31 मार्च 2012

कइसे दिन फिरिहैं ?

अचानक कुछ याद आने पर फेसबुक में कुछ लाइनें लिखी थीं,पर अच्छा लगने पर उसे तुरत बड़ा कर ब्लॉग में डाल दिया जिसे आप लोगों ने पढ़ा  और  इतना सराहा  कि उसके बाद की पंक्तियाँ अपने आप बन गईं.उम्मीद हैं,अच्छी लगेंगी!


गारा-माटी के घर गायब
कुल्हरी,समसी,लोढ़वा गायब,
लढीहा,लग्घी,बैल कै गोईं
मुसका,चरही,पगही गायब !


ग्वाबरु,गोलई,टोकनी गायब
मूड़े कै वह गोड़री गायब,
अब कइसे दिन फिरिहैं सबके,
घूरे केरि रिहाइश गायब !


चारा-सानी, चोकरा गायब,
पड़वा,पड़िया,लैरा गायब ,
ख्यातन ते,खरिहानन  ते
सीला-गल्ला,पैरा गायब !


दुलहिनि,पाहुन,बालम गायब
जनवासे ठंढाई गायब,
दुलहा,सरहज ,नेगु-कल्यावा
लरिकन कै बरतउनी गायब !

भौजी संग ठिठोली गायब
बुआ चिढ़ाती हरदम, गायब ,
कब तक मनई बचा रहत है
चिट्ठी,पान-सुपारी गायब !




  


*लढीहा=बैलगाड़ी,लग्घी=अरहर की सूखी डाली ,ग्वाबरु=गोबर,गोलई=लग्घी से बनी टोकरी ,मूड़े कै वह गोड़री =सिर पर सामान  उठाते समय रखा जाने वाली कपड़े से बनी चीज़ ,लैरा=भैंस या गाय का छोटा बच्चा 

29 मार्च 2012

कहाँ गए वो गाँव ?


गाँव,गिद्ध,गौरेया गायब
कोठरी,डेहरी,कथरी गायब,
अब तो सूखे साख खड़े हैं
कुआँ ते हैं पनिहारिन गायब !

गाँव किनारे वाला पीपल,
बरगद और लसोंहड़ा गायब,
मूंज,सनई कै खटिया,उबहनि
दरवाजे कै लाठी गायब !

बाबा कै बकुली औ धोती
अजिया केरि उघन्नी गायब,
लरिकन केर करगदा,कंठा
बिटियन कै बिछिया भै गायब !

नानी केरि कहानी गायब,
लोटिया अउर करइहा गायब,
अम्मा कै दुधहंडि औ भठिया,
बप्पा कै रामायन गायब !

आम्बन ते अम्बिया हैं गायब
चूल्हे-भूंजा ह्वारा गायब,
सोहरै,बनरा,गारी गावै-
वाली सुघर मेहेरिया गायब !

पइसन के आगे अब भइया
रिश्ते-नाते,रस्ते गायब,
शहर किहे हलकान बहुत
अब तो चैन हुँवों ते गायब !

28 मार्च 2012

गुजरी हुई फिज़ा !

कभी सोचता हूँ,क्या हूँ,
इस भीड़ में नया हूँ .

अपने ग़मों से दूर
किसी और की दवा हूँ.

ज़ुल्फ़ के दुपट्टे में
फँसती हुई हवा हूँ .

अलग-थलग  लगा
जब उसके पास गया हूँ.

दुनियावी  बातों में,
हरदम ठगा गया हूँ.

आशियाँ बना,न बना,
उड़ती हुई बया हूँ.

अपने ही चमन में,
गुजरी हुई फिज़ा हूँ !

अब आइने से पूछो,
सूरत से भी ज़ुदा हूँ !



24 मार्च 2012

मददगार ब्लॉगर :अविनाश वाचस्पति !

अविनाशी-मुद्रा 
क़रीब  दस महीने पहले की बात है.नवभारत टाइम्स अखबार में एक व्यंग्य छपा था,जिसमें मास्टरों की जनगणना ड्यूटी के बारे में खूब मजे लिए गए थे .अविनाश वाचस्पति जी का यह लेख मास्टरों की दयनीय दशा पर प्रहार था जो व्यवस्था को भी आइना दिखा रहा था.मुझे बड़ी गुदगुदी लगी और लगा कि यही समय है जब अविनाश जी को धरा जाय.उल्लेखनीय है कि यह वह समय था,जब मैं ब्लॉग-जगत में सक्रिय होने  के लिए उतारू था.कई लोगों से मिल चुका था और कइयों से  मिलने की ताक़ में था.सच पूछिए ,इस उपक्रम में अविनाशजी सबसे बढ़िया और आसान शिकार निकले.

मैं फेसबुक में अविनाशजी से जुड़ा था पर कोई ख़ास संवाद नहीं हुआ था.उस दिन उस लेख को पढ़कर मैंने फेसबुक से उनका नंबर लिया और तुरत फोन लगा दिया.मैंने अविनाशजी से गंभीर मुद्रा में पूछा,''क्या मिस्टर अविनाश वाचस्पति बोल रहे हैं ?' उधर से आराम से जवाब आया,"जी हाँ,बोलिए." मैंने कहा,'मैं शिक्षा विभाग से बोल रहा हूँ.आपने अखबार में जो लेख लिखा है उसके लिए आप पर मानहानि का दावा किया जा सकता है." उन्होंने उसी सहज अंदाज में उत्तर दिया,'जी नहीं.मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा है जिससे किसी की मानहानि हो".मैंने जल्दी ही हथियार डाल दिए और जब नाम बताया तो वे खिलखिलाकर बोले,"मैं जानता था कि किसी मास्टर का ही फ़ोन होगा और मुझे तो ऐसे फ़ोन सुनने की आदत-सी हो गई है". अब इसके बाद तो उनसे बातचीत का ऐसा सिलसिला शुरू हो गया कि पूछो मत.

अविनाशजी के घर में 
पहले दौर की बातचीत जो निहायत अजनबियत के माहौल में हुई थी,इतनी रसदार रही कि हम आपस में रूटीन बातचीत करने लगे.उसी बीच उनकी बीमारी की ख़बर ने मिलने का मौक़ा जल्द ला दिया और पता-ठिकाना पूछते हुए हम उनके आवास पर मिल भी आये.उसके थोड़े दिन बाद ही अविनाशजी भी हमारे यहाँ आये और मेरे कम्प्यूटर पर हिंदी-फॉण्ट लिखने का जुगाड़ करके चले गए.ये बातें जितनी सहजता से हुईं कि लगा ही नहीं कि उनमें नवजात ब्लॉगरों से कोई अस्पृश्यता-भाव या मुँह-बिचकाऊ  ग्रंथि है.बड़े व्यक्तित्व का स्वामी भी आज के समय में ऐसा करता हुआ नहीं दिखता.जो व्यक्ति थोडा-बहुत या छोटा-मोटा ही सही ,अपना झंडा गाड़ने लगता है वह अपने खूंटे के उखड़ने के डर से किसी दूसरे को ज़मीनी-माहौल भी देने में कतराता है.अविनाशजी इस सबमें एक अपवाद की तरह हैं. जब भी कोई समस्या हो आप अनौपचारिक ढंग से बात शुरू कर दीजिये और वे लम्बी-लम्बी सलाहें फेंकने लगते हैं.घर में भी किसी भी ब्लॉगर के लिए वे स्वागत को उत्सुक रहते हैं.

अविनाशजी में नए लोगों को प्रेरित करना,उन्हें तकनीकी और दूसरे दांवपेंचों से अवगत कराना जैसे मौलिक गुण हैं.क्या आज के समय में ऐसा कोई पहलवान है जो अपने अखाड़े के गुर किसी और पहलवान को बताएगा पर वे बिला-झिझक या संकोच के ऐसा लगातार करते रहते हैं.उन्होंने कई ब्लॉगरों को तो जन्म दिया ही,कुछ प्रकाशकों को भी अपनी दिहाड़ी कमाने और सबके सामने लाने का काम किया है.हाँ ,कुछ लोग ज़रूर उनके इस जबरिया सहयोग-भाव और भोलेपन का फायदा उठा ले जाते हैं.एक एजेंट,एक डॉक्टर और एक प्रकाशक के झांसे में वे फंस चुके हैं,फिर भी नए लोगों को ऊपर उठाने में वो कोई कोताही नहीं बरतते.एक बात और है,वे   अगर ज़िद पर अड़ जाएँ तो किसी भी काम को पूरा करके ही दम लेते हैं.

