खेमेबाजी और अपनी-अपनी सम्मानबाज़ी में लगी है।वह फेसबुक पर अपनी सेल्फीज़,माला पड़ी मोहक छवि पर ही मुग्ध है।अधिकतर तथाकथित बड़ा लेखक अपने सम्मान और पुरस्कार के तईं लिखने का ठेका पाने को उत्सुक है।उसे वर्तमान के दर्द से क्या लेना-देना ? नई पीढ़ी कैसा लिखती है,उसे खुद लिखकर बताने का भी समय नहीं है।जो भी विमर्श होगा,वह गोष्ठियों में ही होगा,फेसबुक पर क्यों नहीं ? शायद इसलिए भी कि गोष्ठियों में सवाल पूछने कि गुंजाइश नहीं होती।फिर नई पीढ़ी को आप किस तरह सुधारना चाहते हैं या आप केवल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं ?