3 जुलाई 2012

सूरज की साजिश !

बादल हमको दे दगा,चले गए उस ओर |
बिन बारिश दम सूखता,नहीं नाचते मोर || (१)


धरती झुलसे उमस से,प्यासे पंछी मौन |
दादुर दर्शन हैं कठिन,अब टर्राये कौन ? (२)


सूखा सावन आ गया,गोरी खड़ी उदास |
झूले खाली पड़े हैं,बिरवा बिना हुलास || (३)


काया पत्थर की हुई,नहीं बरसते नैन |
रूठे बादल-बालमा,सूने हैं दिन-रैन || (४)


खुल्लमखुल्ला कर दिया,मेघों ने ऐलान |
सूरज की साजिश यही,नहीं बचे इंसान || ५)


जामुन काले हो रहे,बचा न उनमें स्वाद |
आम बिना टपके गिरें,मीठापन बर्बाद || (६ )

32 टिप्‍पणियां:

  1. काया पत्थर की हुई,नहीं बरसते नैन |
    रूठे बादल-बालमा,सूने हैं दिन-रैन || (४)

    ....बहुत खूब! सच में अब तो सूरज का अत्याचार असहनीय हो गया है...बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति..

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  2. आपके दोहा-मेघ से अपना मन-मयूर नाच लिया। सुंदर!

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  3. सुन्दर दोहे!
    संलग्न चित्र भी खूब है:)

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  4. बढ़िया दोहे.....

    सूरज की साजिश सफल न हो जाए!!!!
    :-(
    अनु

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  5. खुल्लमखुल्ला कर दिया,मेघों ने ऐलान |
    सूरज की साजिश यही,नहीं बचे इंसान ...

    वाह जी वाह ... कमाल के दोहे हैं सभी ... अलग अंदाज़ है सभी का ... और ये सूरज की साजिश है या बादलों की ... जो सूरज का नाम ले रहे हैं ...

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  6. खुल्लमखुल्ला कर दिया,मेघों ने ऐलान |
    सूरज की साजिश यही,नहीं बचे इंसान ||
    एकदम सच ... उम्‍दा प्रस्‍तुति ... आभार

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  7. काया पत्थर की हुई,नहीं बरसते नैन |
    रूठे बादल-बालमा,सूने हैं दिन-रैन |

    नपे तुले शब्द और उम्दा भावों का सम्प्रेषण ......!

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  8. खूबसूरत दोहे-
    आभार-
    दोहा दोहाई भरे, धरे नहीं अब धीर |
    मेघावरि न शोभते, बिन बरसाये नीर ||

    सुखा सुखा के तन-बदन, सारा रक्त निचोड़ |
    घड़े भरे ले घूमते, देंगे रविकर फोड़ ||

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  9. सुबह सुबह क्या खाये थे जो इत्ता अच्छा लिख डाले ! श्रीमती त्रिवेदी मायके से वापस नहीं आईं होंगी अब भी ,ये पक्का हुआ :)

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    1. श्रीमती जी आ गईं, खा के पूरी झाड़ |
      मेघों पर बरसा सकल, गुस्सा बड़ा पहाड़ ||

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  10. वाह कविताई हुलस रही है :-)
    और बिना टपके कैसे गिरे आम ? कोई नयी न्यूट्नीय व्याख्या हो तो
    बताओ ?

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    1. आम स्वाभाविक रूप से पककर ही टपकते हैं,ऐसी गर्मी में वो भी झुलसकर गिर रहे हैं !

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    2. 'टपके' के बदले 'रसके' हो जाय तो कैसा रहे? आलोचना से बच जायेंगे। आपका तर्क दोहा में नहीं झलकता।:)

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  11. बचपन में हवा चलाने के लिए हम बब्बे पढ़ते थे .
    आपके दोहे पढ़कर बारिस आने ही वाली है . :)

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  12. बादलों का आवाहन करते तो कुछ तो फल अवश्य मिलता :)
    निराश ना हों, वक्त अभी बाकी है !

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  13. वाह-वाह!

    बादल करते हैं दगा लगा पलीता जोर।
    कविजन की आतप व्यथा फैल रही चहुँओर॥

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  14. कमाल की अनुभूति है। ब्न बरखा के मन में क्या भाव आते हैं उसका बेहद आकर्षक वर्णन।
    इधर तो खूब बरस रहा है।

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  15. सूरज की तपन तो और बादल उत्पन्न करती है, साजिश तो हवाओं की लगती है यहाँ पर..

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  16. लगता है सूरज की तपिश आपने अपनी रचना में समेट दी है...

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  17. सच ही सूरज साजिश कर रहा है ..... बादल हैं कि दिखते ही नहीं ..... हाल बेहाल है
    सटीक दोहे

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  18. बहुत खूब...बढ़िया पोस्ट मुझे देर से दिखी।:(

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  19. काया पत्थर की हुई,नहीं बरसते नैन |
    रूठे बादल-बालमा,सूने हैं दिन-रैन || (४)

    बहुत खूब!! बादल और बालमा का अद्भुत प्रयोग!!

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  20. मौसम खुशगवार हो गया है. मोर नाच लिया है, सूरज का ऐलान बादलो ने ठंडा कर दिया है. पंछी गाने लगे है. इंसान , इंसान हो गया है. . . . . ख़ुशी के गीत गा रहा है. बहुत खूब जी . .

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