पहलवानी-मुद्रा 


उनके रचना-कर्म की तो कोई मिसाल ही नहीं है.अस्वस्थता की स्थिति में होते हुए भी एक दिन में दो-तीन लेख ज़रूर लिख लेते हैं.उनकी व्यंग्य की अपनी अलग शैली है.किसी एक शब्द के पीछे-पीछे वे पता नहीं कहाँ तक पहुँच जाते हैं.उनके लेखन का तो कई लोग ओर-छोर ही ढूँढते  रह जाते हैं.कई दैनिक पत्रों में उनके नियमित कालम आते हैं और वे फेसबुक पर भी बराबर विमर्श करते रहते हैं.हर दिन वे क़रीब दस अखबार और तीन-चार पत्रिकाओं की खुराक लेते हैं.कुछ दिनों पहले ही ब्लॉगिंग को लेकर रवीन्द्र प्रभात जी के साथ उनकी एक पुस्तक आई थी और अभी एक बहुचर्चित व्यंग्य-संग्रह "व्यंग्य का शून्यकाल" भी आ चुकी है. वे अपने  सामूहिक ब्लॉग  नुक्कड़  के ज़रिये बहुत बड़ा योगदान कर रहे हैं.उनके अन्य कई व्यक्तिगत-ब्लॉग हैं,जिन्हें यहाँ समेटना संभव नहीं है.इतनी कार्यक्षमता देखते हुए हमें उनसे रश्क होता है.


मुझ पर उनकी विशेष कृपा है.उन्होंने कई तरह से और कई जगह मुझे अयाचित लाभ और मौके मुहैया कराये हैं जिनका मैं हमेशा कर्जदार रहूँगा.ईश्वर उनको चिरायु करे और ऐसे ही बना रहने दे.

22 मार्च 2012

शिक्षा के बहाने !

अचानक शिक्षा एक गरम विषय हो गया है.एक आध्यात्मिक गुरु के तथाकथित बयान के बाद प्रबुद्ध वर्ग,मीडिया और सरकार जैसे सोते से जागी हो.ऐसा लगता है इसके पहले शिक्षा कोई मुद्दा था ही नहीं.सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इस सबमें असल मुद्दा कहीं पीछे चला गया है.मीडिया की सनसनी में समाज का बड़ा तबका तो साथ हो ही लेता है,सरकार  की भी तन्द्रा टूटती-सी दिखती है.ज़रुरत तो यह है कि केवल पैसे बहाने के बजाय आउटपुट देखा जाए !

सरकारी विद्यालयों में आज अराजकता की सी स्थिति देखने को मिलती है.हो सकता है कि इस  विषय को ग़लत  तरीक़े से कह दिया गया हो पर इससे क्या इन विद्यालयों में गुणवत्ता और वहाँ के वातावरण में क्रान्तिकारी बदलाव अपने-आप हो जायेगा ? कोई अल्प-बुद्धि का ही मनुष्य होगा जो यह कहेगा कि आज के सरकारी विद्यालय नक्सलियों की नर्सरी बन गए हैं.बहुत सारे लोग इन्हीं विद्यालयों से निकलकर देश के शीर्ष पदों पर काबिज़ हैं और वैज्ञानिक या इंजीनियर बने हुए हैं. इसके उलट राजनीति के क्षेत्र में आज भी पब्लिक स्कूलों से पढ़े हुए लोगों की भरमार है.साथ ही पब्लिक-स्कूल आज भी आम आदमी के दायरे से बाहर हैं.वे वहाँ कमाई कर रहे हैं तो सरकारी-विद्यालयों में भी ठेकेदार-प्रणाली अपना रंग दिखा रही है.सरकार अपनी तरफ से बजट का बहुत-बड़ा हिस्सा शिक्षा पर खर्च कर रही है,पर असल में मिल क्या रहा है ?

मुख्य मुद्दा तो आज विद्यालयों में हो रही शिक्षण से  इतर हो रही गतिविधियां, आर्थिक अनियमितताओं में संलिप्त शिक्षा-अधिकारियों और नेताओं के घालमेल का होना चाहिए.इसके चलते विद्यालयों में शैक्षणिक माहौल की कमी और छात्रों में घोर अनुशासनहीनता कायम है.छात्र  असहिष्णु,हिंसक और उद्दंड हो गए हैं.यह सब अचानक नहीं हुआ है.हमारे नीति-निर्धारक नीतियाँ तो अच्छी बनाते हैं पर वे यथार्थ के धरातल पर वे  कितना सही बैठ रही हैं,इसको नज़रंदाज़ कर दिया जाता है.छात्रों में मोबाइल ,सिगरेट और शराब का चलन बढ़ रहा है.कई बार ये साधन शिक्षण-कक्ष तक आ जाते हैं.कुछ कानूनों के चलते शिक्षक उन्हें डाँटने तक से परहेज करते हैं और छात्र उनकी इस लाचारी का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं.

इस हिंसक और गैर-अनुशासित छवि के चलते छात्रों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.उनकी अवस्था ऐसी नहीं होती कि वे इन चीज़ों के दुष्परिणाम भाँप सकें.हमारे समाज में किसी को फुर्सत नहीं कि आखिर इन छात्रों को विद्यालयों से क्या सीख मिल रही है ? चूंकि ऐसे हालात सरकारी विद्यालयों में ही अधिक हैं और इनमें पढ़ने वाले छात्रों के अधिकतर अभिभावकों की पृष्ठभूमि ऐसी नहीं है कि वे इस सबमें दख़ल दे सकें,इसलिए सब कुछ राम-भरोसे चल रहा है.यहाँ यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ये विद्यालय शुरू से ऐसे ही नहीं थे.इस समय हालत ज्यादा ख़राब हैं,तभी आये दिन किशोर छात्र अपने साथियों पर या अध्यापकों पर हमला बोल देते हैं.


अगर ऐसी हिंसा,असहिष्णुता और अनुशासनहीनता व संस्थानिक -भ्रष्टाचार के  साए में छात्र रहेंगे तो किस  नैतिकता ,चरित्र या राष्ट्र-निर्माण की उम्मीद हम कर सकते हैं ?

19 मार्च 2012

मोहब्बत है या तिज़ारत ?

आज वो हमसे अपना हिसाब माँग रहे,
हम तो फ़कीर थे,सब कुछ लुटा दिया ! (१)

हमारी सदा नहीं उन तक  पहुँच रही,
हमने ज़हर का घूँट,जिसका सदा पिया ! (२)

उगते हुए  उजाले के  संग वो हुए ,
छोड़कर कम तेल का,बुझता हुआ दिया !(३)

हम खुश रहेंगे फिर भी हर हाल में,
चाहकर के उनको ,हमने बुरा किया ? (४)

मोहब्बत से हमने  यूँ लिया सबक,
कुछ ने महज़ नफ़े का,सौदा बना लिया !(५)

रुसवाई नहीं मेरी,उनसे नहीं गिला,
बस उसूलों से उनने,ज़रा फ़ासला किया !(६)

14 मार्च 2012

सदाबहार बौराए हुए !

फागुन बीत गया है,बसंत भी बीत गया पर मन अभी भी बहक रहा है.मेरा मन कभी भी मौसम के साथ नहीं चल पाता.अगर ऐसा होता तो प्रेम-दिवस ,फगुनहट आदि मौकों पर इसमें ज्यादा उबाल आ जाता और बाकी दिनों में हमारे दिल की धड़कन सामान्य रहती.अब तो ऐसा हो गया है कि चालीस के पार पहुँचकर भी लगता है कि चौबीस के ही आस-पास हूँ.हमें लगता है कि इस दुनिया में हर चीज़ बदल गई है सिवाय हमारी उमर के !जब तक आइना नहीं देखते ,यही सोचे रहते हैं कि हम  बिलकुल  कॉलेज जाने वाले टीनएजर हैं !

हमारा मन किसी सुन्दर नारी चित्र को देखकर एकदम से बौरा जाता है.घर में अंग्रेजी-अख़बार इसीलिए नहीं मँगाते. घर से बाहर सजीव- सौन्दर्य देख कर तो हम आँख ही बंद कर लेते हैं.सोचता हूँ,क्या इस उमर में यह सब देखना या सोचना हमें शोभा देता है ? ख़ास बात यह है कि हम इस मामले में इत्ते पेटू हैं कि एक-दो 'दर्शनों' से जी नहीं भरता.अगली बार ऐसा न करने का वचन खुद ही लेता हूँ और अगले पल उतनी ही ज़ोरदार तैयारी  से इसके खिलाफ़  हमला बोल देता हूँ.इसके अलावा हम अकेले ,केवल  आँखों के अस्त्र के साथ,निरुपाय,असहाय भला क्या कर सकते हैं ? यह कोई बीमारी है या महज़ जीवन-रस ?

आखिर हमारा मन उमर के साथ-साथ  अपनी इच्छाओं को क्यों नहीं दबाता ? फिर सोचता हूँ कि यदि वास्तव में ऐसा हो जाये ,मन से यह रस निकल जाये तो कितना नीरस हो जायेगा यह जीवन !कहने को तो सब कहेंगे,'अजी ! ऐसे ख़याल आपको ही आते होंगे,आप तो बड़े ही कमीने-टाइप के निकले.अपनी पत्नी के होते इधर-उधर ताकने की कोशिश में लगे रहते हैं !"    और हाँ ,  यही  लोग  ऑफ-द-रिकॉर्ड हमारी बात को पूरी तरह तसदीक करेंगे ! इस विषय पर मेरी कई दोस्तों से गुफ्तगू हुई है जो ऐसी बातें खूब रस लेकर सुनते हैं. कुछेक का तो बकुर तभी फूटता है जब हम कोई काल्पनिक-वृत्तान्त सुनाने लगते हैं. पर ऐसे लोग सामूहिक रूप से चुप्पी ओढ़े रहते हैं . मैं तो कहता हूँ  कि ये   चुप्पा-टाइप लोग व्यावहारिक रूप से ज़्यादा  खतरनाक होते हैं.इनसे अच्छे तो हम हैं जो अपनी हवा निकाल लेते हैं !

कभी किसी को घूरते हुए लगता है कि क्या वाकई में हम इत्ते कमीने हैं ? बाल-बच्चेदार हैं, यदि वास्तव में हम संत बन जाएँ तो जीवन से आनंद और आशा का विलोप हो जायेगा.घर से तो सूखे निकलते ही हैं बाहर भी सुदर्शना न दिखे ,कोई बोहनी न हो तो पूरा दिन ही चौपट और वृथा हो जाये !इस तरह हमारा दिन तो ख़राब हो ही,अगले का साज-श्रृंगार में लगा धन व समय भी अकारथ हो जाये.कई बार बस-स्टॉप में  हमने महसूस किया कि यदि किसी लड़की को कुछ निगाहें घूरती हुई नहीं दिखतीं तो वह खुद बार-बार अपने को देखना शुरू कर देती है.ऐसा करके वह अपनी सुन्दरता पर शक करने लग जाती है और यह सब देखकर हम और दुखी हो जाते हैं.


हम ईश्वर का धन्यवाद करते हैं कि अस्सी-साला होते हुए भी वह लोगों को ऐसी ललक के सहारे ज़िन्दा रखता है.ऐसे ख़याल आते ही घर बैठकर  वे बीमारी में भी टॉनिक लेते रहते हैं.हमारे एक मित्र जो हमसे दस साल बड़े हैं,इस रस को अपना रोग बनाये बैठे हैं.बात होने पर दिल की भड़ास निकालते हैं और इच्छा करते हैं कि पुराने दिन फिर से लौट आयें.इस पर मैं कहता हूँ कि ऐसा होने पर फ़ायदा तो एक मिलेगा पर नुकसान बहुत सारे झेलने पड़ेंगे.इस तरह उनकी उम्मीद हवा हो जाती है पर टूटती नहीं.नए सिरे से,नए तरीके से वे अपने दिल को बहलाने का इंतजाम करने में जुट जाते हैं ! ऐसे में उन्हें मुक्ति मिलेगी क्या ?


अगर किसी को हम  भौतिक रूप से नुकसान नहीं पहुँचाते,खुद मन ही मन खुश और रस-युक्त हुए रहते हैं तो भला दुनियावालों को क्या आपत्ति ?

9 मार्च 2012

एक अजन्मे बच्चे की चीख !

ये कैसा नीम सन्नाटा है,
मेरे आने के पहले ही 
चला गया मुझे लाने वाला !
क़ातिलों के हाथ 
ज़रा भी नहीं कांपे,
उन्हें अपने बच्चों के 
चेहरे नहीं दिखे,
मेरी माँ की चीत्कार भी 
नहीं सुन सके वो.
मेरे पिता कायर नहीं थे,
इस व्यवस्था से 
अर्थ की सत्ता से 
वे तालमेल नहीं बिठा पाए 
उनके सपने बड़े नहीं थे,
पर अपने पांव पर 
चलने भर का पाप किया था उनने.
उनके छोटे से सपने को भी 
बड़े और सफ़ेद लिबास में खड़े लोगों ने
निगल लिया 
कई लोगों के भविष्य में झोंक दी राख 
खा गए अपने ही मांस के लोथड़े को 
आ गया होगा सुकून 
उनकी भूखी आत्माओं को,
भर गए होंगे 
उनके खाली खप्पर लहू से !
ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे ,
उस खून में एक बूँद मेरी 
और बहुत-सारी  
उनके बच्चों की हैं .
मैं प्रणाम करता हूँ अपने पिता को,
अपने जन्म से पूर्व ही !
मैं आऊँगा ज़रूर अपनी माँ के पास 
उसी के आँचल में छुपूंगा
उसी की पीठ पर चढ़कर 
बहुत दूर तक घूम आऊँगा !
पर माँ !
क्या बाहर की दुनिया ऐसी ही है ?





विशेष :आई पी एस नरेन्द्र कुमार  का कल होली के दिन खनन-माफिया ने क़त्ल कर दिया.उनकी पत्नी के गर्भ में पल रहे बच्चे की आवाज़ है यह !
हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि उन्हें !

7 मार्च 2012

बुरा न मानो होरी है !

उधर  चुनाव के नतीजे आने शुरू हुए और इधर मुझे  चिंता हुई कि हमारे नेताजी का न जाने क्या हाल होगा ?मैंने उन्हें फोन लगाया तो बार-बार यही सन्देश आ रहा था कि वे आपकी पहुँच से बाहर हैं.अब इस पर मैं क्या कहूँ,नेताजी तो मेरी पहुँच से बाहर पहले भी थे वो तो मुआ चुनाव न आता तो वे क्या उनका फोन भी मेरी पकड़ में न आता !

मुझे याद आने लगा,नेताजी का अबकी बार बड़े जोश में होना.वे हमारे क्षेत्र के साथ-साथ पूरे प्रदेश को सुधारने का संकल्प ले चुके थे.इसके लिए कुछ समय पहले से ही वे जी-जान से जुटे हुए थे.एक तरफ वे जगह-जगह  अपनी बाजुओं को चढ़ाकर भ्रष्टाचार और अपराध को लतिया रहे थे तो दूसरी ओर उनके सिपाही जनता को ललचा और धमका रहे थे.इस अभियान में अकिल वाले वकील साब ,रणविजय जी ,बलवान जी और खैनी प्रसाद ने अहम् रोल अदा किया.किसी ने बाबा को,किसी ने महात्मा को तो किसी ने आम मतदाता को ठिकाने लगा दिया था.मुझे पूरी उम्मीद थी कि जनता आखिरी समय में  हमारे नेताजी का ही साथ देगी.

मगर चुनाव के नतीजे सब उलट-पुलट किये जा रहे थे.मेरा मन बेचैन हो गया.मुझे लगा कि इस वक़्त नेताजी को मेरी सबसे ज्यादा ज़रुरत है.फोन से बात हो नहीं पा रही थी सो मैं उनसे मिलने स्वयं उनके घर पहुँच गया.घर के बाहर लगे पोस्टर अभी भी मतदाताओं को जगाने का आह्वान कर रहे थे.एक्का-दुक्का  आदमी कुर्सियों पर पड़े ऊंघ रहे थे.तभी देखा एक कोने पर नेताजी भी बैठे दिखे.पहली बार उनसे मिलने के लिए पहले से इजाज़त लेनी की ज़रुरत नहीं पड़ी.मैं उनके पास पहुँच गया ,उन्होंने इशारे से मुझे बैठने को कहा.मैंने उनका यह इशारा जल्द समझ लिया,हालाँकि मेरे कई इशारे चुनाव के पहले वे नकार चुके थे.

मैंने नेताजी से सहानुभूति दिखाते हए कहा कि आपने इस बार बड़ी मेहनत की.इस कोशिश में आपके कुरते को भी काफी-कुछ झेलना पड़ा पर कोई बात नहीं,अगली बार आप ज़रूर सफल होंगे.नेताजी ने सांस भरते हुए कहा कि इस प्रदेश का कुछ नहीं हो सकता.लोग मुद्दों को नहीं समझते.मेरी भावनाओं को दर-किनार करके यह प्रदेश किस तरह उन्नति करेगा,मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.मैंने जनता की भलाई के लिए कितना सोच रखा था,काफी बजट भी तैयार कर रखा था,अब सब बेकार हो गया.नेताजी आगे कहने लगे कि मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है.सारी गलती चुनाव-आयोग की लगती है.फागुन के महीने में चुनाव कराने की क्या ज़रुरत थी ? मुझे तो लगता है कि इस फगुनई असर से मतदाता भी बौरा गए और उन्होंने हमारे त्याग-बलिदान का भी कोई लिहाज़ नहीं रखा !


मैंने मौके की नजाकत ताड़ते हुए कहा कि मतदाताओं को इस चुनावी-मौसम में पहली बार फागुनी बदला लेने का मौका मिला है.आप हलकान न हों.आप की बेमौसम कारगुजारी को मतदाता कई बार अनदेखा और माफ़ कर चुके हैं.इस बार यह गुस्ताखी अगर उन्होंने की है तो आप भी उन्हें माफ़ कर दो,आखिर होली है.मैंने उनके माथे पर गुलाल लगाते हुए चिकोटी काटी,बुरा न मानो होरी है !

2 मार्च 2012

छज्जे पर बैठी गौरैया !


हर सुबह घर के  आंगन में
खड़े होकर निहारता
चमकीली-पीली पिचकारी के साथ
सूरज दादा दाखिल होते हमारी दुनिया में !

छत की मुंडेर पर बैठकर
पहले ताकता फिर बोलता कौवा,
'तुम्हारे मामा आयेंगे आज'
यह बतातीं हमारी अम्मा ,
और चूल्हे पर चढ़ी हुई दाल
और पतली हो जाती !

छज्जे पर बैठी गौरैया,
थोड़ी देर इंतज़ार के बाद
चुप्पे-से नीचे उतरती
वहीँ हमारे आस-पास मंडराने लगती !
बचे हुए या बिखरे  दाने उठाती
और हमारी पकड़ में आने से पहले ही
फुर्र हो जाती !
दालान और दहलीज को
बुहारती हुई अम्मा
हमें नसीहत देतीं और टोंकती
डेहरी पर टेक लगाकर बैठे हुए हम
किसी चीज़ की फरमाइश में
कुहराम मचा देते !
आखिर में अम्मा हारतीं
हम जीतते
इस तरह मजे से जीते !
अब न कौवा है न गौरैया
दालान,दहलीज और न डेहरी
न अम्मा की नसीहतें और न उनकी टोंक,
जीतता तो रोज हूँ पर अब ,
उस जीत  जैसा स्वाद नहीं मिल पाता,
क्योंकि उस छोटी-सी जगह के बदले
हमने अपनी जेबें चौड़ी कर दीं
और हमारा अपनों से ,
अपनी ज़मीन से टूट गया नाता !